बिल्किस बानो, हिंदू फासीवादी और सुप्रीम कोर्ट

गुजरात सरकार ने केंद्र सरकार की सहमति से बिलकिस बानो गैंगरेप के 11 दोषियों को ठीक 15 अगस्त 2022 को रिहा कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ बिलकिस की ओर से याचिका लगी। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 9 जनवरी को दोषियों की रिहाई रद्द कर दी। कोर्ट ने गुजरात सरकार की रिहाई के फैसले को ‘धोखाधड़ी वाला कृत्य’ बताया और यह भी कहा कि गुजरात सरकार ऐसा फैसला लेने में ‘अक्षम’ थी। महाराष्ट्र सरकार ही इस मामले में फैसला ले सकती थी हालांकि वह भी कानून के दायरे के अनुसार ही कार्रवाई कर सकती थी।
    
गुजरात में 2002 के राज्य प्रायोजित नरसंहार में बिलकिस बानो के आठ परिजनों की हत्या की गई और 6 को गायब कर दिया गया जबकि बिलकिस बानो जो कि तब पांच माह की गर्भवती थी, के साथ दंगाइयों ने गैंगरेप किया तथा उसकी तीन साल की बच्ची को जमीन पर पटक-पटक कर मार डाला। हत्या और अपराध को अंजाम देने वाले लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करने वाले भाजपा और संघी संगठनों से जुड़े लोग थे।
    
कुल मिलाकर बिलकिस बानो ने न्याय के लिए बेहद कठिन संघर्ष किया। इसलिए बेहद पीड़ा झेली। संघी सरकार ने खुलकर अपराधियों के पक्ष में काम किया और बिलकिस बानो को अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इस बेहद कठिन, थकाऊ संघर्ष के बाद ही बिलकिस को न्याय मिला। मगर अभी भी अपराधियों के सामने विकल्प बचा हुआ है। महाराष्ट्र सरकार जहां भाजपा ने जोड़-तोड़ से गठबंधन सरकार बना ली है वहां अपराधियों के पास जाने का मौका है।
    
सुप्रीम कोर्ट के इस एक फैसले से बहुत उम्मीद कोर्ट से नहीं की जा सकती। निश्चित तौर पर एक निजी मामले में फैसला भाजपा सरकार के खिलाफ गया। लेकिन अन्य महत्वपूर्ण राजनीतिक व संवैधानिक मुद्दों पर इस संस्था ने एकतरफा तौर पर सरकार के पक्ष में फैसले दिए हैं। इन फैसलों ने न केवल हिंदू फासीवादियों को समाज में वैधता हासिल करने में, अपनी पकड़ और ज्यादा मजबूत करने में मदद की बल्कि मोदी सरकार की निरंकुशता को और बढ़ाने का ही रास्ता खोल दिया।
    
पहले राम मन्दिर के पक्ष में साक्ष्यों को किनारे रख कर फैसला सुनाया गया। सांप्रदायिक नागरिकता कानून को असंवैधानिक नहीं माना गया। ज्ञानवापी मस्जिद मामले व इसी तरह के अन्य मामलों को 1991 पूजा स्थल अधिनियम के द्वारा रोका जा सकता था मगर ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने नहीं किया। हिंदू फासीवादियों को इस तरह नए-नए विवाद खड़े करके मस्जिद हथियाने और ध्रुवीकरण का मौका दिया। धन शोधन के संबंध में बना कानून पी.एम.एल.ए. जो असंवैधानिक है, प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों को मनमर्जी की छूट देता है, इस पर विपक्ष की तरफ से याचिका लगी मगर कोर्ट ने इस कानून को बरकरार रखा। आतंकवाद नियंत्रण के नाम पर संशोधित काला कानून यू ए पी ए की तो बात ही क्या की जाय।
    
इसी तरह जब मोदी सरकार ने शिव सेना के टुकड़े कर दिए। शिव सेना के शिंदे गुट के साथ मिलकर महाअघाड़ी सरकार को गिरा दिया और शिंदे गुट के साथ सरकार बना ली। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। कोर्ट ने राज्यपाल की भूमिका पर सवाल खड़े किए। फ्लोर टेस्ट करवाने को गलत कहा। इस हिसाब से उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराना गलत था। मगर कोर्ट ने कहा कि चूंकि उद्धव ठाकरे इस्तीफा दे चुके थे इसलिए इस सरकार को बहाल नहीं किया जा सकता। लिहाजा शिंदे गुट की सरकार को बने रहना था। इस तरह मोदी सरकार की राज्य सरकार गिराने की कार्रवाई को परोक्ष तौर पर सहमति मिल गई।
    
नोटबंदी जैसे तुगलकी फरमान को भी सर्वोच्च न्यायालय की 5 जजों की बेंच ने बहुमत से (4ः1 के फैसले से) वैध ठहरा दिया। एकमात्र जज नागरत्ना ने ही नोटबंदी की प्रक्रिया पर सवाल किए और इसे गैरकानूनी कहा।
    
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने पर लगी याचिकाओं पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू फासीवादी सरकार के असंवैधानिक कदम को सही ठहराया। यही नहीं, एक याचिका में यह भी सवाल था कि क्या किसी भी राज्य के दर्जे को घटाया जा सकता है, इसे केंद्र शासित क्षेत्र में बदला जा सकता है। इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय ने चुप्पी साध ली। इस तरह भविष्य में किसी भी विरोधी राज्य सरकार को गिराकर राज्य के दर्जे को गिराने का रास्ता कोर्ट ने खोल दिया और तानाशाही की राह आसान कर दी।

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