हिन्दू फासीवादी और पसमंदा मुसलमान

‘बांटो और राज करो’ की अपनी नीति के तहत हिन्दू फासीवादी आजकल उन मुसलमानों में भी फूट डालने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं जिन पर वैसे वे एक समुदाय के तौर पर लगातार हमला करते रहते हैं। वे दाउदी बोहरा सम्प्रदाय के प्रति सहानुभूति दिखा रहे हैं। वे शिया-सुन्नी के भेद को चौड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं- कुछ शिया धर्म गुरूओं को लालच देकर। अंत में वे मुसलमानों में अगड़े व पिछड़े के भेद का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। यह बहुत कौतुकपूर्ण होता, यदि यह इतना जुगुप्सित नहीं होता, कि हिन्दू अगड़ों वाले संघी मुसलमान पिछड़ों की इतनी चिंता कर रहे हैं। 
    
भारत के मुसलमान भी यहां की घृणित जाति व्यवस्था से ग्रस्त हैं। मुसलमानों में भी अगड़ा, पिछड़ा और दलित हैं। यदि शेख, सैय्यद, खान अगड़े हैं तो अंसारी, कुरैशी, इत्यादि पिछड़े। हालांकि मुसलमानों में सामाजिक दूरी और छूआछूत उस तरह नहीं है जैसे हिन्दुओं में, पर तब भी जातिगत भेद और भेदभाव उनमें भी हैं। पिछले कुछ दशकों में मुसलमान पिछड़ों में पसमंदा मुसलमान नाम से एक छोटा-मोटा आंदोलन भी विकसित हुआ है जो इस पिछड़ेपन को अपना निशाना बनाता है। 
    
संघी आजकल इसी पसमंदा मुसलमान को अपना लक्ष्य बना रहे हैं। इसके जरिये वे उनको मुसलमानों के अगड़ों के खिलाफ खड़ा करना चाहते हैं। यह सच है कि हिन्दू अगड़ों की तरह मुसलमान अगड़े ही सत्ता या शासन या व्यवसाय में आगे हैं। हिन्दू फासीवादी हिन्दू अगड़ों को अपना निशाना नहीं बनाते क्योंकि वे तो स्वयं वही हैं। पर वे मुसलमान अगड़ों को निशाना बनाकर मुसलमान पिछड़ों का समर्थन हासिल करना चाहते हैं, वह भी आम तौर पर एक समुदाय के रूप में मुसलमानों पर हमला करते हुए। 
    
एक समुदाय के तौर पर जब हिन्दू फासीवादी मुसलमानों पर हमला करते हैं तो उसका सबसे ज्यादा शिकार पसमंदा मुसलमान ही होते हैं। एक तो इसलिए कि मुसलमानों में भी संख्या में यही पिछड़े मुसलमान ज्यादा हैं। दूसरे रोजमर्रा के जीवन में ये ही आसान शिकार बनते हैं। 
    
पिछले सालों में गौ रक्षा के नाम पर भी जिन मुसलमानों की भीड़ द्वारा हत्याएं हुईं वे सारे पसमंदा मुसलमान ही थे। भाजपा सरकारों द्वारा मांस के कारोबार पर जिस तरह से भांति-भांति से हमला किया जा रहा है उसका सीधा असर पसमंदा मुसलमानों पर ही पड़ रहा है। रेड़ी-खोमचों या छोटे दुकानदारों पर जो साम्प्रदायिक हमले हो रहे हैं उनका निशाना पसमंदा मुसलमान ही हैं। नमाज को लेकर जो हमले हो रहे हैं उसमें भी शिकार पसमंदा मुसलमान ही हैं। ट्रेन, बस, सड़कों-बाजारों में जिन मुसलमानों को अपमानित किया जा रहा है वे पसमंदा मुसलमान ही हैं। आतंकवाद के नाम पर या दंगों में शामिल होने के नाम पर जिन मुसलमानों को जेलों में ठूंसा जा रहा है वे भी पसमंदा मुसलमान ही हैं। शिक्षा से जो मुसलमान वंचित किये जा रहे हैं वे भी पसमंदा मुसलमान ही हैं। 
    
अगड़े मुसलमान सीधा इन सबका शिकार नहीं होते। मुसलमानों पर आम हिन्दू फासीवादी हमले की छाया उन पर भी पड़ती है पर उतनी गहरी नहीं है। वे सत्ता के गलियारों में अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर किसी हद तक अपने को बचा लेते हैं। वे कभी-कभी उससे रू-ब-रू होते हैं जिसका सामना पसमंदा मुसलमानों को रोज करना पड़ता है। 
    
पसमंदा मुसलमान या आम मुसलमान इस हकीकत को जानता है। इसीलिए वह हिन्दू फासीवादियों की चालों में नहीं फंसता। पर इस असफलता के बावजूद हिन्दू फासीवादी अपनी चालों से बाज नहीं आते। वे ऐसी घटिया चाल चलने से स्वयं को रोक भी नहीं सकते।  

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को