अंततः एक बार फिर धर्म के आधार पर सिख राष्ट्र की मांग उठी है। अमृतपाल सिंह ने साल भर पहले सिख राष्ट्र की मांग उठाते हुए तर्क दिया कि जब हिन्दू राष्ट्र की मांग या घोषणा करना गलत नहीं है तब सिख राष्ट्र की मांग कैसे गलत है। अब अमृतपाल के चुनाव जीतने के बाद फिर से सिख राष्ट्र की मांग उछाली जाने लगी है। जो भाजपा और संघ मोदी-शाह की अगुवाई में देश को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बना देने की भरपूर कोशिश में हैं, इनके पास इसका कोई जवाब भी नहीं हो सकता कि जब हिन्दू राष्ट्र की मांग जायज है तो फिर सिख, बौद्ध, जैन आदि राष्ट्र की मांग क्यों गलत है? धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने के दावे और मांग का यही हश्र होना है।
सिखों के लिए एक अलग देश या राष्ट्र यानी खालिस्तान की मांग कोई नई नहीं बल्कि सौ साल से ज्यादा पुरानी है। ब्रिटिश गुलामी के दौर में, जब देश में हिन्दू सांप्रदायिक संगठन और इनके नेता मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगल रहे थे। ये हिन्दू, मुस्लिम धर्म के आधार पर दो राष्ट्र या देश होने का आंदोलन चला रहे थे। इसकी प्रतिक्रिया में मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन भी हिन्दू और मुस्लिम दोनों के लिए अलग-अलग देश होने की बातें करते हुए यही काम कर रहे थे। तब 1930 के दशक में धर्म के आधार पर ही सिख सांप्रदायिक ताकतों के बीच सिखों के लिए अलग देश (सिखिस्तान या खालिस्तान) बनाए जाने की मांग उठ खड़ी हुई थी। इसमें अकाली दल भी था। कैबिनेट मिशन ने हिन्दू, मुस्लिम के अलावा सिखों को भी मुख्य समुदाय माना। इसके दबाव में कांग्रेस के नेताओं पटेल और नेहरू ने उस दौर में कहा कि सिखिस्तान की मांग पर सत्ता हस्तांतरण के बाद संविधान सभा में विचार किया जाएगा। 1946 में अलग सिखिस्तान की मांग को लेकर ब्रिटिश सरकार के समक्ष प्रस्ताव भी रखा गया था।
आजादी के दौरान भारत पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त, पंजाब प्रांत को भारत और पाकिस्तान में बांट दिया गया। पूर्वी पंजाब भारत में और पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान में। पूर्वी पंजाब को अब पंजाब कहा गया और इसकी अस्थायी राजधानी शिमला बनायी गई। इसके अलावा एक प्रांत और था जिसे पेपसू कहा जाता था इसकी राजधानी पटियाला थी और यहां हिन्दी भाषी और पंजाबी भाषी लोग थे। इस क्षेत्र के कुल तेरह जिलों (7 पंजाब और 6 पेपसू) में से 7 जिलों में सिख बहुसंख्यक थे जबकि 6 में हिन्दू। 7 सिख बहुसंख्यक वाले जिलों को लेकर ही पंजाबी भाषा (गुरुमुखी लिपि) के आधार पर अलग पंजाब प्रांत (सूबा) की मांग को लेकर अकाली दल ने आंदोलन शुरू कर दिया। जन संघ (भाजपा), हिन्दू महासभा और आर्य समाज जैसी सांप्रदायिक ताकतों ने पंजाबी भाषा (गुरुमुखी लिपि) और इस आधार पर अलग पंजाबी प्रांत की मांग का जबर्दस्त विरोध किया। यही अवस्थिति कांग्रेस की भी थी। कांग्रेस ने नरम हिन्दुत्व का रुख अपनाते हुए सिख धर्म का अलग अस्तित्व स्वीकार करने के बजाय उसे हिन्दू का ही हिस्सा माना।
अलग भाषा, पहचान और संस्कृति के चलते अलग पंजाबी प्रांत के लिए आंदोलन ताकतवर होता गया। इस पंजाबी भाषा (गुरुमुखी लिपि) वाले पंजाबी प्रांत की मांग में पंजाबी संस्कृति वाले सभी धर्मों के लोग थे हालांकि इनमें बहुसंख्यक सिख ही थे। अकाली दल व कुछ अन्य सिख कट्टरपंथी संगठन सिख धार्मिक पहचान के आधार पर गोलबंदी कर रहे थे जो अलग सिखिस्तान की मांग भी करते थे। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने आंदोलन का बर्बर दमन किया, हजारों लोग गिरफ्तार हुए और कई लोग गोलीबारी में मारे गए। मगर आंदोलन को इससे और ताकत मिली। इस बीच 1956 में पेपसू को पंजाब में मिला दिया गया जबकि पंजाब के कुछ हिस्सों को हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया। इस पुनर्गठित पंजाब में समस्या और विकराल हो गई। हिन्दू सांप्रदायिक संगठनों और कांग्रेस के चलते सिख विरोधी और पंजाबी विरोधी नफरत भरा माहौल बढ़ता गया और सिख धार्मिक स्थलों पर हमले भी होने लगे। पंजाबी सूबा आंदोलन का दमन और भी तीखा हो गया।
अंततः 1966 में हिन्दी भाषी वाले इलाके को हरियाणा के रूप में पंजाब से अलग कर दिया गया और कुछ हिस्से हिमाचल में मिलाने के साथ ही अलग पंजाब प्रांत का गठन हुआ। हालांकि पंजाब से ही अलग करके बनाए गए केंद्र प्रशासित क्षेत्र चंडीगढ़ को हरियाणा और पंजाब की राजधानी बना दिया गया। केंद्र सरकार के भेदभाव पूर्ण और दमनकारी आचरण ने पंजाबी हिस्से में अलगाव को बढ़ावा दिया। बाद के दौर में खालिस्तान की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी। इसमें साम्राज्यवादी देशों की भी एक भूमिका रही। इंदिरा गांधी सरकार ने जरनेल सिंह भिंडरावाले को इस्तेमाल करके इसके जरिए जो कुछ किया वह अब इतिहास ही है। खालिस्तानी आतंकियों द्वारा तमाम जनवादी, प्रगतिशील व क्रांतिकारियों की हत्याएं की गईं। 1980 के दशक में खालिस्तानी आतंकवाद के नाम पर फिर भयानक दमन चक्र पंजाब में चला था।
यहां यह बात स्पष्ट है कि भाषावार प्रांतों के गठन की मांग जहां जनता की जनवादी मांग थी वहीं धर्म के आधार पर राष्ट्र गठन की मांग एक प्रतिक्रियावादी व जनता के बीच विभाजन पैदा करने वाली मांग है। बात चाहे धर्म के आधार पर भारत-पाक विभाजन की हो या फिर हिन्दू राष्ट्र या सिख राष्ट्र की, ये सभी मेहनतकश जनता के बीच विभाजन पैदा करने के साथ कट्टरपंथ को बढ़ावा देती हैं।
इसके 25-30 सालों की शांति के बाद हिन्दू फासीवादी और इनके तौर-तरीके तथा षड्यंत्र परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में सिख कट्टरपंथी व खालिस्तानी संगठनों को फिर से आगे बढ़ा रहे हैं। भाजपा और अकाली दल (शिरोमणि) का गठजोड़ कट्टरपंथी विचारों को पंजाब में 2014 से ही आगे बढ़ा रहा था।
2020 में जबरन थोपे गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में सशक्त जनान्दोलन भी पंजाब से उठ खड़ा हुआ। इस किसान आंदोलन ने एक साल तक दिल्ली की सरहद पर डटे रहने और कई कुर्बानियों के बाद अंततः मोदी सरकार और एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के गठजोड़ को पीछे हटने पर बाध्य कर दिया था। इस आंदोलन के दौरान एक तरफ मोदी सरकार ने खालिस्तानी कट्टरपंथियों के साथ सांठ-गांठ करके आंदोलन को पीछे हटाने की कोशिश की। तो दूसरी तरफ किसान आंदोलन को खालिस्तानी घोषित करके अलगाव में डालने के हथकंडे अपनाए। इसके अलावा इस विशेष परिस्थिति का अपने विस्तार में इस्तेमाल करने के लिये कट्टरपंथियों और खालिस्तान समर्थकों और संगठनों ने भी किया।
इस किसान आंदोलन के दौर में ही सितंबर 2021 में दीप सिद्धू ने ‘वारिस पंजाब दे’ नाम का सिख संगठन बनाया था। इसने 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार सनी देओल के पक्ष में खूब प्रचार किया। इस संगठन ने शिरोमणि अकाली दल का भी खुलकर समर्थन किया था साथ ही खालिस्तान समर्थक पूर्व सांसद सिमरनजीत सिंह मान का भी। किसान आंदोलन के दौरान 2021 में 26 जनवरी के दिन लालकिले पर सिख धार्मिक झण्डा लगाने वाला दीप सिद्धू ही था।
2022 में दीप सिद्धू की मौत के बाद ‘वारिस पंजाब दे’ का मुखिया अमृतपाल सिंह बन गया। इस पर संगठन को धोखे से कब्जा करने के आरोप लगे। यह दुबई में 2012 से कथित तौर पर अपने पारिवारिक ट्रांसपोर्ट व्यवसाय को संभाल रहा था। अमृतपाल 2022 की शुरुवात में उक्त संगठन का मुखिया बन जाता है। इसके बाद उसने सितंबर 2022 में पंजाब पहुंचकर खुद को कट्टर सिख उपदेशक के रूप में प्रस्तुत किया, साथ ही युवाओं को नशे से उबारने के लिए अभियान चलाया। वह खालिस्तान (सिख राष्ट्र) की मांग को जोर-शोर से उठाने लगा। संगठन के एक कार्यकर्ता की रिहाई के लिए बंदूकों और तलवारों से लैस, इस संगठन के कई लोगों ने थाने का घेराव किया और हमला किया। इस पूरी घटना को और फिर बाद में अमृतपाल की गिरफ्तारी को दिन-रात राष्ट्रीय चैनलों में प्रसारित किया गया। इसकी गिरफ्तारी की पल-पल की खबरें प्रसारित हुईं। इस तरह सिखों के बीच आधार विस्तारित होने में मदद पहुंचाई गई। सिखों के बीच कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया गया। इस बीच कुछ हिंदुओं पर भी हमले हुए।
अमृतपाल को भिंडरावाले 2.0 कहा गया। अमृतपाल का अचानक बहुत तेजी और आसानी से सिख राष्ट्र की मांग करते हुए आगे बढ़ना यूं ही नहीं हुआ। इसके आरोप मोदी सरकार पर लगे। दरअसल मोदी सरकार और संघ परिवार पंजाब में निरंतर ही अपना आधार विस्तार करने की कोशिश में थे। किसान आंदोलन ने पंजाब में भाजपा और मोदी के खिलाफ नफरत पैदा कर दी थी। चुनाव के दौरान भी भाजपा प्रत्याशियों को गांवों में घुसने नहीं दिया जाता था। खुद शिरोमणि अकाली दल की साख भी खत्म हो गई थी। यहीं से पंजाब में भाजपा और संघ परिवार को लगातार ही खालिस्तानी आंदोलन को हवा देनी पड़ी। पंजाब में लगभग 39 प्रतिशत हिन्दू और 58 प्रतिशत सिख हैं। इसलिए यहां हिन्दू बनाम मुस्लिम के बजाय हिन्दू बनाम सिख की जहरीली राजनीति पर फोकस करने की जरूरत थी। यहां के मजबूत किसान आंदोलन को और क्रांतिकारी किसान संगठनों को इस तरह कमजोर या ध्वस्त किया जा सकता था।
इसीलिए यह आरोप है कि केंद्र सरकार के इशारे पर केन्द्रीय एजेंसियों के दम पर भिंडरावाले 2.0 को खड़ा किया गया। कनाडा में सिख कट्टरपंथी खालिस्तानी निज्जर की हत्या करवाने के आरोप भी भारत सरकार पर लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि हिन्दू-सिख के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ। 2024 के चुनाव में हालांकि पंजाब में कोई सीट भाजपा हासिल नहीं कर पाई मगर इसके वोट प्रतिशत में 8 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि हुई। जिस तरह इंदिरा गांधी की सरकार पर भिंडरावाले को ताकतवर बनाने के आरोप लगे वहीं, उसी तरह के आरोप मोदी सरकार पर भी हैं।
इस बीच 2024 के आम चुनाव में अमृतपाल जेल से ही चुनाव जीत गया। जाहिर है ऐसे में प्रचार किसी और ने किया। आरोप यह है कि यह भी केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित किया गया। दरअसल सिखों के बीच अपना प्रसार करने के लिए संघ ने राष्ट्रीय सिख संगत नाम का संगठन बनाया है। पूर्व सांसद और कट्टरपंथी नेता राजदेव सिंह खालसा इसी संगठन में और बाद में भाजपा में भी रहे हैं। एक दौर में भिंडरावाले के सहयोगी रहे और वकील राजदेव सिंह खालसा ने ही अमृतपाल को चुनाव के लिए प्रस्ताव देने और चुनाव प्रचार के अभियान की बागडोर थामी।
जाहिर है आने वाले दिनों में धार्मिक कट्टरपंथियों के और ताकतवर होने की ही संभावना है। एक तरफ भाजपा और संघ के रूप में हिन्दू फासीवादी हैं जो हिन्दू राष्ट्र के नाम पर मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता को बांट कर एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। यही काम इसकी प्रतिक्रिया में खुराक पाते मुस्लिम कट्टरपंथ और सांप्रदायिक संगठनों तथा पाले-पोसे जा रहे या ताकत हासिल कर रहे खालिस्तानी कर रहे हैं। इनके तीखे उभार का जनता के लिए एक ही अर्थ है आम मेहनतकश जनता के लिए मुसीबतों का पहाड़ टूटना।
समाज में भारी असमानता, भारी बेरोजगारी, भीषण आर्थिक सामाजिक संकट की स्थिति में देश का शासक वर्ग समाज को इसी दिशा में धकेल रहा है। एकाधिकारी पूंजी के मालिक फिलहाल हिन्दू फासीवादी ताकतों से गठजोड़ करके इस काम को अंजाम दे रहे हैं। मुनाफे की अंधी हवस और साम्राज्यवादी आकांक्षा पाले हुए, इस शासक वर्ग के पास जनता को देने के लिए कुछ नहीं है सिवाय मुसीबतों के। इसलिए यह भी तय है कि किसान आंदोलन की तर्ज पर देर सबेर मजदूरों-मेहनतकशों का जुझारू क्रांतिकारी सैलाब सड़कों पर उमड़ेगा जो इस शासक वर्ग, इसकी पार्टियों और संगठनों को अजायबघर की चीज बना देगा।
हिन्दू राष्ट्र की प्रतिक्रिया में सिख राष्ट्र
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
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7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
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