
सीरिया को लेकर साम्राज्यवादियों में बेहद घमासान मचा हुआ है और इस प्रक्रिया में अफगानिस्तान, इराक और लीबिया के बाद एक और देश तबाही के भंवर में फंस चुका है। 18 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस ने एक बार फिर पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा सीरिया में सैनिक हस्तक्षेप के प्रस्ताव पर वीटो कर दिया। साम्राज्यवादी आकांक्षाओं वाले चीन ने उसका साथ दिया।
लीबिया में गद्दाफी की हत्या कर उसकी सत्ता को खत्म करने और वहां अपनी कठपुतली सरकार बैठाने के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादी बहुत उत्साहित हैं। उन्होंने लीबिया के मामले में बहुत आसानी से रूस और चीन को गच्चा दे दिया था। यही सफलता वे एक बार फिर सीरिया में हासिल करना चाहते हैं।
सीरिया में लीबिया से भी ज्यादा दांव पर लगा है। यदि सीरिया पर पश्चिमी साम्राज्यवादी कब्जा करने में कामयाब हो जाते हैं तो पश्चिमी एशिया में रूस के एकमात्र सैनिक अड्डे की समाप्ति हो जायेगी। यह रूसी साम्राज्यवादियों की भारी क्षति होगी। सीरिया के लेबनान के हिजबुल्ला और ईरान से अच्छे संबंध हैं। फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन को भी सीरिया का समर्थन हासिल है। ये सारे पश्चिमी साम्राज्यवादियों और उनके स्थानीय गुर्गे इस्राइल जियनवादियों के लिए परेशानी का सबब है। सीरिया के पतन से इन सारे मामलों में पश्चिमी साम्राज्यवादियों की स्थिति बेहतर हो जायेगी। तब ईरान पर कब्जे का रास्ता साफ हो जायेगा। इसीलिए पश्चिमी साम्राज्यवादी किसी भी कीमत पर इसे हासिल करना चाहते हैं। पश्चिमी साम्राज्यवादियों के पिट्ठू खाड़ी के देश इसमें उनकी पूरी मदद कर रहे हैं। सीरिया में विद्रोहियों को हथियार बंद करने का काम मुख्यतः तुर्की, सउदी अरब तथा कतर कर रहे हैं। लीबिया की नवगठित पिट्ठू सरकार भी इसमें शामिल है। तुर्की की अपनी क्षेत्रीय महत्वकांक्षा है। सीरिया के असद शासन की समाप्ति में उसे किसी हद तक आगे बढ़ने का रास्ता दिखाई दे रहा है। मिस्र की वर्तमान डांवाडोल स्थिति उसे और भी प्रोत्साहित कर रही है। इसके अलावा यूरोपीय संघ में शामिल होने की उसकी इच्छा उसे यूरोपीय साम्राज्यवादियों के साथ ताल-मेल बैठाने की ओर ले जाती है। सउदी अरब और कतर के मध्ययुगीन शासकों की भी अपनी महत्वाकांक्षा हैं। साथ ही ये पश्चिमी साम्राज्यवादियों के स्थानीय गुर्गे भी हैं। ये सारे मिलकर एक ओर तो सीरिया के विद्रोहियों को लामबंद करते हैं और दूसरी ओर असद शासन पर हिंसा के द्वारा दमन का आरोप लगाते हैं। पश्चिमी साम्राज्यवादियों के प्रचारतंत्र की समस्त ताकत से वे इन आरोपों का प्रचार करते हैं। वे इसमें भी किसी हद तक जाते हैं। पिछले कुछ महीनों में एक के बाद कई एक घटनायें हुई हैं जिसमें इन विद्रोहियों ने कत्लेआम कर इसका जिम्मा असद शासन पर मढ़ने की कोशिश की। इसमें पश्चिमी प्रचारतंत्र ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। कुछ इस तरह का माहौल बनाने की कोशिश की गई कि इसे सब के द्वारा रूस-चीन पर दबाव बनाकर संयुक्त सुरक्षा परिषद में सीरिया में सैनिक हस्तक्षेप का प्रस्ताव पास करा लिया जाये। सुरक्षा परिषद की बैठक से ठीक पहले इस तरह की घटनायें एक तरह से नियम सी बन गई हैं।
सीरिया में असद शासन इस समय संकट में है। वह कुछ जनतांत्रिक सुधारों के जरिये अपने को बचाने की फिराक में है लेकिन उसकी स्थिति गंभीर है। सीरिया में एक लंबे समय से बाथ पार्टी और असद परिवार का शासन रहा है। पहले बशर असद के पिता वहां सत्ता में काबिज थे और अब वे। ज्यादातर अरब देशों की तरह सीरिया में भी तानाशाही रही है। हां, यह जरूर है कि यह खाड़ी के शेखों-अमीरों और राजाओं की तरह मध्ययुगीन तानाशाही नहीं है। सामाजिक स्तर पर भी यहां सद्दाम हुसैन के इराक, गद्दाफी के लीबिया की तरह अपेक्षाकृत आधुनिक बनने की कोशिश रही है। जब अरब में जनविद्रोहों की लहर उठी तो असद का तानाशाही शासन भी इसकी चपेट में आ गया। लेकिन जल्द ही वह लीबिया की तरह पश्चिमी साम्राज्यवादियों के छल-छद्म का शिकार हो गई। वास्तविक विद्रोही जनता किनारे हो गई और बाहरी ताकतों द्वारा लामबंद वे हथियार बंद विद्रोही प्रमुख बन गये। ये साम्राज्यवादियों के हाथों की कठपुतलियां हैं और सीरिया की जनता के लिए तानाशाह असद से भी ज्यादा खतरनाक हैं। सीरिया के मजदूर वर्ग को इन दोनों में से किसी एक को चुनने के बदले दोनों के खिलाफ संघर्ष करना होगा।