गुलामी की स्याही हर माथे पर, गुमान पर आजाद होने का

इस वर्ष भी पन्द्रह अगस्त के दिन वही सब दुहराया जायेगा जो हर वर्ष दुहराया जाता है। वही प्रधानमंत्री के लम्बे-लम्बे भाषण। सारहीन, जुमलों से भरे हुए और डींग मारते भाषण। खाये-अघाये लोग ऐसी मुख-मुद्रा के साथ लाल किले के प्रागंण में बैठे होंगे मानो वे सबसे बुद्धिमान जागरूक नागरिक हैं। हकीकत में वे सब भारत के लोग हैं जिनकी हर शाम रंगीनियों से भरी होती है और दिन षड्यंत्रों से भरा। इसके अपवाद बस वे मासूम बच्चे हो सकते हैं जिन्हें लाल किले में प्रधानमंत्री के भाषण के समय तिरंगे लहराने और नारे लगाने के लिए बुलाया जाता है। 
    
देश भर में पन्द्रह अगस्त का कार्यक्रम एक सरकारी-औपचारिक कार्यक्रम बन कर रह गया है। इसमें जो कुछ रंग भरा जाता है वह या तो कूपमंडूक मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा जो कि अपनी कारों पर इस दिन तिरंगे को लहराते हुए इठलाते हुए घूमते हैं या फिर शापिंग माल द्वारा जो कि इस दिन किस्म-किस्म के लुभावने ‘ऑफर’ देकर आजाद पसंद ग्राहकों को लुभाते हैं। रही मजदूरों-मेहनतकशों की बात तो करोड़ों के लिए यह दिन हर दिन से कुछ जुदा नहीं होता है। बस औद्योगिक मजदूर या कर्मचारी थोड़ा सा राहत महसूस करते हैं क्योंकि इस दिन की छुट्टी उनके लिए कुछ ‘बोनस’ सरीखी हो जाती है। 
    
इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक चंगुल से भारत का आजाद होना कोई छोटी बात नहीं थी। भारत का जन्म ही औपनिवेशिक गुलामी से लड़ते हुए हुआ था। अन्यथा भारत क्या था। सामंती राज्यों का उत्थान-पतन होता रहता था और भारत की जनता इनके शोषण-उत्पीड़न की चक्की के नीचे पिसती रहती थी। 
    
भारत में अंग्रेजों के आने के साथ उसके शोषण-उत्पीड़न में और ज्यादा वृद्धि हो गयी। सामंतवाद के साथ अब साम्राज्यवाद भी उसका शोषण-उत्पीड़न करने लगा। भारत के सामंतों और जमींदारों ने कुछ ना-नुकुर और विरोध के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की मातहती स्वीकार ली और फिर वे हमेशा उनके पिच्छलग्गू बने रहे। जैसे कोई कुत्ता अपने मालिक द्वारा तज दिये जाने पर अपना नया मालिक ढूंढता है वैसे ही सामंतों-जमींदारों ने जल्द ही अपना नया मालिक ढूंढ लिया। नया मालिक भारत का पूंजीवाद था। जल्द ही या तो पुराने सामंत-जमींदार तिरोहित हो गये या फिर वे स्वयं भी पूंजीपति वर्ग की जमात में शामिल हो गये। इस तरह एक समय आते-आते भारत में सामंती गुलामी कमजोर पड़ने लगी। 
    
भारत में जैसे साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई का गौरवशाली इतिहास है ठीक वैसे ही सामंतशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ने का भी समृद्ध इतिहास है। और आज भी भारत के शोषित-उत्पीड़ित सामंती मध्ययुगीन मूल्यों, विचारों व संस्कृति के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं। दलित, पिछड़े, आदिवासी, औरतों के जीवन में जहर घोलने में सामंती-धार्मिक, मध्ययुगीन-पितृसत्तात्मक मूल्यों-संस्कृति-विचारों की आज भी अच्छी-खासी भूमिका है। खान-पान, रहन-सहन, जीवन साथी चुनने, घूमने-फिरने से लेकर शायद ही जीवन का कोई कोना हो जहां आज भी सामंतवाद का कुछ-कुछ असर न हो। जातिवाद तो भारत के पोर-पोर में आज भी बसा हुआ है। 
    
इस तरह से देखें तो भारत की जनता के जीवन से इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक तक भी सामंतवाद का समूल नाश नहीं हुआ। और ठीक इसी तरह से भारत की जनता के जीवन में साम्राज्यवाद का बोलबाला भी खत्म नहीं हुआ। पहले हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद के गुलाम थे अब हमारी गुलामी जटिल और बहुरंगी है। भारत में साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जाल सा बिछा है। साम्राज्यवादी पूंजी की उपस्थिति जीवन के हर क्षेत्र में है। भारत की गुलामी आर्थिक है और इसे कई दफा आर्थिक नव उपनिवेश की संज्ञा दी जाती है। 
    
भारत में 1947 के बाद का इतिहास कम दिलचस्प नहीं है। जो कल तक आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे वे अब शासक बन गये थे। और पुराने शासकों की तरह ही नये शासक जनता खासकर मजदूर-मेहनतकश जनता के दमन-उत्पीड़़न ही नहीं शोषण में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। मजदूर-मेहनतकश जनता को जीवन के हर क्षेत्र में, जीवन के हर कदम में संघर्ष करना पड़ा था। आजादी, बराबरी, भाईचारा, न्याय के जनवादी उसूल संविधान में भले ही दर्ज किये गये हों परन्तु वास्तविक जीवन में इनको हासिल करना हर मेहनतकश के लिए या तो एक दिवास्वप्न था या फिर टेड़ी खीर। 
    
जनवाद आजाद भारत में सिर्फ चुनाव तक सीमित होता चला गया अन्यथा दैनिक जीवन में इसकी जद्दोजहद इतनी अधिक है कि अक्सर अपने लोकतांत्रिक या जनवादी अधिकारों की लड़ाई मौत की दहलीज पर जाकर खत्म होती है। 
    
इस बीच जो खतरा जनवादी अधिकारों के लिए सबसे बड़ा बनकर उभरा है वह हिन्दू फासीवाद का खतरा है। हिन्दू फासीवाद ब्राह्मणवादी-जातिवादी मध्ययुगीन सड़े-गले विचारों व संस्कृति का प्रस्तोता है। हिन्दू फासीवादी एक ऐसा हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना पालते हैं जिसमें हर ओर ‘हिन्दुओं’ का बोलबाला हो और इस हिन्दू राज में हिन्दुओं के बोलबाले का मतलब सबसे बड़े पूंजीपतियों की नंगी तानाशाही से है। यानी इस हिन्दू राष्ट्र का मतलब होगा अम्बानी-अडाणी-बिडला जैसे लोगों के हितों को साधने के लिए हिटलर-मुसोलिनी की तरह का फासीवादी निजाम कायम करना। भारत में हिटलर बनने की कतार में मोदी से लेकर शाह-योगी, हिमंत बिस्वा शर्मा जैसे कई हैं। 
    
भारत में हिन्दू फासीवादी राज कायम होने का मतलब होगा जनवाद का खात्मा। यानी बोलने, अखबार-पत्रिका निकालने, सभा-जुलूस निकालने, संगठन-पार्टी बनाने, अपने मनपसंद ढंग से जीवन जीने-प्रेम-विवाह करने, अपने धर्म को मानने या धर्म बदलने जैसे अधिकारों पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाना। हिन्दू फासीवाद पूरे देश के मजदूरों-मेहनतकशों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामंतवाद के काले जमाने से भी ज्यादा काले जमाने में धकेल देगा। आज ही भाजपा-संघ-विश्व हिन्दू परिषद-बजरंग दल वाले इतना आतंक मचाये हुए हैं कल को यदि ये कामयाब हो गये तो पूरे देश का क्या हाल होगा। हिन्दू फासीवाद जो गुलामी भारत में थोपना चाहता है उसके आतंक के सामने अतीत का सारा आतंक बौना साबित हो जाने वाला है। 
    
यह दीगर बात है कि भारत की मजदूर-मेहनतकश जनता का इतिहास संघर्षों का इतिहास है। वह अपनी मुक्ति की लड़ाई के लिए समय-समय पर लामबंद होती रही है। छल उसके साथ यह हुआ है कि अक्सर उसकी लड़ाई की कमान स्वयं उसके हाथों में नहीं रही है। उसके अपने संगठन या पार्टी के हाथ में नहीं रही है। खाते-पीते पूंजीपति वर्ग के बहुरुपिये उसके नेता बनकर नमूदार होते रहे हैं। और ये बहुरुपिये कभी नहीं चाहेंगे कि भारत के मजदूर-मेहनतकश पूंजी की गुलामी के जुए से मुक्त हो जायें। 15 अगस्त हर साल आयेगा-जायेगा परन्तु यह सवाल हर साल भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के सामने खड़ा होगा कि क्या हमारे माथे से गुलामी की स्याही छूट गयी या वह बरकरार है या फिर वह और गहरा गयी है। 

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