बुद्धिजीवी भ्रम बेचते हैं - पार्टी जीतती है, लोग हारते हैं -रंगनायकम्मा

गरीबी का मुख्य कारण पूंजीवादी उत्पादन पद्धति है जो बड़े पैमाने पर श्रम का शोषण करती है

बुद्धिजीवी लोग संविधान और लोकतंत्र को मासूम बच्चों की तरह लागू मानकर चुनाव के मौजूदा दौर पर भविष्यवाणियां कर रहे हैं। ये बुद्धिजीवी चाहते हैं कि कोई ऐसी पार्टी सत्ता में आए जो लोगों का कुछ भला करे। वे केवल अल्पकालिक राहत के बारे में सोचते हैं, जबकि वे श्रम के शोषण का मुद्दा जरा भी नहीं उठाते।
    
वर्तमान परिस्थितियों में यदि कोई केवल त्वरित राहत उपायों के बारे में सोचता है, तो स्थायी समाधान के बारे में क्या? वे कहते हैं कि यदि कोई बड़ी बीमारी से पीड़ित है तो क्या उसे अस्थायी सिरदर्द को अनदेखा करना चाहिए? सच है। एक कदम आगे बढ़ने के लिए व्यक्ति को अस्थायी समस्याओं का भी ध्यान रखना चाहिए।
    
लेकिन बड़ी बीमारी का क्या? वे इसका समाधान कब करेंगे? अगर बड़ी बीमारी ही सिरदर्द या इस दर्द या उस दर्द का कारण है, तो क्या बड़ी बीमारी का समाधान किए बिना छोटे-मोटे दर्द का समाधान संभव है? वे श्रम के शोषण नामक बीमारी का समाधान कब करेंगे? यह आम जनता को आसानी से पता नहीं चलता, लेकिन क्या यह बात बुद्धिजीवियों को भी नहीं पता? वे आम जनता को इसके बारे में कब बताएंगे?
    
जनपक्षधर बुद्धिजीवियों को दुर्भावना से प्रेरित नहीं माना जा सकता। लेकिन अगर बुद्धिजीवी ऐसे विषयों को सतही तौर पर लेते हैं, तो चुनावों में सीटों के बारे में उनकी टिप्पणियां और लेखन आम आदमी को भ्रम की स्थिति में ही रखेंगे। क्या बुद्धिजीवियों को भी इस भ्रम की स्थिति में रहने की आदत हो गई है?
    
ये बुद्धिजीवी मानते हैं कि पार्टियां सत्ता में हों या न हों, उनका चरित्र अलग-अलग होता है और उनके लक्ष्य भी अलग-अलग होते हैं। हर पार्टी के कार्यक्रमों को लागू करने के तरीके से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, हर पार्टी निजीकरण की नीति को लागू करेगी। केवल कार्यान्वयन की डिग्री, सीमा और गति में अंतर है।
    
ये पार्टियां नौकरी की असुरक्षा और निजी नियोक्ताओं की दया पर निर्भरता का जीवन देती हैं। इसी तरह, देखिए कि उदारीकरण के नाम पर ये पार्टियां क्या करती हैंः ये सभी पार्टियां पर्यावरण प्रदूषण या श्रमिकों की सुरक्षित कार्य स्थितियों की परवाह किए बिना ‘व्यापार करने में आसानी’ (उदार लाइसेंसिंग) के नाम पर अनुमतियां देती हैं। इसके अलावा, वे शोषकों को बहुत कम कीमत पर जमीन आवंटित करती हैं। वे बिजली और पानी या तो पूरी तरह से मुफ्त या सस्ती दरों पर देते हैं। वे वैश्वीकरण के नाम पर ‘दरवाज़े’ और ‘खिड़कियां’ खुली रखती हैं। क्या इनमें से कोई भी पार्टी इन नीतियों को अस्वीकार करेगी?
    
वे कहते हैं, ‘आजादी आ गई है! लोगों ने संघर्ष किया और हासिल किया।’ क्या उन्हें बेरोज़गारी की समस्या का समाधान मिल गया है? पिछले 75 सालों से यह समस्या बनी हुई है!
    
क्या जनपक्षधर बुद्धिजीवियों को यह एहसास नहीं है कि किसी भी समस्या, किसी भी तरह की गरीबी का मुख्य कारण पूंजीवादी उत्पादन पद्धति है जो बड़े पैमाने पर श्रम का शोषण करती है? या फिर यह एहसास होने के बाद भी वे लोगों को यह नहीं बता पाते? क्या वे मूल्य वृद्धि के वास्तविक कारणों को समझने के बाद भी इसे सार्वजनिक नहीं कर पाते?
    
रोटी, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों को भी पूरा न कर पाने वाली इन पार्टियों में क्या फर्क है? क्या बुद्धिजीवियों को यह नहीं पता कि यही पार्टियां एक वर्ग में अमीरी और दूसरे वर्ग में गरीबी के लिए जिम्मेदार हैं? क्या ये पार्टियां एक तरफ करोड़ों की कार खरीदने वालों और दूसरी तरफ मैनहोल में घुसकर जाम हुए नालों की सफाई करके अपनी जिंदगी गुजारने वालों के वजूद के लिए जिम्मेदार नहीं हैं?
    
वे कहते हैं कि संविधान को बचाना होगा! वास्तव में, संविधान कई असमानताओं की जड़ में है। यह निजी संपत्ति के स्वामित्व का अधिकार देता है जो लाभ, ब्याज और भूमि किराया जैसी आय अर्जित करने के लिए श्रम के शोषण की सुविधा देता है। यह श्रम के असमान विभाजन को बनाए रखता है जो कुछ नागरिकों को जीवन भर सबसे निचले स्तर के शारीरिक श्रम तक सीमित रखता है जबकि यह कुछ को केवल बौद्धिक श्रम करने में सक्षम बनाता है। इस तरह के संविधान को बचाने के लिए मजदूर वर्ग के लोगों को सिखाने का कोई फायदा नहीं है।
    
बुद्धिजीवियों का कहना है कि जो पार्टी बुनियादी सांकेतिक अधिकार भी छीन लेती है, उसे चुनाव नहीं जीतना चाहिए। लेकिन सभी मौजूदा पार्टियां सत्ता में रहने पर एक तरह से और सत्ता से बाहर रहने पर दूसरे तरह से व्यवहार करती हैं।
    
बुद्धिजीवी कहते हैं कि लोकतंत्र खतरे में है। क्या बुद्धिजीवी नहीं जानते कि लोकतंत्र अपने मौजूदा स्वरूप में सिर्फ कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए है? यह भ्रम कैसे पैदा किया जा सकता है कि लोकतंत्र में जनता ही मालिक है?
    
क्या इसका अर्थ यह है कि आर्थिक क्षेत्र में लोकतंत्र है, भले ही जीवन की आवश्यकताएं और उन आवश्यकताओं को उत्पन्न करने के लिए उत्पादन के साधन एक वर्ग के लिए ‘आरक्षित’ हों और आरक्षण के कुछ दाने लाखों लोगों को दिए जाएं?

ये बुद्धिजीवी ऐसी सरकार को नकारते हैं जो क्रूर, दमनकारी कानूनों का दुरुपयोग करती है। जब समाज में शत्रुतापूर्ण वर्ग होंगे तो कोई भी सरकार इन दमनकारी कानूनों के बिना शासन नहीं कर पाएगी।
75 साल के इतिहास में देखा जा सकता है कि इन पार्टियों ने या तो नए दमनकारी कानून बनाए हैं या फिर मौजूदा कानूनों को और सख्त किया है। क्या जनपक्षधर बुद्धिजीवियों को इस तथ्य को नहीं पहचानना चाहिए और लोगों को यह नहीं बताना चाहिए कि ऐसे समाज में जहां हर क्षेत्र में असमानताएं हैं, चुनाव कुछ और नहीं बल्कि ‘‘सत्ता को शासक वर्गों के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में स्थानांतरित करने’’ का एक साधन है।
    
लगभग 155 साल पहले जब कार्ल मार्क्स नामक एक बुद्धिजीवी ने इस तथ्य को पहचाना था। क्या इस देश के लोगों ने संवैधानिक लोकतंत्र के 75 वर्षों के अस्तित्व में इस पर ध्यान नहीं दिया है? (‘‘सामान्य मताधिकार, अब तक... शासक वर्गों के हाथों का खिलौना है, ... कई वर्षों में एक बार संसदीय वर्ग शासन के साधनों को चुनने के लिए लोगों द्वारा नियोजित...’’ - मार्क्स)
    
चुनावों को शासक वर्ग के हाथों का खिलौना समझकर उनका दुरुपयोग किया जाता है, यह बात चुनावों के तरीके से स्पष्ट होती है, है न? क्या चुनावों का उद्देश्य विभिन्न योजनाओं के रूप में धन, जाति और धर्म जैसी मुफ्त चीजों को बांटकर सत्ता में वापस आना नहीं है?
    
इन चुनावों, पार्टियों और उनकी नीतियों की प्रकृति और चरित्र से जुड़े तथ्यों पर बहस और लेखन आवश्यक है। जबकि यह पार्टी सत्ता में आई या वह पार्टी सत्ता में आई तो क्या होगा, इस पर लेखन और बहस केवल मनबहलाव की चिट्ठी बनकर रह जाएगी।
    
यदि सही राजनीतिक ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंच पाएगा तो हर चुनाव में हार तो जनता रही होगी, है न?   
    साभार : countercurrents.org

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।