28 अगस्त अय्यंकाली की जयंती पर
जातिवाद भारतीय समाज की एक क्रूर सच्चाई है। हजारों सालों से समाज के दलित और पिछड़े इसका दंश झेलते आए हैं। इस सड़ी-गली व्यवस्था की मार आज भले ही हजार साल पहले जैसी ना हो पर आज भी समाज के दिल और दिमाग में ये मौजूद है। इसे कमजोर बनाने में उत्पीड़ित जातियों की तरफ से हुए हजारों आंदोलनों के साथ-साथ सैकड़ों ऐसे लोगों का भी योगदान रहा है जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी जातिवाद को बदलने और खत्म करने में लगा दी। इन्हीं में से एक नाम अय्यंकाली का भी है जिन्होंने अपने प्रयासों से दलितों को संगठित कर जातिवाद को खुली चुनौती दी।
अय्यंकाली का जन्म तिरुवनंतपुरम् जनपद के छोटे से गांव वेंगनूर में 28 अगस्त 1863 को हुआ था। वो जाति से पुलायार थे जिसे अछूतों में सबसे निम्न जाति माना जाता था। इनके पिता अय्यन बहुत मेहनती थे। इनकी मेहनत से प्रसन्न होकर जमींदार ने 5 एकड़ जमीन इनके परिवार को भेंट कर दी थी। जिसकी वजह से अय्यंकाली के परिवार की आर्थिक स्थिति पुलायार परिवारों में ठीक थी। बाकी पुलायारों की हैसियत उस समय भूदासों जैसी थी। उन्हें बिना किसी मजदूरी के ऊंची माने जाने वाली नैय्यर जाति के जमीदारों के यहां काम करना पड़ता था।
अपनी जाति के अन्य लोगों की तुलना में आर्थिक स्थिति ठीक होने के कारण अय्यंकाली का परिवार भूदासता से तो बचा रहा लेकिन जातीय दंश की मार खाए अय्यंकाली के बचपन ने उन्हें जाति व्यवस्था का घोर विरोधी बना दिया। जिसके खिलाफ वो जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे।
किशोर अवस्था तक आते-आते अय्यंकाली ने अपने मित्रों के साथ मिलकर गीतों, नाटकों की रचना करनी शुरू कर दी थी। अय्यंकाली की भाषा तमिल मिश्रित मलयाली थी। इससे उनके गीतों और नाटकों का असर त्रावणकोर से आगे बढ़कर मालाबार ओर कोच्चि तक फैलने लगा। गीतों और नाटकों के जरिये वह मुक्ति संदेश को फैलाते। जातीय आधार पर हो रहे शोषण के बारे में वह लोगों को जागरूक करते। अय्यंकाली ने तमाम वर्जिशों के जरिए अपना शरीर भी बलिष्ठ बना लिया था जिसका इस्तेमाल उन्होंने जातिवाद को चुनौती देने में भी की।
उन दिनों दलितों को गांव में खुला घूमने और मुख्य मार्गों पर निकलने की आजादी नहीं थी। न ही वे साफ, धुला हुआ कपड़ा पहन सकते थे। अय्यंकाली ने इस व्यवस्था को चुनौती देने का संकल्प लिया। 25 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने अपने ही जैसे युवाओं का मजबूत संगठन तैयार कर लिया था। सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करते समय अय्यंकाली के सामने सबसे पहली चुनौती थी, पुलायारों को सार्वजनिक सड़कों पर चलने का अधिकार दिलाना। 1889 में ऐसी ही एक घटना घटी। कुछ दलित युवा सार्वजनिक रास्तों पर चलने के अधिकार को लेकर आंदोलनरत थे। उसी समय उनपर ऊंची जाति के लोगों ने हमला कर दिया। दोनों पक्षों के बीच जमकर संघर्ष हुआ। सड़क खून से लाल हो गई। इसी तरह की घटनाएं मनाक्कदु, काझाकुट्टम, कनियापुरम् जैसे क्षेत्रों में भी देखने को आईं।
इस जातिवादी परंपरा को चुनौती देने के लिए अय्यंकाली ने इससे सीधे टकराने का फैसला कर लिया। 1893 की घटना है। अय्यंकाली ने दो हृष्ट-पुष्ट बैल खरीदे और एक गाड़ी। साथ में पीतल की दो बड़ी-बड़ी घंटियां। और खुद को पारंपरिक पोशाक में तैयार कर के वो खुलेआम सड़कों पर बैलगाड़ी चलाते हुए निकल गए। अय्यंकाली का बैलगाड़ी चलाना तथाकथित उच्च जाति के लोगों को रास नहीं आया उन्होंने अय्यंकाली पर कई हमले किए लेकिन अय्यंकाली टस से मस नहीं हुए। उन्होंने अपनी इस गतिविधि को जारी रखा। अंततः उनके ही प्रयासों से इस गैरबराबरी पर आधारित परंपरा के खिलाफ कानून बना।
अय्यंकाली खुद पढ़े लिखे नही थे परंतु शिक्षा के महत्त्व को जानते थे। वो जानते थे कि दलित जातियों के उत्थान के लिए शिक्षा कितनी जरूरी है। इसलिए 1904 में अय्यंकाली ने दलितों की शिक्षा के लिए आंदोलन आरंभ कर दिया। पुलायार और दूसरे अछूतों की शिक्षा के लिए उन्होंने उसी वर्ष वेंगनूर में पहला स्कूल खोला। वह केरल का पहला स्कूल था, जिसे केवल दलितों के अध्ययन के लिए खोला गया था। परंतु सवर्णों से वह बर्दाश्त न हुआ। उन्होंने स्कूल पर हमला कर, उसे तहस-नहस कर दिया। अय्यंकाली के लिए वह बड़ा धक्का था। संघर्ष को सांस्थानिक रूप देने के लिए अय्यंकाली ने ‘साधु जन परिपालन संघम’ नामक संस्था का गठन किया। उसका उद्देश्य था, पुलायार तथा दूसरे दलितों को शिक्षा के लिए प्रेरित करना।
अपने अनेक प्रयासों और स्वर्ण जातियों के कई हमलों के बाद अय्यंकाली स्कूल खोलने में सफल रहे परन्तु स्कूल में पढ़ाने के लिए शिक्षक ही नहीं मिलते थे। वो इसलिए कि दलित जातियों में कोई पढ़ा लिखा नहीं था और उच्च जातियों से कोई शिक्षक इस स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहता था। बहुत मुश्किलों के बाद एक शिक्षक का इंतजाम किया गया। लेकिन उस पर भी हमलों का डर था। अपने शिक्षक को बचाने के लिए संगठन द्वारा बकायदा अंगरक्षक नियुक्त किए गए थे जो रात-दिन शिक्षक की सुरक्षा करते थे। इतने संघर्ष के बाद ही अंततः दलितों का ये स्कूल आगे बढ़ पाया।
त्रावणकोर राज्य में सर्वाधिक जमीन नैय्यरों के अधिकार में थी। पुलायार उन्हीं के खेतों में मेहनत-मजूदरी करते थे। एक तरह से बेगार, क्योंकि पूरे दिन की मजदूरी के बदले उन्हें मात्र छह सौ ग्राम चावल प्राप्त होता था, वह भी मालिक की मर्जी से। यही नहीं उन्हें रोज मालिक के उत्पीड़न और दमन का भी सामना करना पड़ता था। इन सभी दिक्कतों और साथ ही बच्चों की पढ़ाई में आ रही अड़चन को देखते हुए पुलायारों ने घोषणा कर दी कि वे खेतों में उस समय तक काम नहीं करेंगे, जब तक उनकी मांगे नहीं मानी जाती। जमींदारों ने इसे हंसकर टाल दिया। उन्हें लगता था कि रोज कुंआ खोदकर पानी पीने वाले ये मजदूर कितने दिन हड़ताल कर पाएंगे। पर जमींदारों के सारे आंकलन गलत साबित हुए।
▪️ नौकरी को स्थायी किया जाए।
▪️ दंड या दुर्व्यवहार से पहले उचित जांच होनी चाहिए। केवल अनुमान या दूसरों के कहने पर दंड देने से बचा जाए।
▪️ कामगारों को झूठे मुकदमों में फंसाने पर रोक लगे।
▪️ मजदूरों के साथ अनुचित मारपीट पर तात्कालिक रोक लगे।
▪️ सार्वजनिक मार्गों पर चलने की स्वतंत्रता मिले।
▪️ दलित बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले।
इन मांगों के साथ दलित कामगारों की हड़ताल आगे बढ़ती रही। लेकिन बिना काम के और बिना अनाज के उनके घरों में फांके पड़ने लगे। ऐसे में दलित जाति के मछुवारे आगे आए। उन्होंने कहा कि जब तक आपकी मांगे नहीं मानी जाती आप हमारे साथ काम करो। और इस तरह दलितों के संगठित प्रतिरोध के चलते ये हड़ताल जारी रही।
वह धान की रोपाई के दिन थे। देर होने से फसल कमजोर होने की संभावना थी। कुछ जमींदारों ने खुद सारा काम करने की कोशिश की। लेकिन उन्हें काम करने का अभ्यास नहीं था, इस कारण वे बीमार पड़ने लगे। जितने काम को कोई पुलायार अकेला कर देता था, उतना काम छह-छह नैय्यर मिलकर भी नहीं कर पाते थे। अगर वे मजदूर खोजने जाते तो मजदूर मुंह-मांगी मजदूरी मांगता था। नतीजा यह हुआ कि खेत जंगल में बदलने लगे। अंततः जमींदारों को ही समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा। 1 मार्च 1910 को सरकार ने विद्यालयों में प्रवेश संबंधी कानून बनाकर पुलायार तथा दूसरे दलितों के लिए शिक्षा में प्रवेश का रास्ता साफ कर दिया। उसके अलावा मजदूरी में वृद्धि, सार्वजनिक मार्गों पर आने-जाने की आजादी जैसी मांगें भी मान ली गईं।
तत्कालीन त्रावणकोर राज्य की दलित महिलाओं को अपना स्तन ढकने का अधिकार नहीं था। स्तन के ऊपर के हिस्से पर उन्हें केवल ग्रेनाइट पत्थर के गहने पहनने की छूट थी। स्तन ढकने पर राजा द्वारा स्तन कर वसूला जाता था। इन नियमों का उल्लंघन करने पर उन्हें पेड़ से बांधकर कोड़े की सजा दी जाती थी। त्रावणकोर के राजा द्वारा लगाए गए कर की वसूली हेतु अधिकारी जब एक गांव में पहुंचा तो वहां नंगेली नाम की स्त्री ने स्तन-कर का भुगतान करने से इन्कार कर दिया। अधिकारी द्वारा जोर-जबरदस्ती करने से क्षुब्ध उस स्त्री ने गुस्से में आकर अपने दोनों स्तन काट, उन्हें केले के पत्ते पर रखकर, अधिकारी को सौंप दिए। अत्यधिक खून बहने से नंगेली की उसी दिन मृत्यु हो गई थी। नंगेली के बलिदान से केरल में जबरदस्त आक्रोश पैदा हुआ, जिसे मलयाली भाषा में #‘सन्नार लहाला’- उभोवस्त्र वस्त्र अधिकार विद्रोह कहा जाता है। नंगेली के सम्मान में उसके गांव को ‘मुलाचिपारांबु’ जिसका अर्थ ‘स्तन वाली महिला’ है—कहा जाता है।
महिलाओं के स्तन ढकने की लड़ाई के अधिकार को अय्यंकाली और अन्य नेताओं ने आगे बढ़ाया। अय्यंकाली ने दक्षिणी त्रावणकोर के नियत्तिंकर नामक स्थान से आंदोलन की शुरुआत की। सभा में आई स्त्रियों से उन्होंने कहा कि वे दासता के प्रतीक इन आभूषणों को त्यागकर सामान्य ब्लाउज धारण करें। इस पर सवर्णों की तुरंत प्रतिक्रिया हुई। भीषण और लंबे संघर्ष के बाद यहां भी शोषितों को ही झुकना पड़ा और आखिरकार दलित महिलाओं को स्तन ढकने का अधिकार मिल पाया।
अय्यंकाली 1904 से ही दमे की बीमारी का शिकार थे। मगर स्वास्थ्य की चिंता न करते हुए वे अपने समाज के कल्याण, उसे न्याय दिलाने के लिए निरंतर जूझते रहते थे। इसके लिए उन्होंने पूरे त्रावणकोर की यात्राएं की थीं। अंततः 24 मई 1941 को उन्होंने पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लिया। और 18 जून 1941 को इस महान योद्धा ने अपने प्राण छोड़ दिए। मृत्यु के लगभग 80 सालों बाद भी अय्यंकाली का जीवन और उनका संघर्ष, जातिवाद और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ने वाले लोगों को हमेशा ताकत देता रहेगा।