वैष्णव की फिसलन

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हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य है- वैष्णव की फिसलन। इसमें एक ऐसे व्यवसाई की कथा है जो पर्याप्त धार्मिक व्यक्ति है। वह एक पांच सितारा होटल खोल लेता है और फिर ग्राहकों की मांग पर एक के बाद एक धंधों को छूट देता चला जाता है- मांसाहार, शराब, अश्लील नाच-गाने और अंत में वेश्यावृत्ति। हर बार जब ग्राहक एक नयी फरमाइश पेश करते हैं तो वैष्णव अपने आराध्य देव की शरण में जाता है और उनकी अनुमति से उस धंधे को छूट दे देता है। इस तरह उसका होटल का व्यवसाय फलता-फूलता जाता है और उसकी धार्मिक अंतरात्मा भी शांत रहती है। सात्विक वैष्णव का सात्विक होटल आम पांच सितारा होटलों की तरह धंधा कर रहा होता है और वैष्णव भी खुश रहता है। 
    
करीब साठ साल पहले जब परसाई ने यह व्यंग्य लिखा था तो उन्हें जरा भी गुमान नहीं रहा होगा कि एक दिन देश का मुख्य न्यायाधीश ही उनका वैष्णव बन जायेगा। या कि उनके वैष्णव व्यवसाई का देश के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अवतरण हो जायेगा। 
    
जब 2019 में बाबरी मस्जिद का फैसला आया था तो बहुत सारे लोगों को आश्चर्य हुआ था कि न्यायाधीश चन्द्रचूड़ भी उस फैसले में सहभागी थे। बल्कि शैली से लगता था कि फैसले को उन्होंने ही लिखा था। तब उदारवादियों को खासा धक्का लगा था कि इतने अन्यायपूर्ण फैसले में उनका प्रिय जज कैसे शामिल हो सकता है। फैसले के सारे तथ्य उसके निष्कर्ष के विपरीत थे। 
    
अब मुख्य न्यायाधीश महोदय ने खुद ही इसका खुलासा कर दिया है। उन्होंने बताया कि यह फैसला उन्होंने अपने आराध्य देव के दिशा-निर्देश में दिया था। मुकदमे के दौरान उन्हें रास्ता नहीं सूझ रहा था। तब वे अपने आराध्य देव की शरण में गये और उन्हें दिशा मिल गयी। उन्होंने यह नहीं बताया कि बाकी चार जजों को दिशा कहां से मिली। खासकर एक मुसलमान जज को? उन्होंने यह भी नहीं बताया कि जब फैसले की शाम तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई सभी जजों को एक पांच सितारा होटल में बढ़िया वाइन पिलाने ले गये थे तो क्या इसका निर्देश भी आराध्य देव से मिला था? या कम से कम उन्होंने अपने आराध्य देव से इसकी अनुमति ली थी। इतने पवित्र फैसले के बाद इतनी अपवित्र शाम! राम! राम! राम!
    
मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ अपनी विद्वता के लिए जाने जाते हैं। कई लोग उन्हें संविधान का विशेषज्ञ भी मानते हैं। पर इतने विद्वान न्यायाधीश भी बाबरी मस्जिद के एक सम्पत्ति विवाद का फैसला नहीं कर पाये। वे इतने उलझ गये कि उन्हें फैसले के लिए अपने आराध्य देव की शरण में जाना पड़ा। और आराध्य देव ने उनसे कहा कि सारे साक्ष्य के विपरीत अयोध्या की वह जमीन राम मंदिर बनाने के लिए हिन्दू फासीवादियों को दे दो! साथ ही जले पर नमक छिड़कने के लिए मुसलमान पक्ष को पांच एकड़ जमीन कहीं और दे दो। 
    
भयंकर नाइंसाफी वाले इस फैसले के बावजूद बहुत सारे उदारवादियों को लगा कि यह एक अपवाद और विचलन मात्र है। पर फिर काशी विश्वनाथ मंदिर के सर्वेक्षण संबंधी फैसले, धारा-370 के फैसले, भगवा वस्त्र धारण कर मंदिर दर्शन करने तथा फिर उसका प्रदर्शन करने और अंत में संघी प्रधानमंत्री के साथ अपने घर पर गणेश पूजा करने व उसका प्रदर्शन करने ने यह साफ कर दिया कि कुछ भी अचानक नहीं हो रहा था। सबके पीछे एक निरंतरता थी। 
    
यहां तो एक कुशल वैष्णव व्यवसायी था। वह अपने आराध्य देव के निर्देश से अपने ग्राहकों की सारी मांगों को पूरा करने के लिए तत्पर था। यदि ग्राहक सात्विक होते तो वह अपना व्यवसाय सात्विक तरीके से करता रहता। पर नरभक्षी और व्यभिचारी ग्राहकों की मांगें तो कुछ और ही थीं। वैष्णव ने उन्हें निराश नहीं किया। वैष्णव की अंतरात्मा शांत होगी क्योंकि उसने सब कुछ अपने आराध्य देव से पूछ कर किया। व्यवसायी भी खुश और ग्राहक भी खुश! वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है!

 

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