भगतसिंह पर बहुत सारी किताबें लिखी जा चुकी हैं, बहुत सारी किताबें लिखी जा रही हैं और बहुत सारी किताबें आगे भी लिखी जाती रहेंगी, इसका कारण यह है कि उस 23 साल के नौजवान ने अपना जीवन देश पर कुर्बान करके अपने आप को अमर कर लिया है।
हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के बाद सब से मशहूर नाम शहीदे आजम भगतसिंह का ही है। भगतसिंह सिर्फ क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि एक बहुत बड़ा विचारक भी था। भगतसिंह की जेल नोटबुक और पत्रों से इस बात का अंदाजा होता है कि उस नौजवान का चिंतन कितना व्यापक था।
भगतसिंह की कलम कभी मजदूरों-किसानों की आवाज बनी तो कभी सांप्रदायिक दंगों और जातिवाद जैसे अहम मुद्दों को उसने देश के सामने रखा। इस कलम ने अपने दुश्मनों को भी नहीं बख्शा। भगतसिंह की कलम ने दुश्मनों की आलोचना के भी मुंह तोड़ जवाब दिए।
बहुत सारे लेखक ऐसे भी हैं जो भगतसिंह की लोकप्रियता का फायदा उठाने के लिए उन पर किताबें लिखते रहते हैं। इन किताबों के दो फायदे हैं, पहला तो यह कि भगतसिंह के नाम से किताब बिक जाएगी और पैसा कमा लिया जाएगा दूसरा यह कि लेखक को भी इससे अच्छी लोकप्रियता मिल जाएगी।
ऐसे लोगों की भी बहुत बड़ी संख्या है जिन्होंने भगतसिंह के पत्र और दस्तावेज जो कि कापीराइट फ्री हैं, उन्हें नाम बदल-बदल कर अलग-अलग प्रकाशनों से भगतसिंह की लोकप्रियता का फायदा उठाते हुए प्रकाशित किया और मोटा पैसा कमाया है।
नतीजा यह निकला कि भगतसिंह पर अच्छी किताबों के साथ-साथ बड़ी संख्या में बुरी किताबें भी बाजार में मौजूद हैं, जिनको लिखने का सिर्फ एक कारण है भगत सिंह की लोकप्रियता का फायदा उठाकर मोटे पैसे कमाना।
ऐसे में अपने लिए सही किताब का चुनाव करना एक पाठक के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है। उसे समझ में नहीं आता है कि कौन सी किताब सही है और कौन सी किताब सही नहीं है।
भगतसिंह के नाम पर चल रही संस्थाओं और भगतसिंह पर काम करने वाले भरोसेमंद इतिहासकारों को चाहिए कि वह आगे आएं और इस टुच्चेपन के खिलाफ आवाज उठाएं। भगतसिंह पर बेईमानी से लिखी गई पुस्तकों की खुलकर आलोचना करें, ऐसे प्रकाशन जो इस तरह की पुस्तकें प्रकाशित करते हैं उन पर भी आलोचना और कार्यवाही दोनों करें।
एक पाठक के रूप में भी हमारी जिम्मेदारी है कि हम सही और सच्ची किताबों की खोज करें।
अच्छा होगा अगर हम भगतसिंह की मूल लेखनी तक पहुंचने की कोशिश करें, न कि उन किताबों को पढ़ें जिनका मकसद सिर्फ पैसा बनाना है।
बात अब इस स्तर पर पहुंच चुकी है कि हमें चिंतन करने से आगे बढ़कर ठोस कदम उठाने की जरूरत है। आजकल किताबों की दुकानों पर जो भगतसिंह के नाम से पटी पड़ी किताबें दिखाई देती हैं, उनमें से अधिकांश का मकसद सीधा-सादा व्यापार है, देशभक्ति नहीं।
पैसा कमाने के इस घिनौने खेल में भगतसिंह के विचारों का तो गला घोंटा ही जा रहा है, पाठकों के साथ भी धोखा किया जा रहा है।
यह हम पर है कि हम आत्ममंथन करें और यह विचार करें कि हम भगत सिंह जैसे महान पुरखे के साथ कैसी वफादारी निभा रहे हैं।
अगर हम इस सोच के साथ अपने कदम उठाएंगे तो यकीनन हम भगतसिंह की वास्तविक धरोहर को संजोकर रख पाएंगे और उनको सच्ची श्रद्धांजलि भी अर्पित कर पाएंगे।
भगतसिंह के विचारों का वृक्ष, जिसकी जड़ें हमारी स्वतंत्रता के इतिहास में गहरी धंसी हुई हैं, आज एक अजीब मोड़ पर खड़ा है। इसकी टहनियों पर कुछ लोग अपने स्वार्थ के फल उगाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि इसकी छाया में बैठे कुछ लोग इसकी असली महक को समझने की भी कोशिश में लगे हैं। यह हम पर है कि हम इस वृक्ष के रखवाले बनें या फिर इसके फलों के व्यापारी।
क्या हम इस क्रांतिकारी के विचारों की अग्नि को जलाए रखेंगे, या फिर इसे बाजार की भट्टी में झोंक देंगे? आज हर पाठक के हाथ में एक बीज है- वह या तो इसे भगतसिंह के विचारों के बगीचे में बो सकता है या फिर इसे व्यवसायिक खेती का हिस्सा बना सकता है। चुनाव हमारा है, और परिणाम भी हमारी आने वाली पीढ़ियों को ही भोगना है। लेखक : अजहान वारसी, बरेली (उत्तर प्रदेश)
आपका नजरिया - व्यापार की भेंट चढ़ते हुए भगतसिंह
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।