बीते साल का लेखा-जोखा

बीते साल रूस-युक्रेन युद्ध की छाया पूरे वर्ष पर रही। 2 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था और आज के दिन तक युद्ध जारी है। कहने को यह रूस-यूक्रेन युद्ध है परन्तु असल में युद्ध के मैदान में रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवादी हैं। युद्ध में हताहत हुये लोगों की संख्या अनुमानतः दो लाख तक आ चुकी है तो यूक्रेन को छोड़कर जाने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से भी अधिक है।

रूस-यूक्रेन युद्ध का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा है। तेल-गैस और खाद्यान्न के संकट ने कई-कई देशों को प्रभावित किया है। यूरोप के देशों से लेकर अफ्रीका महाद्वीप के देशों में इस युद्ध ने अपना असर दिखाया है।

रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण विश्व अर्थव्यवस्था के संकट से उबरने की चर्चा पर धीरे-धीरे विराम लग गया। कहां तो यह उम्मीद जताई जा रही थी कि कोरोना-19 महामारी से दुनिया के उबरने के बाद अर्थव्यवस्था में व्यापक सुधार होगा। और अब कहा जा रहा है कि दुनिया के दरवाजे पर एक नया आर्थिक संकट खड़ा है। भारत सहित कई देशों की अर्थव्यवस्था में वर्ष 2023 के लिए जो अनुमान 6 महीने पहले व्यक्त किये गये थे उनमें अब कटौती कर दी गयी है। बेरोजगारी, महंगाई (खासकर खाद्यान्नों में), बढ़ती असमानता दुनिया को उथल-पुथल के एक नये दौर की ओर धकेल रही है।

बीता वर्ष वैसे भी कई देशों के लिए सामाजिक उथल-पुथल का वर्ष रहा है। श्रीलंका, पाकिस्तान, ईरान अपने-अपने कारणों से सुर्खियों में रहे। वर्ष के अंत में चीन से भी (भारी सेंसरशिप के बावजूद) जन-विरोध की ऐसी तस्वीरें सामने आने लगीं जिसमें लोग कोविड-19 महामारी के चीन में पुनः फूट पड़ने के बाद लगाये गये सख्त लॉकडाउन का विरोध कर रहे थे। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां सिर्फ राजनैतिक उथल-पुथल ही नहीं रही बल्कि पाकिस्तान की जनता को पहले भीषण भूकम्प और फिर प्रलयंकारी बाढ़ का भी सामना करना पड़ा। पाकिस्तान के धूर्त शासक दोनों ही समय पर बेहद अक्षम साबित हुये।

आर्मेनिया-अजरबेजान व कजाकिस्तान-तजाकिस्तान के बीच भी इस वर्ष भारी तनाव के बीच युद्ध भड़क उठा। युद्ध लम्बा तो नहीं चला परन्तु अभी भी इन देशों की सीमाओं पर तनाव है।

इजरायल के जियनवादी शासकों ने फिलस्तीन की जनता का क्रूर दमन जारी रखा हुआ है। और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वहां किस दल या गठबंधन की सरकार है। यद्यपि लम्बे समय से चली आ रही राजनैतिक अस्थिरता के बाद वर्ष का अंत आते-आते धूर्त, क्रूर, भ्रष्टाचारी, फासीवादी नेतन्याहू दुबारा से प्रधानमंत्री बन गया है।

अफगानिस्तान में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के भाग खड़े होने के बाद सत्ता पर काबिज क्रूर तालिबानियों से वहां के हालात कुछ खास संभल नहीं रहे हैं। तालिबानियों के निशाने पर एक बार फिर से महिलायें हैं। वे महिलाओं को समाज, शिक्षा, रोजगार से महरूम कर घरों में कैद करने की साजिशों में लिप्त हैं। महिलाएं इनका विरोध करने की हरचंद कोशिश कर रही हैं।

ठीक इसी तरह से ईरान में महिलायें अपनी आजादी को लेकर सड़कों पर उतरी हुयी हैं। क्रूर दमन का सामना करते हुए वे पूरे ईरानी समाज पर अपना प्रभाव डाल रही हैं। ईरान की सरकार को अपनी ‘धार्मिक-नैतिक पुलिस’ बल को भंग कर अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं।

जिन देशों में राजनैतिक उथल-पुथल रही उनमें पेरू भी शामिल रहा है। पेरू के राष्ट्रपति ने संसद भंग कर तानाशाही थोपने का प्रयास किया। परन्तु वह असफल हो गया। पेरू के समाज में गहराते सामाजिक-आर्थिक संकट के कारण लोगों का सड़कों पर उतरना जारी है। राजनैतिक संकट इसी संकट की एक अभिव्यक्ति है।

सीरिया, लेबनान, इराक, यमन में एक दशक से जारी गृहयुद्ध इस वर्ष उतना तीव्र तो नहीं रहा परन्तु इसके खत्म न होने से समाज में मजदूर-मेहनतकशों सहित मध्यम वर्ग के लिए जीवन चलाने में काफी ज्यादा मुश्किलें आ रही हैं। इराक में तो एक शिया नेता के अनुयाईयों ने संसद पर ही कब्जा कर लिया था।

अमेरिकी साम्राज्यवादियों का इस वर्ष चीन से भी टकराव बढ़ा है। इसकी छाया भी पूरे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में देखी गयी। नैन्सी पलोसी की ताइवान यात्रा के समय तनाव चरम पर पहुंच गया था। चीन ने अपनी सैन्य ताकत का खुला प्रदर्शन कर तनाव को नये स्तर पर पहुंचा दिया था। अमेरिकी साम्राज्यवादी पूरी दुनिया में अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं। तनाव के नये क्षेत्रों को खोल रहे हैं। और इस मामले में डोनाल्ड ट्रंप की तरह ही जो बाइडेन भी कोई भी जुआ खेलने को तैयार हैं। चेहरे भले ही बदल जाते हों परन्तु अमरीकी साम्राज्यवादियों की धूर्त-क्रूर नीति वैसी ही रहती है।

ब्रिटिश साम्राज्यवादी दशकों से अमेरिकी साम्राज्यवादियों के पिच्छलग्गू बने हुए हैं। शायद ही कोई ऐसा मामला सामने आता है जिसमें वे अमेरिकी साम्राज्यवादियों से अलग रुख रखते हों। इसी तरह उनके यूरोपीय साम्राज्यवादियों से भी रिश्ते अमेरिका के अनुसार चलते रहे हैं। बीते वर्ष में भी उनका व्यवहार ऐसा ही रहा है जो अमेरिकी सरकार ने किया वह ब्रिटिश सरकार ने किया। लेकिन अमेरिका के उलट ब्रिटेन में राजनैतिक अस्थिरता रही। एक साल के भीतर तीन प्रधानमंत्री बनाये गये। ऋषि सुनक (जो कि ब्रिटिश मूल से नहीं हैं) के प्रधानमंत्री बनने पर ब्रिटेन-अमेरिका में ही नहीं भारत, पाकिस्तान, कीनिया में भी बहुत शोर-शराबा हुआ परन्तु उनसे ब्रिटिश अर्थव्यवस्था अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही संभल नहीं रही है।

गहराते आर्थिक व सामाजिक संकट ने कहीं राजनैतिक अस्थिरता को बढ़ाया तो कहीं इटली की तरह धुर नव-फासीवादी व धुर दक्षिणपंथी चुनाव जीतकर सत्ता में आये तो कहीं ब्राजील के लूला वाम लफ्फाजी करने वाले संकट को संभालने के नाम पर सत्ता में काबिज हुए। कुल मिलाकर यह कि विश्व अर्थव्यवस्था का गहराता संकट सामाजिक-राजनैतिक उथल-पुथल के रूप में अपने को व्यक्त करता रहा।

जहां तक हमारे देश की बात है यहां राजनैतिक स्थिरता के बावजूद पिछले वर्ष शासक वर्ग के विभिन्न हिस्सों के बीच टकराहटें बढ़ी हैं। सत्तारूढ़ हिन्दू फासीवादी किसी भी हद तक जाकर अपना वर्चस्व पूरे समाज में कायम करने की कोशिशों में लगे रहे। उत्तर प्रदेश, गुजरात में चुनावी जीत हासिल कर और महाराष्ट्र में शिवसेना को तोड़कर अपनी सत्ता कायम कर हिन्दू फासीवादियों ने एक तरह से अपने वर्चस्व का डंका बजा दिया। विपक्षी पार्टियों को भारी दबाव में रखने के लिए उस हर हथकण्डे को अपनाया जो वह अपना सकती थी। अस्तित्व व समझ के संकट से जूझ रही भारत की सबसे पुरानी पार्टी को अंततः ‘भारत जोड़ो’ जैसा लम्बा अभियान छेड़ना पड़ा। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने देश के जनमस्तक पर जो कुछ प्रभाव डाला हो परन्तु ऐसे सभी लोगों में आशा का संचार कर दिया जो भाजपा-संघ से न लड़ने के लिए कांग्रेस की आलोचना करते थे और फिर वे सभी इस यात्रा के यात्री बन गये।

भारत में शासक वर्ग के बीच टकराहट की एक अभिव्यक्ति जजों की नियुक्ति के मामले में कालोजियम व्यवस्था के नाम पर उच्चतम न्यायालय व केन्द्र सरकार के बीच सामने आयी। मोदी सरकार भारत की हर संस्था को जब अपना पालतू बनाने में लगी हो तो उस समय अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय मोदी सरकार से उलझ गया।

भारत में हिन्दू फासीवादी अपने राजनैतिक एजेण्डे को आगे बढ़ाते जा रहे हैं। ‘समान नागरिक संहिता’ इसका एक उदाहरण है। भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों के दमन के लिए वे हर उस संस्था का सहारा ले रहे हैं जो इनके कब्जे या प्रभाव में है। उत्तर प्रदेश, असम, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में इनकी सरकारों ने धार्मिक ध्रुवीकरण करने से लेकर मुस्लिमों पर हमले करने के मामले में एक-दूसरे से होड़ की हुयी है।

हिन्दू फासीवादियों के बढ़ते वर्चस्व के बीच भारत की अर्थव्यवस्था का संकट अपने ही ढंग से बढ़ता जा रहा है। बेरोजगारी चरम पर पहुंच चुकी है। भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी कोरोना-महामारी के पूर्वकाल में नहीं लौट सकी है। आम लोग सड़कों पर न उतर आयें इसके लिए ‘मुफ्त राशन’ बांटा जा रहा है।

कुल मिलाकर वर्ष 2022 उन वर्षों से अलग नहीं रहा जो उससे पहले बीते। विश्व अर्थव्यवस्था का संकट समाज को राजनैतिक-सामाजिक उथल-पुथल की ओर क्रमशः धकेल रहा है। बीते वर्ष ने दिखलाया कि कहीं भी, कभी भी श्री लंका जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। इतिहास उस जगह पहुंच रहा है जहां एक ओर फासीवाद का खतरा भीषण से भीषण होता जा रहा है तो दूसरी ओर भविष्य से ही सही क्रांतियों की आहट भी सुनायी दे रही है। अब सब कुछ दुनिया सहित भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के सामने है कि वे फासीवाद के गुलाम बनना चाहते हैं या भावी समाज के शासक।

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।