आम चुनाव, बढ़ता फासीवादी हमला और मीडिया

कामरेड नगेंद्र स्मृति सेमिनार

 

2024 में देश में लोकसभा के आम चुनाव होने हैं। इस चुनाव के लिए पूंजीवादी दलों में जोड़-तोड़ अभी से शुरू हो चुकी है। यह चुनाव एक ऐसी परिस्थितियों में हो रहे हैं जब देश में हिन्दू फासीवादी ताकतें 10 वर्षों के शासन में अपनी विषबेल देश के हर कोने में फैला चुकी हैं। फासीवादी जहर समाज की रग-रग में फैलाया जा रहा है। जगह-जगह अल्पसंख्यकों, दलितों, कम्युनिस्टों, प्रगतिशील ताकतों पर हमले बोले जा रहे हैं। राज्य मशीनरी के विभिन्न अंगों में संघी तत्व बैठाने के बाद अब मोदी सरकार ने संविधान बदलने की बातें भी शुरू कर दी हैं।

 

इस मजबूत हिन्दू फासीवादी आंदोलन के मुकाबले के नाम पर जहां क्रांति की राह छोड़ चुकी ‘संसदीय वामपंथी’ विपक्षी इंडिया गठबंधन में शामिल हो रहे हैं। एक ऐसा गठबंधन जिसमें बड़े पूंजीपति वर्ग की पार्टी कांग्रेस के साथ फासीवादी तेवर लिए आप, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना शामिल हों, हिन्दू फासीवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता। फासीवाद से संघर्ष के लिए जरूरी है कि क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में वास्तविक फासीवाद विरोधी ताकतों का व्यापक मोर्चा बने जो सड़क से लेकर संसद तक फासीवादी ताकतों का मुकाबला करे।

 

हिन्दू फासीवादी आंदोलन को आज देश के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग का पूर्ण समर्थन हासिल है। संघ व बड़े पूंजीपति वर्ग के बीच एक गठजोड़ कायम हो चुका है। हिन्दू फासीवादी आंदोलन का असर देश के पूंजीवादी मीडिया पर भी पड़ रहा है। बड़े पूंजीपति वर्ग के मालिकाने वाले मीडिया समूह मोदी सरकार की हर कारस्तानी के साथ खड़े हैं। ऐसे में आम चुनाव के वक्त इनका प्रचार तंत्र येन-केन प्रकारेण भाजपा को जिताने का प्रयास करेगा। 2024 में भाजपा-संघ की जीत फासीवादी हिन्दू राष्ट्र कायम करने के उनके सपने को बेहद करीब ला देगी।

 

ऐसे वक्त में नागरिक पाक्षिक द्वारा आगामी 8 अक्टूबर को एक सेमिनार आयोजित किया जा रहा है। इस सेमिनार में चुनाव में मीडिया की अब तक रही भूमिका, फासीवादी आंदोलन के फैलाव में मीडिया की भूमिका के साथ आज के हालातों में जनपक्षधर मीडिया के सामने दरपेश चुनौतियों पर चर्चा की जायेगी। जनपक्षधर मीडिया को मजबूत करे बगैर फासीवादी आंदोलन को कोई कारगर चुनौती नहीं दी जा सकती है।

आलेख

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को