इजरायल के जियनवादी शासकों द्वारा गाजापट्टी पर ताजा बर्बर हमले के दौरान भारत के हिन्दू फासीवादियों की प्रतिक्रिया काबिले गौर है। भाजपा के आई टी सेल से लेकर पूंजीवादी प्रचारतंत्र के सारे सरकार समर्थक भोंपू एक सिरे से जियनवादी शासकों के समर्थन में लामबंद हो गये हैं। दुनिया भर के लोगों ने यह कौतूहल से देखा कि इस हमले के मामले में ज्यादातर झूठी खबरें भारत से प्रचारित-प्रसारित हो रही हैं।
इस संबंध में पहला सहज स्पष्टीकरण यही सामने आता है कि चूंकि इजरायली जियनवादी हमले का शिकार फिलीस्तीनी लोग मुसलमान हैं इसलिए मुसलमानों से दिली घृणा करने वाले हिन्दू फासीवादी जियनवादी शासकों के साथ खड़े हो गये हैं। इस स्पष्टीकरण में सच्चाई भी है। लेकिन बात केवल इतने तक सीमित नहीं है। हिन्दू फासीवादियों की मुसलमानों के प्रति घृणा केवल धार्मिक साम्प्रदायिक नहीं है। यह साथ में फासीवादी भी है। हिन्दू फासीवाद धार्मिक नफरत (खासकर मुसलमानों के प्रति) पर आधारित है। यह फासीवादी सोच जियनवादी शासकों के प्रति हिन्दू फासीवादियों के एक खास दृष्टिकोण का निर्माण करती है। इसके कई सारे आयाम हैं।
पहली नजर में यह अजीब लग सकता है कि जो यहूदी कभी फासीवाद (नाजीवाद के ज्यादा घृणित रूप में) के इतने भयानक शिकार रहे उनके प्रति हिन्दू फासीवादियों का इतना प्यार क्यों उमड़ रहा है जो हिटलर को अपना आदर्श मानते रहे हैं। इनके गुरू गोलवलकर ने तो हिटलर के जमाने में खुलेआम कहा ही था कि हिन्दुओं को भारत में मुसलमानों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो जर्मनी में यहूदियों के साथ हो रहा था। यह अजीब सी लगने वाली बात तब समझ में आ जाती है जब इस बात को ध्यान में रखते हैं कि भारत के हिन्दू फासीवादियों का प्यार यहूदियों के प्रति नहीं उमड़ रहा है बल्कि जियनवादियों के प्रति उमड़ रहा है। जैसे भारत में सारे हिन्दू, हिन्दू फासीवादी नहीं हैं वैसे ही इजरायल में सारे यहूदी जियनवादी नहीं हैं। बल्कि वे आबादी में अल्पसंख्यक हैं। पर आज ये ही हिन्दू फासीवादी और जियनवादी दोनों जगह सत्ता में हैं। और यही दोनों की एक-दूसरे के प्रति आदर-सम्मान की भावना का आधार है। दोनों ही फासीवादी हैं और दोनों ही मुसलमानों के प्रति नफरत से भरे हुए हैं।
यह बात भी कई लोगों को अजीब लगती है कि जियनवादी आज मुसलमानों के प्रति इस कदर नफरत से भरे हुए हैं और इसाई शासक इन जियनवादियों का भरपूर समर्थन कर रहे हैं। यह अजीब इसलिए है कि इतिहास में दो हजार साल तक इसाईयों ने ही यहूदियों का उत्पीड़न किया था। इसके उलट इस्लामी शासन के पिछले चौदह सौ सालों में यहूदी ज्यादातर सुरक्षित ही रहे थे। इस्लाम धर्म यहूदी धर्म की सीधी परंपरा में पैदा हुआ था और इसने बहुत सारी चीजें उसी से ली थीं। इस्लाम की नजर में यहूदी पैगम्बर अब्राहम तथा आसमानी किताब वाले लोग थे जिन्हें संरक्षण का अधिकार था। इसके उलट इसाई हमेशा से यहूदियों को ईसा मसीह के सूली पर चढ़ाये जाने का जिम्मेदार मानकर उनसे नफरत करते रहे और उन्हें प्रताड़ित करते रहे। यह प्रताड़ना हिटलर के जर्मनी में चरम पर जा पहुंची।
पर यह बात भी तब स्पष्ट हो जायेगी जब इस बात को ध्यान में रखा जाये कि वर्गों में बंटे हुए अन्याय-अत्याचार वाले समाजों में अपने ऊपर होने वाले अन्याय-अत्याचार के विरोध का मतलब यह नहीं होता है कि यह विरोध करने वाले लोग अन्याय-अत्याचार मात्र का विरोध करते हैं। वे बस अपने ऊपर होने वाले अन्याय-अत्याचार का विरोध करते हैं। ऐसा हो सकता है कि वे ठीक उसी समय दूसरे के ऊपर होने वाले अन्याय-अत्याचार का समर्थन करें। इतिहास में हमेशा ही होता रहा है कि शासित जब शासक बन गये तो उन्होंने पुराने शासकों की तरह ही अन्याय-अत्याचार किया। गुलाम यदि कभी विद्रोह में सफल हो जाते थे तो वे पलटकर अपने मालिकों को गुलाम बना लेते थे।
इसीलिए यदि हजारों सालों तक प्रताड़ित किये जाते रहे यहूदी एक कौम के तौर पर एक राष्ट्र के रूप में संगठित होकर ताकतवर हो गये तो उन्होंने उसी तरह की क्रूरता का परिचय दिया। यदि यह क्रूरता मुसलमानों के प्रति रही, जो एक तरह से इतिहास में उनके संरक्षक रहे, तो यह संयोग मात्र है। यदि फिलीस्तीन में मुसलमानों के बदले इसाई रह रहे होते तो यह क्रूरता इसाईयों के प्रति होती जैसा कि यह इस समय वहां मौजूद थोड़े से इसाईयों के प्रति होती है। और तब इसाई देश उसी तरह दोगलेपन का व्यवहार कर रहे होते जैसे आजकल अरब देश कर रहे हैं। यह याद रखना होगा कि यूक्रेन और रूस के लोग एक ही धर्म को मानने वाले लोग हैं तथा दोनों ही विश्व युद्ध के मुख्य खिलाड़ी इसाई थे।
अतः, यह सोचना कि चूंकि यहूदी हजारों सालों तक प्रताड़ित कौम रहे हैं तथा वे हिटलर के यातना शिविरों और नरसंहार से गुजर चुके हैं, इसलिए वे उस तरह की क्रूरता और अन्याय-अत्याचार से बाज आयेंगे, इतिहास और समाज की कच्ची समझ का परिचय देना होगा। शोषित-प्रताड़ित लोग अपनी बारी में क्या करेंगे यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे कैसा समाज बनाते हैं। यदि वे भी शोषण और अन्याय-अत्याचार वाला समाज बनाते हैं तो अपनी बारी में वे भी शोषण व अन्याय-अत्याचार करेंगे। वे भी क्रूरता और वहशीपन का परिचय देंगे। इसके उलट यदि वे एक ऐसा समाज बनाते हैं जो शोषण व अन्याय-अत्याचार से मुक्त है तो वे भी शोषण व अन्याय-अत्याचार से बाज आयेंगे।
1948 में जब यहूदियों को संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में एक राष्ट्र- इजरायल- बनाने का मौका मिला तो उनके नेताओं का लक्ष्य एक शोषण विहीन, अन्याय-अत्याचार विहीन राष्ट्र बनाने का नहीं था। इसके उलट वे साम्राज्यवादियों की छत्र-छाया में उन्हीं की नकल का राष्ट्र बनाना चाहते थे। और इसीलिए ठीक अपने राष्ट्र के अस्तित्व में आने के समय ही उन्होंने उसी क्रूरता का परिचय देना शुरू कर दिया जिससे वे अभी-अभी हिटलर के जर्मनी में गुजरे थे।
जैसे सं.रा. अमेरिका में एक लम्बे समय से दो ही पार्टियां मौजूद हैं- एक दक्षिणपंथी (डेमोक्रेटिक पार्टी) तथा दूसरी धुर दक्षिणपंथी (रिपब्लिकन पार्टी)- उसी तरह इजरायल में भी उसके जन्म के समय से ही दो तरह के जियनवादी शासक मौजूद रहे हैं- एक जनतांत्रिक तथा दूसरे फासीवादी। फिलीस्तीनियों और अरबों के मामले में दोनों एक समान जियनवादी रुख रखते हैं। बस फासीवादी जियनवादी इसे फासीवादी तरीके से हासिल करना चाहते हैं। इसे भारत में जम्मू-कश्मीर के मामले में कांग्रेस और भाजपा के रुख से समझा जा सकता है। कांग्रेसी जनतंत्र का दिखावा करते हुए जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को समाप्त कर उसे भारत में समाहित करना चाहते थे तो भाजपा के हिन्दू फासीवादी लट्ठमार तरीके से। यह काबिलेगौर है कि भाजपाई जम्मू-कश्मीर में उसी नीति को अपनाने के पक्षधर रहे हैं जो जियनवादी फिलीस्तीन में अपनाते रहे हैं।
जियनवाद यहूदी शासक हलकों में प्रचलित एक खास सोच है जो मानती है कि वृहत्तर इजरायल (वर्तमान इजरायल, फिलीस्तीन तथा मिश्र, सीरिया, जार्डन और लेबनान के कुछ हिस्से) स्वयं ईश्वर द्वारा यहूदियों को सौंपी गई जमीन है जो उन्हें मिलनी चाहिए। यह पूर्णतया एक धार्मिक विश्वास है जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। पर जियनवादी इस धार्मिक आस्था के आधार पर अपने सपनों का इजरायल बनाना चाहते हैं। गौरतलब है कि हिन्दू फासीवादियों की भी यह आस्था है कि भारत हिन्दुओं का देश है। इन दोनों ही आस्थाओं का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।
जियनवादी आंदोलन यूरोप में उन्नीसवीं सदी के अंत में पैदा हुआ तथा बीसवीं सदी की शुरूआत में यूरोप में यहूदियों की प्रताड़ना के साथ जोर पकड़ता गया। सम्पत्तिवान यहूदियों के सहयोग से आम यहूदी फिलीस्तीन जाकर बसते रहे और 1948 तक उनकी संख्या आबादी में एक तिहाई हो चुकी थी। सदी की शुरूआत में यह केवल छः प्रतिशत थी। अंततः 1948 में इजरायल के निर्माण से जियनवादियों का लक्ष्य एक स्तर तक हासिल हो गया और वे वहां शासन करने जा पहुंचे। उसके बाद उनका लक्ष्य वृहत्तर इजरायल को हासिल करना रह गया जिस ओर वे पिछले पचहत्तर सालों में क्रमशः बढ़ते रहे हैं।
जैसा कि पहले कहा गया है, इजरायली शासकों यानी जियनवादियों में दो धड़े रहे हैं- एक जनतांत्रिक और दूसरा फासीवादी। फासीवादी धड़ा भी शुरू से ही मौजूद रहा है। यह याद रखना होगा कि बीबी यानी बेन्जामिन नेतन्याहू के पिताश्री ने 1948 में ही अन्य लोगों के साथ मिलकर एक पार्टी बनाई थी- हेरूत पार्टी। यह इस कदर फासीवादी थी कि तब अलबर्ट आइन्सटीन तथा अन्ना आर्न्ट ने न्यूयार्क टाइम्स में एक पत्र लिखकर इसकी भर्त्सना की थी और कहा था कि यह अपनी सोच और व्यवहार में हिटलर के नाजियों की तरह थी। जैसा बाप वैसा बेटा! आज नेतन्याहू इजरायल में फासीवादी जियनवादियों का सर्वप्रमुख नेता बनकर उभरा है। भारत की तरह ही इजरायल में भी शासक वर्गों में फासीवादी जियनवादियों के हावी होने में समय लगा। 1990 के दशक से वे क्रमशः इजरायली राजनीति में हावी होते गये और आज इजरायल-फिलीस्तीन ही नहीं, समूचा विश्व इसका परिणाम भुगत रहा है।
एक पुरानी कहावत है- आप दूसरों को गुलाम बनाकर स्वयं स्वतंत्र नहीं रहे सकते। यह व्यक्तियों ही नहीं, समूचे देश तक पर लागू होती है। इजरायल ने अपने जन्म से ही फिलीस्तीन पर कब्जा करना शुरू कर दिया और आज व्यवहारतः समूचा फिलीस्तीन इसके कब्जे में है। यह इजरायल के जियनवादी शासकों के सपनों के अनुरूप था। इजरायल के आम लोगों ने इजरायल की सुरक्षा के नाम पर इस कब्जे को स्वीकार किया। वे इस मुगालते में रहे कि इजरायली शासक फिलीस्तीनियों के हर अधिकार को कुचलकर उनके अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं। कि उनका जीवन और उनके अधिकार सुरक्षित रहेंगे। पर अंततः बाहर की आग भीतर पहुंची। इस साल की शुरूआत में इजरायलियों ने यह पाया कि फिलीस्तीनियों को नेस्नाबूद करने की कसम खाने वाला नेतन्याहू स्वयं उनके अधिकारों को पैरों तले कुचलने पर आमादा है। वे लाखों की संख्या में सड़कों पर उतर आये। विरोध प्रदर्शनों का यह सिलसिला छः महीनों तक चलता रहा। अंत में फासीवादी जियनवादी नेतन्याहू ने अपने बचाव का यही रास्ता देखा कि इजरायल को फिलीस्तीन के खिलाफ युद्ध में झोंक दिया जाये। और वह सफल हो गया। उसने इजरायल पर हमास का हमला होने दिया और अब सारा देश रक्षात्मक मुद्रा में इस फासीवादी के पीछे खड़ा है।
फासीवादियों का यह आजमाया हुआ नुस्खा था। भारत में पुलवामा-बालाकोट की याद अभी भी ताजा है जिसने हिन्दू फासीवादियों को एक हारा हुआ चुनाव जितवा दिया। लेकिन यदि भारत की तरह इजरायल में भी फासीवादी जियनवादी सफल हो गये तो इसीलिए कि इनके विरोध में सड़क पर उतरे लोग अपने विरोध को फिलिस्तीन के दमन के विरोध तक विस्तारित नहीं कर पाये। भारत में भी पाकिस्तान का नाम आते ही यहां के उदारवादियों और वाम-उदारवादियों की घिग्घी बंध जाती है। वे दृढ़तापूर्वक नहीं कह पाते कि पाकिस्तान का शैतानीकरण करना बंद करो।
इजरायली जनमानस आज अपने जियनवादी खासकर फासीवादी जियनवादी शासकों की करतूतों की कीमत चुका रहा है। वहां बहुत सारे लोग हैं जो इसे खुलकर स्वीकार कर रहे हैं। लेकिन इन्हें आगे बढ़कर यह कहना होगा कि समस्या का समाधान फिलीस्तीनी राष्ट्र की मुक्ति में है। इस मुक्ति को स्वीकार कर ही इजरायल स्वयं मुक्त हो सकता है।
पर फासीवादी अपने चरित्र से ही ऐसे होते हैं कि इस सामान्य से सच को स्वीकार नहीं कर सकते, न तो हिन्दू फासीवादी और न जियनवादी फासीवादी। वे क्रूरता और अमानवीयता की सारी हदें पार करते चले जाते हैं तथा अंत में भयानक त्रासदी के साथ स्वयं अपने विध्वंस को प्राप्त होते हैं। मुसोलिनी और हिटलर का तथा फासीवादियों और नाजीवादियों का ऐसे ही अंत हुआ था। आगे भी यही होगा। इसकी एक बानगी इस समय इजरायल-फिलीस्तीन में देखने को मिल रही है। कोई अचरज नहीं भारत के हिन्दू फासीवादी मुर्दाघाट पर नाच रहे हैं।
हिन्दू फासीवादी और जियनवादी
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को