गौहत्या, धार्मिक भावनायें और फासीवाद

    आज हम एक कठिन दौर में जी रहे हैं। हर रोज हमारे जनवाद का गला घोंटने वाले फतवे अखबारों की सुर्खियोें में होते हैं। पहले ये फतवे सामंती खापों, धर्मगुरूओं की ओर से जारी होते थे। इन फतवों का कानूनी तौर पर कोई मोल नहीं होता था। हां! कानून लागू करने वाली संस्थाओं पुलिस-प्रशासन-न्यायालय के नुमांइदे या सरकार में बैठे नेता इन्हें अपनी आस्था के अनुरूप जब-तब कानून सरीखा दर्जा देते रहते थे। पर मोदी सरकार के केन्द्र में सत्तासीन हो जाने के बाद से सत्ता के गलियारों से ऐसे फतवों की बाढ़ सी आ गयी है। यहां तक कि फतवों को अब कानूनी रूप भी प्रदान किया जाने लगा है। फतवे जारी करने में सरकार के चहेते संघी कारकून आज सबको पीछे छोड़ पहले स्थान पर आ चुके हैं। मोदी सरकार भारतीय कानून को लात लगाते इन फतवों को रोकने के बजाय संरक्षण दे रही है। यहां तक कि फतवों को ही कानून बना डालने की तिकड़म रच रही है। <br />
    ‘भारत एक हिंदू राष्ट्र है’, ‘गीता राष्ट्रीय ग्रंथ है’, ‘ज्योतिष एक विज्ञान है’, ‘गौहत्या पाप है’, ‘धर्मांतरण नहीं घर वापसी’, ‘हिंदू धर्म बचाने के लिए अधिक बच्चे पैदा करो’, ‘आर्य भारत के मूल निवासी थे’, ‘देश 1000 वर्षों से गुलाम था’, ‘लव जिहाद’ आदि बातें संघी कारकूनों के मुख से फूटती रही हैं। इसमें अगर ‘ये मत खाओ’, ‘ये मत पहनो’, ये फिल्में मत देखो, यहां मत जाओ, इनसे मत बोलो’ सरीखे सामंती फतवे और जोड़ दें तो देश एक ऐसे कैदखाने में तब्दील किया जा रहा है जहां खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, विचारों, कलाओं सबकी स्वतंत्रता को कैद कर लिया जा रहा है। यह सब कुछ फासीवाद की आहटें हैं। <br />
    हिंदुत्व का फासीवादी आंदोलन आज बेरोकटोक सभी मुद्दों पर बयानबाजी में जुटा है। यहां तक समाज की बड़ी आबादी को इन मुद्दों पर लामबंद भी कर ले रहा है। पूंजीवादी मीडिया का बड़ा हिस्सा इस सबमें उसकी मदद कर रहा है। इसीलिए सरकार जब लोगों के जनवाद को कुचलने के लिए कोई कदम उठाती है तो जनता का एक हिस्सा पहले ही पूर्वाग्रह ग्रस्त हो सरकार के साथ खड़ा हो चुका होता है इसलिए सरकार के जनविरोधी कदमों का प्रतिकार और मुश्किल बना दिया जा रहा है। ढेरों पूर्वाग्रहों को तो धार्मिक भावनाओं के रूप में प्रचारित कर मान्यता दिलाने की साजिशें रची जा रही हैं। गौहत्या पर प्रतिबंध का मसला इस सबका एक प्रतिनिधिक उदाहरण है। <br />
    केन्द्र की भाजपा सरकार ने हाल में इस आशय के संकेत दिये कि भविष्य में पूरे देश में गौहत्या प्रतिबंधित कर दी जायेगी। हरियाणा व महाराष्ट्र की नवसत्तासीन भाजपा सरकार ने तो कड़े कानून भी पारित कर दिये। जब सुदूर केरल, उत्तर-पूर्व, महाराष्ट्र, बंगाल से गौहत्या पर रोक के खिलाफ जनता के स्वर व संघर्ष फूटने लगे तो पूंजीवादी मीडिया ने इस सबको कुछ इस रूप में प्रचारित किया कि ये सभी अधार्मिक तत्वों की आवाज है। ये धार्मिक भावनाओं का सम्मान तक नहीं करना जानते। हालत तब और बदतर हो जाते हैं जब उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों की जनता भी इस सब पर आश्चर्य व्यक्त करने लगती है कि हमारे देश के कुछ हिस्सों में गौहत्या जारी रखने की मांग हो रही है। कुल मिलाकर गाय संघ की राजनीति को फैलाने का एक रूपक बन जाती है। <br />
    संघ द्वारा मसले को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि गाय को हिंदू धर्म में पवित्र स्थान दिया गया है। उसे माता का दर्जा दिया गया है। इसीलिए देश के सभी हिंदू गाय को खाते नहीं उसकी पूजा करते हैं। हां देश के अल्पसंख्यक मुसलमान व ईसाई गाय का मांस जरूर खाते हैं और इस तरह देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">भावनाओं</span> को ठेस पहुंचाते हैं। देश के बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इसीलिए गौहत्या पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। <br />
    संघ के उपरोक्त प्रस्तुतिकरण में सत्य को बड़े पैमाने पर विकृत किया गया है। इसमें हिन्दू धर्म के अनुयाइयों को पूरे देश में समांग, एक संस्कृति का वाहक मान लिया गया है जो कि गलत है। हमारा देश ढेरों अलग-अलग राष्ट्रीयताओं में विभाजित है जिनकी भाषा-वेशभूषा, खान-पान, संस्कृति सब अलग-अलग हैं। इसीलिए हरियाणा व केरल के हिंदुओं का खानपान एक सा नहीं है। <br />
    साथ ही संघ हिन्दू धर्म के भीतर जातिगत विभाजन को भी समांग हिन्दू संस्कृति के नाम पर नजरअंदाज करता है। वह यह भूल जाता है कि एक ही जगह के सवर्ण हिंदुओं व दलितों के खान-पान में भी खासा अंतर है। दरअसल संघ हिन्दू संस्कृति के नाम पर जो बातें परोसता है वह ब्राहम्णवादी संस्कृति है। आज देश के हर कोने के ब्राहम्ण ही गौमांस खाना पाप मानते हैं। पर बाकी जातियों के साथ यह बात नहीं है। खासतौर पर दलित-आदिवासी व कुछ इलाकों में पिछड़ी जातियां भी गौमांस भक्षण करती रही हैं। मुस्लिम-ईसाई तो गौमांस खाते ही रहे हैं। इसीलिए मसले को इस रूप में प्रस्तुत करना कि देश के समस्त हिंदू गौमांस नहीं खाते, सफेद झूठ के अलावा कुछ नहीं है। यह मसले को मनमाने तरीके से सांप्रदायिक रूप देना भी है। <br />
    जहां तक हिंदू धर्म में गौ की पवित्रता का सवाल है तो यह बात भी ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाती कि हिंदू धर्म हमेशा से गौहत्या के खिलाफ रहा है। इस संदर्भ में मौटे तौर पर स्थिति यह रही है कि वैदिक काल में बड़े पैमाने पर गाय का मांस खाया जाता था। वेदों-उपनिषदों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि उस समय गौमांस भोजन का महत्वपूर्ण हिस्सा था और ब्राहम्णों से लेकर निचली जाति तक के लोग शौक से गौमांस खाते थे। <br />
    बौद्ध धर्म ने कृषि में गाय-बैलों की बढ़ती आवश्यकता के चलते शुरूआत में कृषि में उपयोग योग्य गाय-बैलों को मारने का विरोध किया। बाद में हिंदू धर्म के ब्राहम्णों ने गौहत्या को पाप व गौमांस न खाने को अपने धर्म में धीरे-धीरे शामिल कर लिया। और क्रमशः ब्राहम्णों ने गौमांस भक्षण छोड़ दिया परन्तु यही बात बाकी जातियों के साथ सच नहीं थी। वे हाल तक गौमांस भक्षण करते रहे। <br />
    गौहत्या पर रोक के लिए बड़ा संगठित अभियान 19वीं शताब्दी में दयानंद सरस्वती के आर्य समाज ने चलाना शुरू किया। जिसे बाद में संघ ने लपक लिया। <br />
    इस तरह से भारत के समूचे इतिहास में गौमांस भक्षण होता रहा। यदि कहीं कुछ प्रतिबंध लगा भी तो महज कृषि में इन जानवरों की जरूरत के मद्देनजर। खुद वैदिक काल में ब्राहम्ण भी बड़े पैमाने पर गौमांस भक्षण करते थे। बाद में जब उन्होंने गौमांस खाना छोड़ा भी तब भी हिंदू धर्म के लिए लम्बे समय तक गौहत्या कोई बड़े विवाद का मसला नहीं रहा। <br />
    आज जब संघ व उसकी सहयोगी सरकार इतिहास का भगवाकरण करने में जुटे हैं तब वे इस तथ्य को भी इतिहास के पन्नों से मिटा देना चाहते हैं कि हिंदू धर्म में कभी व्यापक तौर पर गौमांस भक्षण प्रचलित था। कि यज्ञों में गायों की आहुति दी जाती थी कि निचली जातियां ही नहीं ब्राहम्ण तक गौमांस खाते थे। <br />
    बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने प्राचीन काल में गौमांस भक्षण के प्रमाणों का विस्तार से वर्णन किया है। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं।<br />
1. महाभारत में रतिदेव नामक एक राजा का वर्णन है जो गौमांस परोसने के कारण यशस्वी बना। उसकी रसोई में प्रतिदिन दो हजार गायें काटी जाती थीं। (वन पर्व) महाभारत के ही अनुशासन पर्व में लिखा है कि गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों को एक साल के लिए तृप्ति होती है। <br />
2. मनुस्मृति में लिखा है ऊंट को छोड़कर एक ओर दांवालों में गाय, भेड़, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात् खाने योग्य हैं। <br />
3. ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है ‘‘वे पकाते हैं मेरे लिए पन्द्रह बैल, मैं खाता हूं उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से’’।<br />
4. आपस्तम्ब धर्मसूत्र में लिखा है ‘‘गाय और बैल पवित्र है इसलिए खाये जाने चाहिए।’’<br />
           <strong>(स्रोतः हाशिया ब्लाॅगस्पाट डाट इन)</strong><br />
    उपरोक्त तथ्य संघ द्वारा प्रचारित बातों को गलत साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। यानी गौ मांस भक्षण हिन्दुओं में पर्याप्त मात्रा में होता था। हां! बाद के काल में ब्राहम्णों ने इसे खाना छोड़ दिया पर दलित जातियां इसे खाती रहीं। <br />
    आजाद भारत में गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग आजादी के वक्त से ही उठायी जाती रही। संघ के उभार के साथ यह मांग जोर पकड़ती गयी। बाद में ढेरों राज्य सरकारों ने इस संदर्भ में कानून बनाये। परन्तु अभी भी ढेरों राज्यों में इस पर प्रतिबंध नहीं लगा है जहां प्रतिबंध लगा भी है वहां भी चोरी-छिपे इसके भक्षण के मामले जब तब पकड़े जाते रहे हैं।            <br />
   मौजूदा समय में देश के 11 राज्यों में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध है अर्थात् यहां गाय, बछड़ा, बैल और सांड मारने पर पूरी तरह रोक है। ये राज्य हैः जम्मू व कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़। इसके अलावा दो केन्द्र शासित प्रदेशों दिल्ली व चण्डीगढ़ में भी पूर्ण प्रतिबंध लागू है। हाल में हरियाणा में गौहत्या पर एक लाख के जुर्माने व 10 वर्ष की सजा का प्रावधान तो महाराष्ट्र में 10 हजार के जुर्माने व 5 वर्ष की सजा का प्रावधान तय किया गया है। <br />
    गौहत्या पर कुछ अन्य राज्यों में आंशिक प्रतिबंध है जिसका मायने है गाय व बछड़े की हत्या पर तो प्रतिबंध है पर बैल, सांड को काटने-खाने की इजाजत है। इसके लिए काटे जाने वाले पशु को पहले ‘फिट फार स्लाटर सर्टिफिकेट’ दिखाना जरूरी है। इन राज्यों में गौ हत्या पर सजा का जुर्माना भी कम है जो 6 माह से दो वर्ष व जुर्माना 1000 रुपये का है। ये राज्य हैं बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, तेलगांना, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा और चार केन्द्र शासित प्रदेेश दमन और दीव, दादर और नागर हवेली, पांडिचेरी और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह। <br />
    तीसरे स्तर पर वे दस राज्य हैं जहां किसी भी तरह की गौ हत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है। ये राज्य हैंः केरल, पं.बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, त्रिपुरा, सिक्कम व एक केन्द्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप। यहां बाजार में गाय बछड़े का मांस खुले तौर पर बाजार में बिकता व खाया जाता है। इनमें से 8 राज्यों व लक्षद्वीप में गौहत्या पर कोई कानून नहीं है केवल असम व पश्चिम बंगाल में ‘फिट फाॅर स्लाॅटर सर्टिफिकेट’ लेना जरूरी है। विभिन्न राज्यों में कानूनों की मौजूदा स्थिति भी यह दर्शाती है कि देश में अभी आदिवासी दलित जातियां पर्याप्त मात्रा में गौमांस खाती हैं।<br />
    महाराष्ट्र में गौहत्या पर भाजपा सरकार के कड़े कानून को लागू करने से ही इस मसले पर देश व्यापी बहस छिड़ गयी है। संघ व भाजपा इस मुद्दे को अपना आधार फैलाने के मुद्दे के तौर पर भी देखते रहे हैं। झारखण्ड में भी भाजपा सरकार पूर्ण प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर रही है तो पं. बंगाल में गौमांस के बांग्लादेश निर्यात को मुद्दा बना कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है।<br />
    भाजपा सरकार गौहत्या को पूरे देश पर अपराध के बतौर थोपने पर उतारू है वहीं वह इसके जरिये लाखों लोगों की रोजी-रोटी भी छीन रही है। अकेले महाराष्ट्र में इससे खासी तादाद में लोगों की रोजी रोटी छिन गयी है। महाराष्ट्र का मीट कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ है।<br />
    गौरक्षा का हल्ला काटने वाले संघ के इस अभियान को अगर पूरे देश में कानूनी मान्यता मिल जायेगी तो इसका सीधा असर गौवंशीय जानवरों की वृद्वि में होने के बजाय कमी के रूप में सामने आयेगा। अभी तक आम तौर पर भारतीय गांवों में लोग गाय-बैल कृषि कार्यो व दुग्ध उत्पादन के लिए पालते रहे हैं कृषि कार्य में ट्रैक्टरों के बढ़ते उपयोग से बैलों की उपयोगिता लगातार गिरती जा रही है। लोग इन जानवरों को एक उम्र तक पालने के बाद अनुपयोगी होने पर मीट उत्पादन हेतु बूचड़खानों को बेच देते रहे हैं।<br />
    अब अगर इनकी हत्या अपराध बन जायेगी तो फिर किसानों में इन जानवरों को पालने का रूझान कम होगा साथ ही बेकार हो जाने पर किसान इन जानवरों को आवारा भटकने के लिए छोड़ देंगे। यानि गाय-बैल दुर्दशा में मरने को मजबूर होंगे।<br />
    जहां तक धार्मिक भावनाओं का प्रश्न है तो पहला तथ्य तो यही है कि गौमांस खाना देश के बहुसंख्यकों की धार्मिक भावना को आहत नहीं करता क्योंकि हिन्दू धर्म में शामिल तमाम जातियां स्वयं गौमांस का भक्षण करती हैं। दूसरा यह कि एक धर्म के कुछ व्यक्तियों  की धार्मिक भावना के सम्मान का केवल यही अर्थ धर्मनिरपेक्ष राज्य में होना चाहिए कि उन लोगों को उनकी धार्मिक भावनाओं के विपरीत खान-पान के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। यानि हिन्दू धर्म के लोगों की जिस हद तक गौमांस न खाना धार्मिक भावना है उस हद तक उन्हें गाय का मांस न खाने की स्वतंत्रता हासिल होनी चाहिए।<br />
    पर धार्मिक भावना के सम्मान का कहीं से यह अर्थ नहीं होता कि दूसरे धर्मो के लोगों की खान-पान की स्वतंत्रता छीन ली जाय। दरअसल सरकार गौहत्या पर प्रतिबंध थोप दलितों-आदिवासियों-मुस्लिमों-इसाइयों के साथ ढेरों अन्य हिन्दुओं की खान पान की स्वतंत्रता छीन रही है। इसीलिए सरकार लोगों के जनवाद को संकुचित कर रही है।<br />
    धार्मिक भावनाओं का हवाला संघी फासीवादियों के लिए एक मुफीद औजार है। हिटलर जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता की बातें करता था आज संघ हिन्दू धर्म की भावनाओं का इस्तेमाल कर अपने मंसूबे लागू करवाना चाह रहा है।<br />
    हिंदू धर्म की भावनाओं के आहत होने का तर्क न केवल दूसरे धर्म के अनुनाइयों के जनवाद को संकुचित करता है बल्कि यह खुद हिंदू धर्म के बहुसंख्यकों को हिंदू धर्म की तमाम उन बातों के लिए जिन्हें वे पसन्द नहीं करते अपना जनवाद जबरन कुर्बान करने की ओर भी ढकेलता है। आज यह गौमांस खाना छोड़ने के रूप में प्रस्तुत है तो कल को इसी हिंदू धर्म का सहारा लेकर जाति व्यवस्था व जातीय उत्पीड़न को जायज ठहराया जा सकता है, संस्कृत को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिया जा सकता है, अंतरजातीय विवाहों पर रोक लगायी जा सकती है, गीता को राष्ट्रीय ग्रथ घोषित किया जा सकता है, महिलाओं का कर्तव्य पुरूष की सेवा व बच्चे पैदा करना घोषित हो सकता है, महिलाओं की पढ़ने-लिखने घूमने फिरने की आजादी छीनी जा सकती है, उनके लिए धार्मिक व्रत अनिवार्य घोषित हो सकते हैं, ‘आनर किलिंग’ को अपराध के दायरे से बाहर किया जा सकता है, और अंत में भारत के मौजूदा संविधान को रद्द कर या बदल कर हिंदू धर्म की भावनाओं के तर्क पर मनुस्मृति के बदले संस्करण को भारत का संविधान घोषित किया जा सकता है।<br />
    यह सब भले ही आज तत्काल लागू करना मुश्किल है पर संघ के कदम इसी दिशा में बढ़ रहे हैं वह जनता के एक हिस्से को बरगला उनसे उनका जनवाद कुर्बान करवा रहा है तो बाकि हिस्सों से जनवाद जबरन छीनने की ओर बढ़ रहा है। अतीत में हिटलर भी ऐसे ही आगे बढ़ा था आज मोदी-भागवत उसी का अनुसरण कर रहे हैं।<br />
    जरूरत है कि संघ की इन मंशाओं को विकराल रूप धारण करने से रोका जाय। इसके लिए जरूरी है कि हम अपने छीने जाते जनवाद की कदम व कदम रक्षा करने के लिए आगे बढ़ें। इनके नापाक मंसूबों को उजागर करें। आज देश का शासक पूंजीपति वर्ग का इन फासीवादी तत्वों से गठजोड़ कायम हो चुका है। अपने मुनाफे की रक्षा की खातिर ढेरों मध्ययुगीन कदमों को भी <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">पूंजी</span>पति वर्ग बर्दाश्त करने को तैयार है। इसीलिए मजदूरों के श्रम कानूनों का छीना जाना और लोगों के खानपान पर पाबंदी लगना दोनों एक साथ लागू हो रहे हैं।<br />
    पूंजीपति वर्ग व संघ दोनों के गठजोड़ का मुकाबला क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन ही कर सकता है। इस क्रांतिकारी संघर्ष के विस्तार की प्रक्रिया में ही अपने छीने जाते जनवादी अधिकारों को भी बचाया जा सकता है।   

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