तख्तापलट के बाद सीरिया में बंदरबांट और विभाजन

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अमरीकी साम्राज्यवादी, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासक, तुर्की, ब्रिटिश साम्राज्यवादी, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर के शासकों की बशर अल-असद की सत्ता को उखाड़ फेंकने की लम्बे समय से चली आ रही कोशिशें और साजिशें सफल हो गयीं। ये कोशिशें ‘‘अरब बसंत’’ के दौरान तेज हो गयी थीं। तब से बशर अल असद की सत्ता के विरुद्ध उपरोक्त ताकतों ने तरह-तरह के आतंकवादी समूहों को तैयार किया, उन्हें मदद दी, उनको प्रशिक्षित किया और भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद मुहैय्या कराये। एच.टी.एस. नामक आतंकवादी समूहों के गठबंधन को तेजी के साथ सत्ता पर कब्जा कराने में इन ताकतों की बड़ी और निर्णायक भूमिका रही है। बशर अल असद की सत्ता को उखाड़ फेंकने में ये ताकतें क्यों मददगार बनीं, इसका कारण यह रहा है कि यह हुकूमत रूसी साम्राज्यवादियों के साथ खड़ी थी। यह ईरान की हुकूमत के साथ थी। इसी के साथ ही यह लेबनान के हिजबुल्ला के साथ थी। ईरान से हिजबुल्ला को जाने वाले हथियारों का वह गलियारा थी। इसे अमरीकी साम्राज्यवादी और यहूदी नस्लवादी इजरायली शासक बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। इसे बशर अल असद के तख्तापलट के बाद इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के इस बयान से समझा जा सकता है कि इन समूहों द्वारा तख्तापलट उन्होंने करवाया है। स्वाभाविक है कि इस तख्तापलट के सबसे बड़े तात्कालिक लाभार्थी इजरायली शासक और अमरीकी साम्राज्यवादी हैं। 
    
सीरिया की भू-राजनीतिक स्थिति इसे विभिन्न साम्राज्यवादी और क्षेत्रीय शक्तियों के लिए चारागाह बनाती है। साम्राज्यवादी शक्तियां विशेषकर अमरीकी साम्राज्यवादी इस पर नियंत्रण करने को पिछले 50 वर्षों से प्रयासरत रहे हैं। यह देश उत्तर में तुर्की से जुड़ा हुआ है। उत्तर-पूर्व में कुर्द आबादी का इलाका है। दक्षिणी हिस्सा इजरायल और लेबनान से जुड़ता है और दक्षिण-पश्चिम जार्डन से जुड़ता है। पूर्व दिशा में इसकी सीमा इराक से जुड़ती है। इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता के पतन के बाद अरब देशों में अकेला सीरिया ही एकमात्र देश था जो अमरीकी आंख की किरकिरी बना हुआ था। अब तख्तापलट के बाद यह आंख की किरकिरी फिलहाल के लिए निकल गयी है। 
    
जैसे ही एच.टी.एस. की सत्ता आयी, इसका समर्थन करने के लिए विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियां आगे आ गयीं। एच.टी.एस. अभी तक अमरीकी साम्राज्यवादियों की सूची में ‘‘आतंकवादी’’ संगठन था। वे इसके नेता जुलानी पर 1 करोड़ डॉलर का इनाम घोषित किये हुए थे। अमरीकी साम्राज्यवादियों की निगाह में यह संगठन आतंकवादी के बजाय चरम उग्रवादी संगठन हो गया। अमरीकी राजनयिक दमिश्क की यात्रा करने लगे। भावी राज के प्रबंधन में जुलानी के साथ चर्चा करने लगे। ब्रिटिश, फ्रांसीसी और अन्य साम्राज्यवादी शासकों के प्रतिनिधि दमिश्क की सत्ता के साथ भावी योजनायें बनाने में लग गये। तुर्की भी पीछे क्यों रहता। तुर्की सीरिया के इन नये शासकों के साथ नया संविधान बनाने में अपनी भूमिका बनाने में जोर देता रहा। 
    
इजरायली सत्ता को नये शासकों के इन कसमों-वायदों पर पूरा विश्वास नहीं था कि वे इजरायल को अपना मित्र समझते हैं और कि उनकी तरफ से इजरायल के विरुद्ध लड़ने वाले फिलिस्तीनियों, हिजबुल्ला के लड़ाकों और ईरान के समर्थकों को न सिर्फ कोई मदद नहीं दी जायेगी बल्कि उन्हें सीरियाई क्षेत्र से बाहर खदेड़ दिया जायेगा। इजरायल ने तत्काल सीरिया के हथियार भण्डारों, उसकी सैन्य और वायु शक्ति और उसकी वायु रक्षा प्रणालियों को नष्ट करने के लिए लगभग 500 हमले किये। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने भी करीब 80 से अधिक हवाई हमले करके सीरियाई सेना को तहस-नहस करने में भूमिका निभायी। इजरायल इतने पर ही नहीं रुका। उसने पहले से ही कब्जाये गोलन हाइट्स के सीरियाई इलाके को और विस्तारित करने के लिए सैनिक हमला कर दिया। उसने माउण्ट हरमोन तक के इलाके में कब्जा कर लिया। इस माउण्ट हरमोन से राजधानी दमिश्क महज 24 किमी. की दूरी पर रह गयी। 
    
सीरिया में बशर अल असद की सत्ता को उखाड़ फेंकने वाले ये नये शासक इजरायली कब्जे के बारे में एक शब्द भी नहीं बोले। इसके विरुद्ध कदम उठाना तो दूर की बात है। इन नये शासकों की निगाह में सीरिया की एकता और अखण्डता और इसकी प्रभुसत्ता का कितना महत्व है, इसे इस घटना से आसान तौर पर समझा जा सकता है। 
    
अभी तक अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया में अपनी सीमित फौजी तैनाती की बात करते रहे हैं। वे सीरिया के दक्षिण-पूर्व में अपनी 800 सैनिकों की तैनाती का दावा करते रहे हैं। वे सीरिया के इस क्षेत्र से वहां के तेल और गेहूं की चोरी करते रहे हैं। 2011 के बाद से अमरीकी फौजों की तैनाती गैर कानूनी रही है। सीरिया की हुकूमत उसे वहां से जाने की मांग उठाती रही है। अब अमरीकी अधिकारी कह रहे हैं कि उनकी फौजों की तैनाती बढ़ाकर 2000 तक कर दी गयी है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपनी इस गैर-कानूनी तैनाती को आई.एस.आई.एस. के आतंकवादियों के विरुद्ध लड़ने के नाम पर न्यायसंगत ठहराते रहे हैं। 
    
इस मामले में तुर्की भी बढ़ चढ़कर इलाकों पर कब्जा करने की कोशिश कर रहा है। तुर्की सीरिया के उत्तरी क्षेत्र में पहले ही अपना प्रभावी नियंत्रण कायम किये हुए था। इसने वहां सीरियाई नेशनल आर्मी के नाम पर बशर अल असद के विरुद्ध अपनी सेना गठित कर रखी थी। तुर्की उत्तर पूर्व की कुर्द आबादी को अपने लिए खतरा समझता है। वह कुर्द इलाके पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए उस पर हमला कर रहा है। कुर्द इलाके में संगठित कुर्दों के संगठन एस.डी.एफ. और अन्य संगठनों का अमरीकी साम्राज्यवादी समर्थन कर रहे हैं। तुर्की इन संगठनों को अपने लिए खतरा मानता है। वह तुर्की के कुर्द संगठनों और सीरिया के कुर्द संगठनों के बीच सांठगांठ होना मानता रहा है। इसलिए वह इनके विरुद्ध हमले कर रहा है। एस.डी.एफ. और अन्य कुर्द संगठनों को लेकर अमरीकी साम्राज्यवादियों और तुर्की के शासकों के बीच अंतरविरोध और मतभेद हैं। 
    
जब से एच.टी.एस. के ये नये सत्ताधारी आये हैं, सीरिया की अल्पसंख्यक आबादी पर हमले तेज हुए हैं, विशेष तौर पर अलावी आबादी के इलाकों में हमले बढ़े हैं। अलावी वह समुदाय है जिस समुदाय के बशर अल असद थे। कई अलावी समुदाय के गांवों पर हमला किया गया। इसके समुदाय के कई जजों और पदाधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया गया। अलावी समुदाय के अलावा ईसाई धर्म मानने वाले गांवों पर हमले किये गये। उनके चर्चों को जलाया गया तथा क्रिसमस के पेड़ को जलाकर राख कर दिया गया। यह हमा प्रांत में किया गया। ये हमले लगातार जारी हैं। इसके अतिरिक्त, द्रुज और यदीजी समुदाय के लोगों पर हमले जारी हैं। 
    
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है। ये आतंकवादी संगठन सलाफी या तफसीरी इस्लामी कट्टरपंथ पर आधारित हैं और बशर अल असद की हुकूमत को गैर इस्लामी मानते रहे हैं और इनका घोषित उद्देश्य मुस्लिम ब्रदरहुड की कट्टर इस्लामी खलीफाई सत्ता की स्थापना करना है। इसी के चलते वे सभी अन्य धार्मिक, प्रजातीय और संस्कृतियों के विरुद्ध दमनकारी अभियान चला रहे हैं। 
    
हालांकि अमरीकी साम्राज्यवादी इसके खतरे को समझते हैं और अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों के विरुद्ध पाखण्डपूर्ण चेतावनी देते रहे हैं। लेकिन जिस कट्टरपंथी आतंकवादी दानव को उन्होंने खड़ा किया है वह अपने चरित्र के अनुरूप ही कार्य करने को अभिशप्त है। नये आतंकवादी शासकों द्वारा जिस प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हमले हुए हैं, उसके विरुद्ध प्रदर्शन और प्रतिरोध भी बढ़े हैं। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादी और अन्य क्षेत्रीय शक्तियां जिस प्रकार सोचती हैं कि बशर अल-असद के सत्ताच्युत होते ही सीरिया उनके चंगुल में आसानी से आ जायेगा। ऐसा लगता नहीं है कि सीरिया में शांति आसानी से आ पायेगी। सबसे पहले इजरायली शासकों द्वारा सीरिया की जमीन पर कब्जा करने के विरुद्ध कई गांवों के लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। इसे कुचलने के लिए इजरायली सेना ने गोलीबारी की। 
    
इसके अतिरिक्त सीरिया की ईसाई आबादी के ऊपर किये जा रहे हमलों और हमा के एक गांव में क्रिसमस पेड़ को जलाये जाने के विरोध में दमिश्क सहित कई शहरों में विरोध प्रदर्शन किये गये। इसी प्रकार अलावी आबादी, द्रुज आबादी और यजीदी आबादी पर हमलों के विरोध में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। 
    
बशर अल असद की सत्ता जाने का लोगों को कोई विशेष अफसोस नहीं है। वह तानाशाह की सत्ता थी। वह शोषण पर आधारित सत्ता थी। लेकिन उसके स्थान पर जो सत्ता आयी है, वह इसके अतिरिक्त विभाजनकारी सत्ता है। वह समाज में अल्पसंख्यकों, विभिन्न भाषायी और प्रजातियों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों में रहने वाले समुदायों के बीच घृणा और दुश्मनी के बीज बोने वाली सत्ता है। वह सीरियाई समाज को टुकड़े-टुकड़े करके बांटने वाली सत्ता है। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादी और यहूदी नस्लवादी इजरायली हुकूमत यही चाहते हैं कि सीरिया का बाल्कनीकरण हो जाए। क्योंकि एकीकृत सीरिया इनके प्रभुत्व के लिए बड़ी बाधा है।
    
फिलहाल फौरी तौर पर सीरिया में अमरीकी साम्राज्यवादी समर्थक ताकतों की जीत हुई है। रूसी साम्राज्यवादियों और ईरान की पराजय हुई है। लेकिन ऐसी स्थिति कितने समय तक रहेगी, यह आगे का घटनाक्रम तय करेगा।  

 

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यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।