6 अपै्रल को संयुक्त राज्य अमेरिका के विदूषक राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीरिया पर हमले का आदेश दे दिया और तत्काल करीब साठ मिसाइलें सीरिया पर जा गिरीं। डोनाल्ड ट्रंप ने सीरिया पर यह हमला वहां इडलिव शहर में, जो असद सरकार के विरोधियों के कब्जे में है, रसायनिक गैस से दर्जनों लोगों के मरने की रिपोर्ट आने के बाद किया। इन मौतों के लिए असद सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया। ट्रंप ने कहा कि असद सरकार सीमा पार कर चुकी है और इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। <br />
पहले इस रसायनिक हमले की ही बात कर ली जाये। इस हमले की खबर इडलिव शहर पर कब्जा किये असद सरकार के विरोधियों द्वारा प्रसारित की गयी। किसी अन्य स्वतंत्र पत्रकार द्वारा इस संबंध में कोई रिपोर्ट नहीं दी गयी है। इस रिपोर्ट के जारी किये जाने के समय असद सरकार द्वारा इस शहर पर कब्जा करने की संभावना काफी बढ़ गयी थी। <br />
रसायनिक हमले की खबर आने पर असद सरकार का समर्थन कर रहे रूसी साम्राज्यवादियों ने यह बयान दिया कि यह संभव है कि रसायनिक गैस विरोधियों के इस गोदाम में रखी हो जिस पर असद सरकार ने बमबारी की थी। यानी रसायनिक गैस की जिम्मेदारी विरोधियों के सिर आती है। <br />
वैसे विवादास्पद तथ्यों से अलग केवल तर्क की बात करें तो इसका कोई कारण नजर नहीं आता कि वर्तमान मौके पर असद सरकार रसायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर अपनी फजीहत कराये। रूसी साम्राज्यवादियों के सैनिक हस्तक्षेप के बाद असद सरकार की सैनिक स्थिति काफी मजबूत हो गयी है। ज्यादातर बड़े शहरों पर उसका कब्जा हो गया है। आई.एस.आई.एस. पीछे हट गया है और बाकी विद्रोहियों की हालत पतली है। इस स्थिति में रसायनिक हमला कर दुनियाभर में अपनी स्थिति कमजोर करने की बेवकूफी असद सरकार नहीं कर सकती। वैसे भी संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ-साथ अमेरिकी साम्राज्यवादी भी 2013 में ही घोषित कर चुके हैं कि असद सरकार के पास कोई रसायनिक हथियार नहीं बचे हैं। <br />
ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि इस मामले में विरोधी ही दोषी हों। ऐसा भी हो सकता है कि यह अमेरिकी साम्राज्यवादियों की कारस्तानी हो जिससे वे इसका इस्तेमाल कर सीरिया में रूसी साम्राज्यवादियों की मजबूत होती स्थिति को चुनौती दे सकें। <br />
सीरिया में रसायनिक हमले की यह पहली खबर नहीं है। कई बार ऐसी खबरें आ चुकी हैं। सबसे बड़ी खबर तो 2013 में आई थी जिसके बाद असद सरकार के पास मौजूद सारे रसायनिक हथियार छीन लिये गये थे। केवल इस शर्त पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने सीरिया पर अपने सीधे हमले को टाला था। इसके बाद रसायनिक हमले की जितनी भी खबरे आईं सबमें शक की सुई आई.एस. या असद विरोधियों की ओर घूमती रही। <br />
किसी ने ठीक ही इंगित किया है कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा रसायनिक हथियारों पर यह जोर अजीब है। जिस खूनी जंग में पिछले छः सालों में पांच लाख से ज्यादा लोग मारे गये हों उसमें कुछ दर्जन लोगों का रसायनिक हथियारों से मरना इतना महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है? <br />
अमेरिकी साम्राज्यवादियों और उनके चाटुकारों ने सीरिया पर इस हमले को जायज ठहराने के लिए कहा कि डोनाल्ड ट्रंप बच्चों को बहुत प्यार करते हैं और उनसे इडलिब में बच्चों का मरना देखा नहीं गया। ये साम्राज्यवादी और उनके चाटुकार बस यह बताना भूल जाते हैं कि ठीक इस समय रोज दर्जनों बच्चे इराक, अफगानिस्तान और यमन में अमेरिकी बमबारी में मारे जा रहे हैं। खासकर यमन में नरसंहार पर चुप्पी साध ली गई है। <br />
स्पष्ट है कि मामला न तो रसायनिक हथियारों का है और न ही बच्चों का, यह मामला पश्चिमी एशिया में साम्राज्यवादियों के बीच प्रतियोगिता का है। इनकी आपसी प्रतियोगिता में एक पूरा देश तबाह हो रहा है। पांच लाख लोग मारे जा चुके हैं और पचास लाख से ज्यादा बेघर हो चुके हैं जबकि कुल आबादी करीब दो करोड़ ही है।<br />
मामले को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगाः-<br />
2011 की शुरूआत में कई अरब देशों में सरकार विरोधी विरोध प्रदर्शन और विद्रोह हुए। इसमें एक देश सीरिया भी था। शुरूआत ट्यूनिशिया से हुई थी। ट्यूनिशिया और मिस्र में विद्रोहों को सफलता मिली। जब दोनों देशों में लम्बे समय से जमे तानाशाह राष्ट्रपतियों को गद्दी छोड़नी पड़ी। बहरीन में विद्रोह को सऊदी अरब सेना ने कुचल दिया। <br />
ये विद्रोह जहां अंदुरूनी तौर पर मौजूद गंभीर असंतोष का परिणाम थे वहीं पश्चिमी साम्राज्यवादियों की चालबाजियों का भी। विद्रोह फूट पड़ने पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इन्हें इस्तेमाल करने का भरपूर प्रयास किया। सीरिया और लीबिया जैसे देशों में इन्होंने क्रमशः बशर असद और कर्नल गद्दाफी को सत्ता से हटाने में इन विद्रोहों का इस्तेमाल कराने का प्रयास किया। दोनों जगह वे असफल हुए। इसके बाद लीबिया में उन्होंने सीधे सैनिक हस्तक्षेप किया और गद्दाफी को अपदस्थ कराकर उनकी हत्या करवा दी। तब से आज तक लीबिया भयानक अराजकता और हिंसा का शिकार है। <br />
सीरिया में अमेरिकी साम्राज्यवादी लीबिया की तरह सफल नहीं हो पाये। इसका कारण सीरिया की विशेष स्थिति थी। <br />
सीरिया में रूसी साम्राज्यवादी सोवियत संघ के जमाने से ही मौजूद हैं। आज रूस का एकमात्र बाहरी सैनिक अड्डा सीरिया में ही मौजूद है। रूसी साम्राज्यवादी पश्चिम एशिया के तेल-गैस वाले क्षेत्र में, जो भू-रणनीतिक तौर पर भी बहुत महत्वपूर्ण है, अपनी स्थिति नहीं गंवा सकते थे। इसके साथ स्थानीय ताकतें भी असद सरकार के साथ थीं- ईरान और लेबनान का हिजबुल्ला। जिस हद तक ईरान का इराक की शिया सरकार पर प्रभाव था उस हद तक इराक भी सीरिया के साथ था।<br />
इसके बरक्स अमेरिकी और अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादियों के साथ-साथ ढेरों स्थानीय ताकतें भी असद सरकार के खिलाफ थीं। इनमें तुर्की, सऊदी अरब और इस्राइल प्रमुख थे। <br />
कुछ महीनों के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के बाद जब असद सरकार विरोधी ताकतों को लगा कि असद सरकार को नहीं उखाड़ सकते तो उन्होंने सैनिक हस्तक्षेप शुरू किया। इसके लिए पहले सैनिक विद्रोह को भड़काया गया और फिर यह बहाना बनाकर कि असद सरकार सीरियाई लोगों का खूनी दमन कर रही है, इन्हें खुली सैनिक मदद दी गयी। मदद देने वालों में अमेरिकी, फ्रांसीसी व ब्रिटिश साम्राज्यवादी तथा तुर्की, सऊदी अरब व इस्राइल थे। इस्राइल ने तो कई बार सीधे मिसाइलों से हमला भी किया। सैनिक मदद के लिए तुर्की और इराकी सीमाओं का इस्तेमाल किया गया। 2011 के उत्तरार्ध में सीरिया में खूनी जंग शुरू हो गयी थी। <br />
जैसा कि अपेक्षित था, इस खूनी जंग में असद सरकार के समर्थक भी छिपे तौर पर मैदान में आ डटे। जहां रूसी साम्राज्यवादियों ने उसे हथियारों की आपूर्ति की, वहीं ईरान और हिजबुल्ला ने सैनिक लड़ाके और कमाण्डर भेजे। रूसी साम्राज्यवादियों और चीनी शासकों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में असद सरकार के खिलाफ किसी सैनिक हस्तक्षेप के प्रयास को वीटो किया। <br />
इस तरह सीरिया में एक कभी न खत्म होने वाला युद्ध शुरू हो गया। इस भयानक जंग में यदि असद सरकार बची रही तो इसका एक कारण यह था कि असद सरकार के विरोधी विभाजित थे और उनके विभिन्न समर्थक उन्हें एक करने में सफल नहीं हो पा रहे थे। <br />
सीरिया के इस युद्ध में एक मोड़ तब आया जब सीरिया और इराक में आई.एस.आई.एस. का उदय हुआ। यह मूलतः अमेरिकी साम्राज्यवादियों और सऊदी अरब द्वारा पैदा किया गया भस्मासुर था जिसे तुर्की का समर्थन हासिल था। इसे तब खड़ा किया गया जब असद विरोधी बाहरी ताकतों को लगा कि सीरिया की जंग में असद विरोधी कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन हुआ यह कि आई.एस.आई.एस. ने जितनी तेजी से सीरिया में पांव जमाये उतनी ही तेजी से इराक में भी। इससे इस क्षेत्र में सारे समीकरण गडबड़ाने लगे। तब पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा आई.एस.आई.एस. का हौव्वा खड़ा किया जाने लगा। <br />
2013 में भांति-भांति के विरोधियों के सामने असद सरकार की हालत अत्यन्त पतली होने लगी। ऐसे में उसे बचाने के लिए रूसी साम्राज्यवादियों ने सीरिया में सीधे सैनिक हस्तक्षेप करने का फैसला किया। आईएसआईएस के हौव्वे ने उन्हें इसका अच्छा बहाना भी दे दिया। दूसरी ओर अमेरिका में तीखा विरोध होने के चलते अमेरिकी साम्राज्यवादी सीधा सैनिक हस्तक्षेप नहीं कर पा रहे थे। 2013 के रासायनिक हमले के समय ओबामा प्रशासन ने सीरिया पर हमला करने की ठानी थी पर तीखे अंदरूनी विरोध के कारण उसे पीछे हटना पड़ा और असद सरकार से रासायनिक हथियार छीनने मात्र से संतोष करना पड़ा। <br />
उसके बाद से सीरिया में असद सरकार की स्थिति लगातार मजबूत होती गयी है। आई.एस.आई.एस. पीछे हटा है और हाथ से निकल चुके शहरों पर असद सरकार ने फिर कब्जा कर लिया है। इस सबसे भयंकर खून-खराबा हुआ है और जैसा कि पहले कहा गया है, दो करोड़ के इस देश में पांच लाख से ज्यादा लोग मारे गये हैं। <br />
पिछले सालों में असद सरकार की स्थिति इतनी मजबूत हो गयी है कि देश के भीतर और बाहर के इसके विरोधियों की सौदेबाजी की क्षमता भी बहुत सीमित हो गयी है। अब असद को हटाने की बातें निष्प्रभावी हो गयी हैं। पिछले कुछ महीनों में सीरिया के मामले में जो भी वार्तायें हो रही थीं, और जो किसी निर्णय की ओर जा रही थीं, उनमें असद का हटाया जाना सिरे से गायब था। <br />
यह स्थिति अमेरिकी साम्राज्यवादियों सहित सभी बाहरी, असद विरोधियों को सिरे से अस्वीकार्य थी। इसका मतलब था पिछले छः साल के सारे प्रयास को निरर्थक मान लेना और हार स्वीकार कर लेना। इस हार के दूरगामी परिणाम होने थे। <br />
ऐसे में इस स्थिति को बदलने का निर्णय अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने लिया जिसका परिणाम था छः अप्रैल का हमला। <br />
वर्तमान अमरीकी राष्ट्रपति जब चुनाव लड़ रहे थे तब उन्होंने जोर-शोर से कहा था कि उनके राज में ‘अमेरिका फर्स्ट’ यानी सबसे पहले अमेरिका की नीति पर चला जायेगा। इसका मतलब यह है कि अमेरिका अन्य देशों की समस्याओं में जो हस्तक्षेप करता रहा है वह नहीं करेगा। अमरीकी साम्राज्यवादी अपनी कब्जे वाली कार्रवाइयों को ‘मानवीय हस्तक्षेप’ का नाम देते रहे हैं। यह गौरतलब है कि 2013 में डोनाल्ड ट्रम्प ने सीरिया में बराक ओबामा प्रशासन के हस्तक्षेप का विरोध किया था। <br />
डोनाल्ड ट्रम्प की इस अवस्थिति की दुनिया भर में काफी चर्चा हुयी थी। जहां अमरीकी साम्राज्यवादी बुद्धिजीवियों ने इस पर अपनी चिंता जाहिर की थी वहीं अमरीकी साम्राज्यवादियों के चाटुकारों ने भी। <br />
पर न तो ऐसा होना था और न हुआ। ट्रम्प जैसा विदूषक अमरीकी साम्राज्यवाद की मूलभूत गति को नहीं बदल सकता। वह दुनिया भर में अमरीकी साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को समाप्त कर उसे एक सामान्य पूंजीवादी देश नहीं बना सकता। और जब तक दुनिया भर में अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रभुत्व है तब तक वह इस प्रभुत्व की रक्षा और विस्तार में दूसरे देशों पर हमला करता रहेगा। यह अमेरिका के ‘डीप स्टेट’ का मामला नहीं है जैसा कि चाटुकार कहते हैं। इनके अनुसार सी.आई.ए. जैसी शक्तियां ऐसी स्थितियां पैदा कर देती हैं कि प्रशासन को न चाहते हुए भी कोई कदम उठाना पड़ता है। मसलन हो सकता है कि इडलिब में रासायनिक हमला सी.आई.ए. की कारस्तानी हो जिससे ट्रम्प को सीरिया पर हमला करने के लिए उकसाया जा सके। <br />
ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता। फर्ज कीजिए कि सीरिया के मामले में अमरीकी साम्राज्यवादी अपनी पुरानी नीति पर चलते रहते तो क्या होता? तब कम या ज्यादा समय में असद सरकार फिर पूरे देश पर काबिज हो जाती। यह केवल अंदरूनी असद विरोधियों की हार नहीं होती। यह साथ ही पश्चिमी साम्राज्यवादियों की, खासकर अमरीकी साम्राज्यवादियों की भी हार होती जिसने असद सरकार को उखाड़ने के लिए इतना जोर लगाया था। सीधा सैनिक हस्तक्षेप तो उसने अमरीकी जन मानस के विरोध और रूसी साम्राज्यवादियों के सामने आ डटने के कारण नहीं किया था। इस हार की स्थिति में समूचे पश्चिमी एशिया में अमरीकी साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को खतरा पैदा हो जाता। अमरीकी साम्राज्यवादी इसे नहीं होने दे सकते। <br />
इसलिए मसला डोनाल्ड ट्रम्प या ‘डीप स्टेट’ का नहीं है। मसला अमरीकी साम्राज्यवाद का है। अमरीकी साम्राज्यवाद के राज्य का मुखिया होने के चलते ट्रम्प को उसके हितों की रक्षा करनी ही होगी। उसे दुनिया भर में मार-काट करनी ही होगी। सीरिया पर हमला तो महज ट्रम्प की शुरूआत है। <br />
अब सीरिया में साम्राज्यवादी शक्तियां सीधे आमने-सामने हैं। जहां रूसी साम्राज्यवादी असद सरकार के समर्थन में बमबारी कर रहे हैं। वहीं अमरीकी साम्राज्यवादी असद सरकार के विरोध में। संयुक्त राष्ट्र संघ में अमरीकी प्रतिनिधि निकी हैली ने साफ कहा है कि ‘असद को जाना ही होगा’। <br />
यहां से मामला किधर जायेगा? क्या दोनों साम्राज्यवादी आपस में लड़ पड़ेंगे और तीसरा विश्व युद्ध शुरू हो जायेगा जैसा कि कुछ लोग समय-समय पर चेतावनी देते रहते हैं? ऐसा नहीं होगा। दोनों साम्राज्यवादी एक-दूसरे पर हमला नहीं करेंगे। <br />
सीरिया पर अमरीकी साम्राज्यवादियों का हमला दरअसल वहां असद विरोधियों की खराब होती जाती हालत को संभालने के लिए है जिससे उनकी सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ाया जा सके। इसका साथ ही मतलब है रूसी साम्राज्यवादियों के मुकाबले अमरीकी साम्राज्यवादियों की सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ाना। <br />
बराब ओबामा इराक और अफगानिस्तान से अमरीका को बाहर करने (सैनिक तौर पर) के घोषित उद्देश्य से सत्ता में आये थे। उनको इस ओर धकेलने के लिए यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने उनके गले में शांति का नोबल पुरस्कार भी लटका दिया था पर बराक ओबामा यह नहीं कर पाये। कर भी नहीं सकते थे। जाते-जाते वह सीरिया में 2013 के बाद दोबारा हमला करने का साहस नहीं जुटा पाये। पहली बार भी उन्हें पांव वापस खींचने पड़े थे। इसका फायदा उठाकर रूसी साम्राज्यवादियों ने वहां अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली थी। <br />
अब डोनाल्ड ट्रम्प इस स्थिति को पलटना चाहते हैं। वे सीरिया पर हमले के जरिये मामले को फिर वहां पहुंचाना चाहते हैं जहां असद विरोधियों को वरीयता हासिल हो जाये। <br />
इसमें डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में अमरीकी साम्राज्यवादी कितना सफल हो पाते हैं यह तो भविष्य में ही पता चलेगा पर इतना तय है कि साम्राज्यवादियों को इस आपसी जंग में पहले से तबाह सीरिया और ज्यादा तबाह हो जायेगा। वह केवल लाशों और खंडहरों का ढेर बन कर रह जायेगा। <br />
इसीलिए दुनिया भर की मजदूर-मेहनतकश जनता का इस सम्बन्ध में नारा होना चाहिए- ‘साम्राज्यवादियो, सीरिया से बाहर निकलो!’
सीरिया में साम्राज्यवादियों की खूनी जंग
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।