फकीर और रथ प्रभारी

भाजपा को रथ से बहुत ‘मोहब्बत’ है। 90 के दशक में इसने रथ यात्रा निकाली थी। तब मुरली, आडवाणी और वाजपेयी की तिकड़ी इसकी नेता थी। इस रथ यात्रा का ‘पोस्टर ब्वाय’ थे : आडवाणी।
    
वही आडवाणी जो आजकल ‘फकीर’ के प्रताप से ‘मार्गदर्शक मंडल’ की शोभा बढ़ा रहे हैं। इस रथ यात्रा की परिणति तब बाबरी मस्जिद ध्वंस के रूप में हुई थी। जिसके बाद देश के कई हिस्से में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण तीखा हुआ और भाजपा को इसने 1998 तक आते-आते केंद्र की सत्ता पर पहुंचा दिया था। 
    
इसके बाद से अक्सर भाजपा अलग-अलग राज्य के चुनावों से पहले भी रथ यात्राएं  निकालती है। इन रथ यात्राओं के जरिये संघ परिवार हिंदू-मुस्लिम की फासीवादी राजनीति और भाजपा का प्रचार करती है। इससे एक ओर हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण तीखा होता है तो दूसरी ओर भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ जाता है, भाजपा सत्ता हासिल करने में कई बार सफल हो जाती है।
    
अब मोदी सरकार को सत्ता में 9 साल हो चुके हैं। इस बीच तेलंगाना, मिजोरम, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव हैं। इसके बाद फिर अगले साल लोक सभा के चुनाव हैं। 
    
विधान सभा चुनावों को किसी भी तरह जीतने की मोदी-शाह की चाहत है। यदि जीत जाते हैं तो फिर इसे 2024 के लिए जनादेश बताकर लोक सभा चुनाव अपने पक्ष में करने की फिराक में हैं। मगर इन्हें खुद भी जीत से ज्यादा हार की आशंका है।
    
हार की आशंका की पहली बड़ी वजह है जनता का छुपा असन्तोष, जनता में निराशा और मोदी सरकार पर भरोसे का कमजोर होते जाना। यह स्थिति इनके तमाम हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिक एजेंडे के बावजूद है। दूसरी वजह है इंडिया गठबंधन के रूप में विपक्ष और इसकी पैंतरेबाजी। इस विपक्ष ने जाति आधारित जनगणना के रूप में अपना बड़ा दांव चल दिया है। इसका वोट प्रतिशत कुल मिलाकर 60 प्रतिशत से ज्यादा है।
    
यदि भाजपा की हार होती है तब एक नतीजा भाजपा के बिखराव में भी हो सकता है। मोदी-शाह ने अपनी पार्टी के भीतर जिन-जिन नेताओं को किनारे लगाया, जिन नेताओं की आवाज को बलपूर्वक कुचल दिया; उनके लिए सही समय होगा कि अपनी आवाज ऊंची करें और मोदी-शाह को विशेषकर मोदी को मार्गदर्शक मंडल में भेज कर उन्हें किनारे लगा दें।
    
ऐसे में फकीर मोदी और शाह की जोड़ी किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की कोशिश में है। यह लाभार्थी योजनाओं को भयानक प्रचार देने की ओर बढ़ चुकी है। यह प्रचार तो वैसे पहले भी था। अखबार, टी. वी. में रात-दिन ‘फकीर’ ही ‘फकीर’ है। शहरों में लगी बड़ी-बड़ी होर्डिंग में ‘फकीर’ की ही मुस्कराती तस्वीर है। 
    
इस प्रचार से भी मगर ‘फकीर’ को चैन कहां! अब समूची कार्यपालिका के हिस्से को ही फकीर मोदी अपनी पार्टी बना देने के मूड में हैं। 
    
अब मोदी-शाह की सरकार ने 17 अक्टूबर को एक फरमान जारी कर दिया। जिसमें कहा गया है कि संयुक्त सचिव/निदेशक/उप सचिव स्तर के अधिकारियों को ‘‘जिला रथ प्रभारी (विशेष अधिकारी)’’ के रूप में तैनात करने के लिए नामित किया जाय। जो देश के सभी 765 जिलों में ग्राम पंचायत स्तर तक 20 नवंबर 2023 से 25 जनवरी, 2024 के बीच मोदी सरकार की ‘‘पिछले नौ वर्षों की उपलब्धियों का बखान करेंगे’’।
    
साफ है प्रशासनिक अधिकारी अब उसी तरह सेल्फी पॉइंट बनाकर ‘भारत को विश्व गुरू’ बना देने का फर्जी प्रचार करेंगे। अभी तो ये ‘रथ प्रभारी’ के रूप में प्रचार करेंगे। हो सकता है लोक सभा के चुनाव तक आते आते, ये ‘रथ सारथी’ बना दिये जाएं। जो घर-घर जाकर प्रचार करें और वोट मांगे।
    
बेचारे विपक्षी क्या करें, किससे शिकायत करें! चुनाव आयोग ‘फकीर’ का दायां हाथ है। न्यायपालिका की हालत सांप-छुछून्दर की गति सी हो गयी है।
    
एक ओर सिविल सेवक अब रथ प्रभारी बनकर मोदी का प्रचार करेंगे तो दूसरी तरफ सेना के वे जवान जो छुट्टी लेकर अपने घर जाएंगे तब वहां फकीर मोदी की कथित उपलब्धियों का प्रचार करेंगे जबकि सेना 9 शहरों में 822 सेल्फी पॉइंट बनाकर, यही काम करेगी। 
    
वैसे प्रचार में सरकारी मशीनरी का उपयोग करने का मामला भी भाजपाइयों ने इंदिरा गांधी यानी कांग्रेस से ही सीखा है। हालांकि इन्होंने इसे सैकड़ों गुना आगे बढ़ा दिया है। 
    
इंदिरा गांधी पर 1971 के चुनाव में रायबरेली सीट पर अपने सेक्रेटरी (अधिकारी) यशपाल कपूर का इस्तेमाल तथा एयर फोर्स के वायुयानों का चुनाव में इस्तेमाल करने का आरोप लगा था। इसके अलावा उत्तर प्रदेश चुनावों में राज्य कर्मचारियों के इस्तेमाल का आरोप लगा था। मगर तब जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के खिलाफ दायर वाद को सुना और तत्कालीन प्रधानमंत्री को कोर्ट में हाजिर होना पड़ा। कोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला भी सुना दिया।
    
आज न्यायपालिका से ऐसी उम्मीद कौन करे। जो कि खुद हिंदू फासीवादियों की ताल पर नाच रही है। 
    
पूरी सरकारी मशीनरी को अपनी प्रचार मशीनरी में बदल देने का ‘फकीर’ का यह कारनामा वास्तव में ऐतिहासिक है। यह ‘केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 का स्पष्ट उल्लंघन है, जो निर्देश देता है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेगा।
    
इस नियमावली के तहत यदि कोई कर्मचारी किसी पार्टी के पक्ष में प्रचार करते हुए पाया जाता है तो उसके खिलाफ कठोर सजा का प्रावधान है। मगर क्या इन रथ प्रभारियों पर कोई कानूनी कार्रवाई होगी? नहीं। क्या चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन और सरकारी कर्मचारियों का प्रचार के लिए इस्तेमाल करने पर प्रधानमंत्री पर कोई कार्रवाई होगी? नहीं। क्योंकि प्रधानमंत्री अब मात्र प्रधानमंत्री नहीं हैं बल्कि बादशाह हैं। सेंगोल (राजदंड) को संसद में स्थापित कर देने के बाद तो प्रकारांतर से यह बात कह ही दी गयी है। 

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को