(आज इजरायल-फिलिस्तीन के बीच चल रहे युद्ध में इजरायल लगातार निर्दोष फिलिस्तीनी अवाम का कत्लेआम कर रहा है। इस युद्ध की चर्चा के साथ ही अक्सर ही यहूदी धर्म की भी बातें हो रही हैं। परचम पत्रिका में छपा यह लेख यहूदी धर्म की उत्पत्ति मान्यताओं के बारे में एक जानकारी देता है। जिसे यहां साभार दिया जा रहा है। -सम्पादक)
आज आबादी के हिसाब से दुनिया के दो सबसे बड़े धर्म इसाई और इस्लाम हैं। ये दोनों जिस आदि परंपरा को मानते हैं उस परंपरा वाला धर्म स्वयं काफी कम आबादी का धर्म है। यह है यहूदी धर्म। आज यहूदी धर्म के दुनिया भर में करीब डेढ़ करोड़ अनुयाई हैं। इनमें से आधे से थोड़ा कम इजरायल में रहते हैं। भारत के साम्प्रदायिक हिन्दुओं को जो इस्लामी धार्मिक मान्यताएं इतनी अजीब लगती हैं उनमें से कुछ दरअसल यहूदियों की भी मान्यताएं हैं और प्रत्यक्षतः वहीं से ली गयी हैं, मसलन खतना, हलाल, सुअर को अपवित्र पशु मानना, इत्यादि। स्वयं यहूदियों ने अपनी कुछ विशिष्ट धार्मिक मान्यताएं पारसियों से ग्रहण कीं जो फिर बाद में इसाई और इस्लामी मान्यताएं भी बन गईं, मसलन कयामत का दिन, स्वर्ग और नरक तथा पुनरुत्थान इत्यादि।
यह सब आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि ये तीनों ही धर्म अलग-अलग समय में मूलतः एक ही इलाके में पैदा हुए (पारसी धर्म को मिलाकर चारों)। प्राचीन इतिहास के हिसाब से यह मैसोपोटामिया, बेबीलोन और फारस का इलाका था। इसके बगल में दक्षिण में मिश्र और पश्चिम में यूनान और रोम था। आज के हिसाब से पश्चिम एशिया का क्षेत्र है। यह याद रखना होगा कि प्राचीन काल में यह न केवल मैसोपोटामिया और बेबीलोन की महान सभ्यताओं का इलाका था बल्कि उसके पहले दुनिया की पहली खेती और पहले शहर का भी क्षेत्र था।
यहूदी एक धर्म और एक राष्ट्र के रूप में अपना मूल करीब चार हजार साल से देखते हैं। धार्मिक परंपरा के हिसाब से ईश्वर ने करीब छः हजार साल पहले (ठीक-ठीक 4032 ईसा पूर्व में) इस सृष्टि का निर्माण किया। यह निर्माण छः दिनों में हुआ और सातवें दिन ईश्वर ने आराम किया। यहूदी, इसाई और इस्लाम तीनों ही धर्मों में सातवां दिन आराम का दिन है- क्रमशः शनिवार, रविवार और शुक्रवार। आदम और हव्वा के ईडन गार्डन से निकाले जाने के काफी समय बाद ईश्वर ने अब्राहम को चुना और घोषित किया कि अब्राहम के वंशज ईश्वर के चुने हुए लोग होंगे, उन्हें एक खास इलाका दिया जायेगा और उनके साथ ईश्वर का खास अनुबन्ध (कवनेन्ट) होगा। ईश्वर उनके माध्यम से ही सारी दुनिया के इंसानों को सही रास्ते पर ले जायेगा। यहूदी परंपरा के हिसाब से अब्राहम के पुत्र इसाक के पुत्र जैकब जो बाद में इजरायल के नाम से जाने गये, के नेतृत्व में यहूदी कनान पहुंचे। यही उनके लिए ईश्वर द्वारा चुना गया क्षेत्र था। आज के हिसाब से यह इजरायल, फिलीस्तीन और लेबनान का क्षेत्र है। जैकब के दूसरे नाम इजरायल के कारण इन लोगों और क्षेत्र का नाम इजरायल पड़ा। जैकब के कुल बारह पुत्र थे और उनके नाम पर इजरायल के बारह कबीलों का नाम पड़ा।
असल में अब्राहम और उनके वंशज अर्ध घुमंतू लोग थे। इनके बीच अभी पुरानी कबीलाई परंपरायें कायम थीं। जिस कनान में आकर वे बसे वहां पहले से लोग रहते थे और उनका इनसे टकराव स्वाभाविक था। पर उस जमाने में आबादी कम होने के कारण थोड़े टकराव के साथ आस-पास बस जाना भी संभव था। यह याद रखना होगा कि लगभग उसी समय थोड़ा पीछे फिलीस्तीनी भी आकर समुद्र तट पर बसे थे। फिलीस्तीनी अपने मूल में अमियन द्वीपों के यूनानी थे।
यहूदी परंपरा के हिसाब से भीषण अकाल के चलते इजरायली मिश्र चले गये जहां वे सदियों तक गुलाम रहे। फिर उन्हें पैगम्बर मूसा मुक्त कराकर वापस इजरायल ले आये। इसी मुक्ति यात्रा में ईश्वर ने मूसा के माध्यम से इजरायलियों के लिए संदेश और आदेश भेजा जो तोराह के नाम से जाना जाता है। (तोराह यहूदी बाइबिल की पांच किताबों का संग्रह है। यहूदी बाइबिल थोडे़ क्रमिक फेर-बदल से इसाईयों को ओल्ड टेस्टामेन्ट के रूप में मान्य है) वापस लौटे इजरायलियों का वहां के वाशिन्दों से बहुत टकराव हुआ पर अंत में इजरायली कामयाब रहे। वहां बस जाने के बाद उन्हें राजा की जरूरत महसूस हुई और पुजारियों ने एक राजा नियुक्त किया पर वह नाकारा साबित हुआ। उसे हटाकर डेविड राजा बना और फिर उसका पुत्र सोलोमन। दोनों बहुत कुशल प्रशासक साबित हुए और उन्होंने आस-पास तक अपने राज का विस्तार किया।
किंवदंतियों और धार्मिक परंपराओं से परे डेविड और सोलोमन ऐतिहासिक व्यक्ति थे। दोनों का शासन दसवीं सदी ईसा पूर्व में था। यह भी स्पष्ट है कि इनके पहले यहूदी अभी अपनी पुरानी कबीलाई परंपरा में ही जी रहे थे- पुरुष प्रधान अर्ध घुमंतू कबीलाई लोग। यह मजेदार बात है कि यहूदी धर्म के हिसाब से एक यहूदी मां का बेटा जन्मजात यहूदी होगा पर समूची यहूदी धार्मिक वंशावली पुरुषों की ओर से है। यह और भी पुरानी मातृ परंपरा का नयी पितृ परंपरा के जमाने में भी उŸार जीविता का मामला हो सकता है।
अभी तक का यहूदी धर्म पुरोहितों, मंदिर और बलि आधारित था। यह उस पूरे इलाके में प्रचलित धार्मिक अनुष्ठानों और मान्यताओं के अनुरूप ही था। पर अब इजरायली राजतंत्र कायम हो जाने के बाद एक ईश्वर की ओर बढ़ा गया। सोलोमन ने येरुशलम में एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया और फिर यह यहूदियों की सारी धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र बनने लगा। हालांकि यह कहना होगा कि अगले चार-पांच सौ सालों तक पुरानी मान्यताएं और अनुष्ठान भी चलते रहे। बाद में यूनान और रोम के प्रभाव में आने पर इनमें नये सिरे से जान पड़ी।
सोलोमन के बाद यहूदी राज्य दो हिस्सों में बंट गया। उŸार में इजरायल और दक्षिण में जूडिया। बाद में जूडिया के नाम पर इनका नाम यहूदी पड़ा। उŸारवासी अपेक्षाकृत पुरानी कबीलाई मान्यताओं वाले थे जबकि दक्षिणवासी ज्यादा आधुनिक। हालांकि दोनों में ही आम जनों और शासकों (राजाओं-दरबारियों और पुरोहितों) के बीच संघर्ष काफी बढ़ गया था।
यहूदी एक ऐसे इलाके में थे जिसके चारों ओर असीरिया, बेबीलोन और मिश्र के बड़े राज्य थे। बाद में फारस का राज्य भी सामने आ गया। ये सारे राज्य समय-समय पर इजरायल और जूडिया पर हमला करते रहे और इनके शासक उनके सामने भांति-भांति से समर्पण करते रहे। मेहनतकश यहूदियों के लिए स्थिति काफी विकट रही। अंत में छठी सदी ईसा पूर्व की शुरूआत में बेबीलोन के शासकों ने यहूदियों को पराजित कर मंदिर को ध्वस्त कर डाला और यहूदी अभिजातों को बेबीलोन निर्वासित कर दिया। पर यहूदियों के सौभाग्य से जल्दी ही फारस का राज्य इस इलाके में हावी हो गया।। इसके राजाओं ने यहूदियों का निर्वासन खत्म कर दिया और उन्हें फिर मंदिर का निर्माण करने की इजाजत दे दी। यहूदी परंपरा के हिसाब से तब से दूसरे मंदिर का काल शुरू हुआ। (पांचवीं सदी ईसा पूर्व से लेकर पहली सदी तक)।
पहले मंदिर का काल यहूदियों की नई धार्मिक मान्यताओं के उदय का काल था। इस काल में पैगंबरों की भरमार थी। ये पैगंबर असल में सामाजिक उथल-पुथल को अभिव्यक्त कर रहे थे। आम जनता की बेचैनी भी उनमें अपना स्वर पा रही थी।
दूसरे मंदिर का काल पहले काल में पैदा हुई धार्मिक मान्यताओं के स्थिरीकरण का काल था। यह पूरा काल भी राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल से भरा हुआ था। यूनानी और रोमन शासन के तहत आम जन की जिंदगी और कठिन हो गयी थी। इस काल ने भी ढेरों पैगंबर देखे। काल के अंत में तो यहूदियों में कई सारे संप्रदाय पैदा हो गये जो स्थापित परंपरा से हटकर नये-नये रास्ते तलाशने लगे। इसाई धर्म की उत्पत्ति यहूदियों के एक ऐसे ही सम्प्रदाय के तौर पर हुई थी।
हालांकि फारस के राजाओं ने बेबीलोन में निर्वासित यहूदी अभिजातों को वापस लौटने की इजाजत दे दी थी पर उनमें से अधिकांश वहीं बने रहे। वापस लौटे और अप्रवासी दोनों यहूदी अभिजातों ने अब यहूदी धार्मिक मान्यताओं को स्थिर करने का काम हाथ में ले लिया। तोराह को सुगठित रूप दिया गया। इसकी व्यवस्था के लिए मदर्शिम की रचना की गयी। अब यहूदी धर्म का स्पष्ट एकेश्वरवादी रूप सामने आ गया। पर यह फारस के पारसी धर्म की छाया में हो रहा था इसलिए उसकी बहुत सारी मान्यताएं भी इसमें आ गयीं जिनका पहले जिक्र किया जा चुका है। यहूदी धर्म की जो धार्मिक मान्यताएं आज प्रचलित हैं वे असल में इसी काल की- दूसरे मंदिरकाल की देन हैं। इसके पहले यहूदी धर्म का यह रूप नहीं था।
इस काल में यहूदियों और यहूदी धर्म पर केवल पारसियों का प्रभाव ही नहीं पड़ा। इन पर यूनान और रोम का भी प्रभाव पड़ा और चूंकि रोम की संस्कृति स्वयं यूनानी संस्कृति से काफी प्रभावित थी इसलिए यूनानी प्रभाव और घनीभूत हो गया। खासकर यूनानी दार्शनिक विचार प्लेटो और अरस्तू के विचार यहूदी धार्मिक विचारों की दार्शनिक व्याख्या के लिए इस्तेमाल किये गये।
इस काल में यहूदियों की स्थिति वैसी बिल्कुल भी नहीं थी जैसा कि धार्मिक मान्यता द्वारा बताया गया था। धार्मिक मान्यता के अनुसार यहूदी ईश्वर के खास चुने गये लोग थे जिन्हें उनका खास देश मिलना था और जिनके माध्यम से ईश्वर को सारी दुनिया को रास्ता दिखाना था। पर हकीकत यह थी कि एक लंबे समय से इजरायल पर बाहरी शासकों का कब्जा था, इजरायली उनके अधीन थे। जिनका खुद का भविष्य अंधकारमय था उनके माध्यम से ईश्वर बाकी लोगों को क्या रास्ता दिखाता?
ऐसे में न केवल भांति-भांति के पैगंबर सामने आये बल्कि एक मसीहा के आने का इंतजार होने लगा। यहूदी धार्मिक मान्यता में अंतिम समय में मसीहा के आने की बात थी (यह मान्यता भी पारसी परंपरा से ली गयी थी)। अब कई लोगों को लगने लगा कि वह समय आ गया है। कई मसीहा सामने भी आये। ईशू भी उनमें से एक थे।
इस स्थिति ने जन मानस में बहुत उद्वेलन की स्थिति पैदा कर दी और समय-समय पर विद्रोह होने लगे। ऐसा ही एक विद्रोह 66 से 70 ईसवी सन् में तथा फिर 132-35 में हुआ। पहले वाले विद्रोह का भारी दमन कर रोमन साम्राज्य ने दूसरे मंदिर को नष्ट कर डाला। इन्हीं भीषण स्थितियों में इसाई संप्रदाय ने व्यापक असंतोष के भीतर जड़ जमाना शुरू किया।
दूसरे मंदिर के विध्वंस के बाद यहूदी धर्म ने वह रूप ग्रहण करना शुरू किया जिस रूप में वह आज जाना जाता है। हालांकि इसकी धार्मिक मान्यताएं दूसरे मंदिर काल की हैं पर इसके तौर-तरीके, अनुष्ठान इत्यादि पहली सदी के बाद के ही हैं। यह बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे हिन्दू धर्म जो मूलतः गुप्त वंश के बाद अपने वर्तमान रूप में सामने आया।
दूसरे मंदिर काल तक यहूदी धर्म प्रमुखतः मंदिर केन्द्रित था। अप्रवासी यहूदी भी उसी के हिसाब से चलते थे। मंदिर के पुजारियों की व्यवस्था, वहां से यहूदी संप्रदाय के धार्मिक प्रशासन की व्यवस्था तथा इस सब में राजा का योगदान सब मिल कर एक समुच्चय बनते थे। अब इजरायल और जूडिया के भयंकर दमन (हालांकि कुछ समय बाद रोमन साम्राज्य ने इन्हें धार्मिक आजादी दे दी) तथा मंदिर के विनाश ने इस केन्द्र को तितर-बितर कर दिया था।
इसके बाद यहूदी धर्म में वह ताना-बाना पैदा हुआ जो किसी केन्द्र आधारित नहीं था। ईसाईयों की तरह इसमें कोई केन्द्रीकृत चर्च नहीं था और न मुसलमानों की तरह कोई खलीफा। यह एक विकेन्द्रित व्यवस्था थी जिसमें यहूदियों को आपस में जोड़े रखने के लिए उनकी अपनी विशिष्ट धार्मिक मान्यताएं ही प्रमुख थीं। इस व्यवस्था में पुरोहितों का स्थान रब्बियों (अध्यापकों) ने ले लिया।
रब्बी दूसरे मंदिर काल में भी थे। इनका कार्य था तोराह और मदर्शिम की शिक्षा देना। अब एकदम भिन्न स्थितियों में ये रब्बी ही हर जगह धर्म का केन्द्र बन गये। दस या ज्यादा वयस्क यहूदियों को मिलाकर किसी भी जगह केन्द्र बन सकता था जहां लोग इकट्ठा होकर धार्मिक पाठन और चर्चा कर सकते थे। ऐसी जगहों को सेनागाग कहा गया।
दूसरी से पांचवी सदी के बीच रब्बियों ने मिस्नाह और तालमुद की रचना करके यहूदी धर्म को एक खास स्थिर रूप दिया। मिस्नाह असल में तोराह की धार्मिक और दार्शनिक व्याख्या था। इसके द्वारा बदली परिस्थितियों में यहूदी समुदाय की इहलौकिक और पारलौकिक जीवन शैली को निर्धारित किया गया।
ऐसा करने के लिए वही किया गया जो आम तौर पर धर्मों में किया जाता है। कहा गया कि मूसा को जब सिनाई पर्वत पर ईश्वर ने तोराह दिया था तो साथ ही उसकी मौखिक व्याख्या भी की थी। तोराह को तो बाद में लिख लिया गया था पर मौखिक व्याख्या मौखिक ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रसारित होती रही थी। अब जबकि यहूदी बिखर गये थे तो एकरूपता के लिए इसका लिखा जाना जरूरी हो गया था। यही मौखिक तोराह ही मिस्नाह है।
बाद में मिस्नाह की व्याख्या के लिए तालमुद तैयार किये गये। पहले फिलीस्तीन के यहूदियों ने इसे तैयार किया फिर बेबीलोन के यहूदियों ने। पहले को येरूशलमी और बाद वाले को बबली कहा गया। बाद में इनका मिला-जुला संस्करण भी तैयार हुआ। आज तोराह, मदर्शिम, मिस्नाह और तालमुद यहूदियों के प्रमुख धार्मिक ग्रंथ बनते हैं।
ईसा की सदियों में यहूदी सारी दुनिया में फैलने लगे। वे विभिन्न राज्यों-साम्राज्यों के तहत रहे। अक्सर उन्हें राजकीय और धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। पर कुल मिलाकर उनकी संख्या बढ़ती रही। इसमें यहूदी धर्म में रूपांतरण की भी एक भूमिका थी।
एक-दो अवसरों को छोड़कर इस्लामी काल में कुल मिलाकर यहूदी स्वतंत्रता और समृद्धि का उपभोग करते रहे। वस्तुतः अब्बासी काल को यहूदियों के लिए सांस्कृतिक तौर पर स्वर्ण काल माना जाता है। इस्लामी काल में यहूदियों की बेहतर स्थिति का कारण इस बात में निहित है कि इस्लाम ने अपनी परंपरा सीधे यहूदी धर्म से ही ली थी। यहूदी पैगंबर, नबी और आसमानी किताब वाली कौम थी।
लेकिन इसाई राज्यों में यहूदियों की स्थिति ऐसी नहीं थी। इनमें अक्सर ही उन्हें राजकीय दमन का शिकार होना पड़ता था। इनका धार्मिक और सामाजिक उत्पीड़न सामान्य बात थी क्योंकि आम इसाई समुदाय इनके प्रति धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त था।
जैसा कि इतिहास में सभी धर्मों के साथ हुआ है, समय के साथ यहूदी धर्म भी भांति-भांति के सम्प्रदायों में बंट गया। चूंकि यहूदी छोटे-छोटे समूहों में बहुत भांति-भांति के समाजों में रहते थे इसलिए सांस्कृतिक तौर पर भी उनमें बहुत भिन्नता आ गयी थी। वस्तुतः इस विश्वास को छोड़कर कि वे ईश्वर के चुने हुए लोग हैं और उन्हें उनका इजरायल देश एक दिन वापस मिलेगा, के अलावा उनमें बहुत कम समानता थी।
इसाई क्षेत्रों में यहूदी प्रमुखतः व्यापार और सूदखोरी के धंधे में लगे हुए थे। इसाई धर्म द्वारा सूदखोरी पर प्रतिबंध की भी इसमें भूमिका थी। पर इन धंधों में लगे होने के कारण जब यूरोप में पूंजीवाद का विकास हुआ तो यहूदियों को एक बढ़त हासिल हुई। परिणाम यह हुआ कि नये पूंजीपति वर्ग में यहूदियों की संख्या उनकी आबादी के हिसाब से काफी ज्यादा थी। इसने आम इसाई जन मानस में इनके प्रति पहले से मौजूद पूर्वाग्रहों के साथ मिलकर बहुत घातक रूप ग्रहण किया। हिटलर ने जर्मनी में इसी का इस्तेमाल किया था।
पूंजीवाद के विकास के साथ कुल मिलाकर जो स्थितियां पैदा हुईं उनमें 19वीं सदी में जियनवादी आंदोलन पैदा हुआ। इसकी प्रमुख मांग यह थी कि पुराने इजरायल के इलाके में यहूदियों का अपना राज कायम किया जाय। यह मांग सबसे ज्यादा केन्द्रीय व पूर्वी यूरोप में थी। इसके तहत यहूदी फिलीस्तीन में जाकर बसने भी लगे। अन्त में जब हिटलर के जर्मनी में बड़े पैमाने पर यहूदियों का नरसंहार किया गया (कुछ अनुमानों के अनुसार करीब साठ लाख) तो द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर यहूदियों के लिए इजरायल के निर्माण ने स्वीकार्यता हासिल कर ली। अंततः फिलीस्तीन का विभाजन कर इजरायल बना दिया गया जो एक स्वतंत्र देश के तौर पर 15 मई, 1948 को अस्तित्व में आया।
नये इजरायल का पिछले सात दशकों का इतिहास अपने आप में ही एक लोमहर्षक गाथा है। यह गाथा साथ ही इस बात का एक प्रतिनिधिक उदाहरण भी है कि कैसे हजारों सालों से उत्पीड़ित लोग अपनी बारी में क्रूर उप्तीड़क बन जाते हैं।
अन्य धर्मों के मुकाबले यहूदी धर्म की यह खासियत रही है कि यह एक कौम का भी निर्माण करता रहा है। अन्य लोगों को समाहित करने के बावजूद यह एक तरह से अपवर्जन वाला संप्रदाय बना रहा है। इसीलिए इसने कभी इसाई, इस्लाम या बौद्ध धर्म की तरह व्यापकता ग्रहण नहीं की। केवल पूंजीवाद के विकास ने ही इसके अपवर्जन वाले चरित्र को ढीला करना शुरू किया। इसी कारण आज सत्तर साल बाद भी दुनिया के आधे से ज्यादा यहूदी इजरायल के बाहर रहते हैं। इजरायल से सहानुभूति रखने के बावजूद वे इजरायल जाकर बसना नहीं चाहते ( इनमें से सबसे ज्यादा सं.रा. अमेरिका और कनाडा में रहते हैं)।
आज जियनवादी इजरायली शासक खुद को दुनिया के सारे यहूदियों का प्रतिनिधि समझते हैं पर हमेशा की तरह यह एक छलावा ही है। वे केवल अपने वर्ग के ही प्रतिनिधि हैं। सुदूर अतीत में आम यहूदी मेहनतकशों ने अपने शासकों के खिलाफ बार-बार विद्रोह किया था- कभी धार्मिक आवरण तो कभी सीधे-सीधे। शुरूआती इसाई धर्म भी एक ऐसा ही विद्रोह था- न केवल रोमन शासकों के खिलाफ बल्कि यहूदी अभिजातों के खिलाफ भी। आज के यहूदी मेहनतकश शायद अपनी इस परंपरा को भी नहीं भूले होंगे। उन्हें भूलना भी नहीं होगा।
(साभार : परचम पत्रिका, वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)
यहूदी धर्म
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को