अमेरिकी नाकेबंदी के खिलाफ क्यूबा में विशाल मार्च

/ameriki-naakebandi-ke-khilaf-cuba-mein-vishal-march

20 दिसम्बर को 5 लाख से अधिक क्यूबावासी हवाना के मालेकान से अमेरिका दूतावास तक मार्च करने के लिए सड़कों पर उतरे। क्यूबा के राष्ट्रपति मिगुएल डिआज कैनेल के आह्वान पर आयोजित इस मार्च का लक्ष्य अमेरिका द्वारा क्यूबा पर 6 दशक से थोपी नाकेबंदी का अंत और अमेरिका द्वारा आतंकवाद प्रायोजक राष्ट्रों की सूची में क्यूबा को शामिल किये जाने का विरोध करना था। 
    
अमेरिका द्वारा कायम की गयी नाकेबंदी से क्यूबा की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित होती रही है। इस मार्च का नेतृत्व राष्ट्रपति कैनेल और जनरल राउल कास्त्रो ने खुद किया। 
    
दरअसल ट्रम्प के सत्तासीन होने पर क्यूबा को अमेरिका द्वारा और प्रतिबंध थोपे जाने का खतरा सता रहा है। साथ ही क्यूबा सरकार को ट्रम्प काल में क्यूबा में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के अधिक हस्तक्षेप की उम्मीद है। इस विरोध मार्च से वे ट्रम्प सरकार को इन कदमों के विरोध में अपनी एकजुटता का संदेश देना चाहते रहे हैं।
    
अमेरिकी साम्राज्यवादी क्यूबा में सत्ता परिवर्तन की मंशा से तरह-तरह के षड्यंत्रों को अंजाम देते रहे हैं। वे आतंकी समूहों को भी यहां बढ़ावा देते रहे हैं। आर्थिक नाकेबंदी कर क्यूबा की अर्थव्यवस्था तबाह करना चाहते रहे हैं। क्यूबा के विद्युत संयत्रों के लिए ईंधन की कमी पैदा करते रहे हैं। इन कदमों से वे क्यूबा में सत्ता परिवर्तन या उसे घुटने पर झुकाने की मंशा रखते रहे हैं। पर अब तक अमेरिकी शासक अपने इरादों में कुछ खास कामयाब नहीं हुए हैं। 
    
क्यूबा के पूंजीवादी शासक अमेरिका के खिलाफ पहले की तरह क्रांतिकारी तेवर तो नहीं रखते पर वे घुटनों पर झुकने को भी तैयार नहीं हैं। क्यूबा की जनता में अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी भावना भी उन्हें ऐसा करने से रोकती है। ऐसे में क्यूबा के शासक किसी तरह अमेरिका से सम्बन्ध सामान्य बनाने को सक्रिय रहे हैं। पर ट्रम्प के पिछले कार्यकाल में अमेरिका द्वारा उठाये कदमों ने क्यूबा के शासकों की मुश्किलें बढ़ा दीं। ट्रम्पकाल में क्यूबा को अधिक कड़े अमेरिकी कदमों का सामना करना पड़ा जिनसे पीछे हटने में बाइडेन ने भी खास रुचि नहीं दिखायी। 
    
ऐसे में क्यूबा के पूंजीवादी शासकों के सामने अपनी जनता के साथ खड़े होने का दिखावा करने के अलावा दूसरा चारा नहीं बचा। इस बहाने वे अमेरिका पर दबाव बना सामान्य सम्बन्ध बहाली की इच्छा पालते हैं। क्यूबा की साम्राज्यवाद विरोधी जनता अभी अपने पूंजीवादी शासकों को पूरी तरह नहीं पहचानती पर वक्त आने पर उनके पूंजीवादी रुख को वह जरूर पहचानेगी। तब वह इनके खिलाफ भी संघर्ष छेड़ेगी।  

आलेख

/takhtaapalat-ke-baad-syria-mein-bandarbaant-aur-vibhajan

सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।

/bharatiy-sanvidhaan-aphasaanaa-and-hakeekat

समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।    

/syria-par-atanki-hamalaa-aur-takhtaapalat

फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।

/bharatiy-arthvyawastha-ki-gati-aur-niyati

यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।