गुरू-चेले और सामाजिक न्याय

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा कर मोदी सरकार ने इंडिया गठबंधन में दरार डालने में सफलता पा ली। पाला बदलने के लिए मशहूर नीतीश कुमार ने एक बार फिर पाला बदला और मोदी सरकार की गोद में जाकर बैठ गये। ये वही नीतीश कुमार हैं जो कर्पूरी ठाकुर को अपना गुरू बताते हुए उनकी विरासत का खुद को उत्तराधिकारी घोषित करते रहे हैं। वैसे कर्पूरी ठाकुर की विरासत पर दावा करने वाले लालू यादव भी हैं। ये दो दिग्गज अगर बिहार की राजनीति में बीते कुछ दशकों से केन्द्र में हैं तो इसकी एक महत्वपूर्ण वजह कर्पूरी ठाकुर द्वारा उछाले दबी-कुचली जातियों के लिए सामाजिक न्याय के नारे को इनके द्वारा लपका जाना है। गुरू कर्पूरी ठाकुर और इनके दो चेलों की सामाजिक न्याय की लड़़ाई आज पूंजीवादी सत्ता की लोलुपता में किस कोने में पड़ी है, इसको बताने की आवश्यकता नहीं है। 
    
पहले गुरू की बात करें। कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1921 को बिहार के दरभंगा जिले (अब समस्तीपुर) में हुआ था। आजादी के आंदोलन के प्रभाव में ये कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। छात्र जीवन में ये ए आई एस एफ से भी जुड़े रहे। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे 1942 से 1945 तक जेल में भी रहे। 1948 में जब कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो ये उसमें शामिल हो गये। इसके बाद से ताउम्र सोशलिस्ट पार्टी के किसी धड़े में सक्रिय रहे। 1967 के आम चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के बिहार में बड़ी ताकत बनकर उभरने के बाद ये 1967-68 में बिहार के उपमुख्यमंत्री बने। 1970 में ये पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। इमरजेंसी के दौरान ये भूमिगत हो उसका विरोध करते रहे। 1977 से 1979 तक वे दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। 1978 में उन्होंने मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशें लागू करते हुए पिछड़े वर्ग के लिए 12 प्रतिशत, अति पिछड़े वर्ग के लिए 8 प्रतिशत, महिलाओं व ऊंची जाति के गरीबों के लिए 3-3 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू की। उनकी इस आरक्षण नीति पर विवाद के चलते ही उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। 1967 में जब ये उपमुख्यमंत्री बने तो इन्होंने बिहार में मैट्रिक परीक्षा पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। 1952 में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद ये एक बार भी विधानसभा चुनाव नहीं हारे। 1988 में इनकी मृत्यु हो गयी। 
    
कर्पूरी ठाकुर की चर्चा उनके आरक्षण फार्मूले और उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी के लिए ही सर्वाधिक होती है। कहा जाता है कि इन्होंने दो-दो बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद अपने लिए तनिक भी सम्पत्ति नहीं जोड़ी। इनकी सादगी-ईमानदारी के 70 के दशक में उदाहरण दिये जाते थे। 
      
पर जैसा कि होता है कि हर व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार व्यक्ति मेहनतकश जन के हितों का वास्तविक प्रतिनिधि भी हो, यह जरूरी नहीं होता। यही बात कर्पूरी ठाकुर के लिए भी सही थी। वे सोशलिस्ट पार्टी के विचारों पर खड़े थे। सोशलिस्ट पार्टी के, जे.पी.लोहिया के समाजवाद की अनेकों व्याख्यायें मौजूद हैं पर उनका सार यही है कि पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखते हुए उसके भीतर गरीबों-पिछड़ों-वंचितों के लिए कुछ कल्याणकारी कदमों की मांग करना। इस रूप में कर्पूरी ठाकुर का समाजवाद भी कुछ राहत के कदमों के साथ पूंजीवादी व्यवस्था की सेवा में नतमस्तक था। उनके सामाजिक न्याय के नारे का यही निहितार्थ था कि दबी-कुचली जातियों को सरकारी नौकरियों-शिक्षा आदि में कुछ राहत मुहैय्या हो। 
    
फिर भी यह कहना होगा कि बिहार के तत्कालीन सामंती समाज में दबी-कुचली जातियों के लिए आरक्षण सरीखे कदमों के जरिये कर्पूरी ठाकुर ने उनके शोषण-उत्पीड़न को कमजोर करने में एक हद तक भूमिका निभायी। 
    
पर यह बात भी उतनी ही सही है कि सोशलिस्ट पार्टी के सामाजिक न्याय के नारे या फिर आरक्षण सरीखे सुधारों से गरीबों-वंचितों, दबी-कुचली जातियों के जीवन में कोई निर्णायक परिवर्तन नहीं आना था। ऐसा परिवर्तन तो दबे-कुचलों के द्वारा रची जाने वाली क्रांतिकारी पहलकदमी ही ला सकती थी। 70 के दशक से पूर्व सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी नई जनवादी क्रांति व उसके पश्चात पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति ही ऐसा परिवर्तन ला सकती थी। और कर्पूरी ठाकुर ऐसे किसी क्रांतिकारी परिवर्तन के हामी नहीं थे। 
    
अगर अति पिछड़ी जाति की नाई जाति के कर्पूरी ठाकुर 70 के दशक में अपने को पिछड़ों के सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित कर पाये तो 80 के दशक में इसी राजनीति ने उनके पराभव की भी पटकथा रची। 70-80 के दशक में उत्तर भारत में आये जातीय उभार के चलते अब पिछड़ी जाति की अपेक्षाकृत ज्यादा संख्या वाली जातियों के नेता भी उभर कर आने लगे। बिहार में लालू यादव के उभार ने अपेक्षाकृत कम संख्या वाली जाति के कर्पूरी ठाकुर को हाशिये में पहुंचा दिया। लालू यादव जो आज खुद को कर्पूरी ठाकुर की विरासत से जोड़ते हैं, कहा जाता है कभी कर्पूरी ठाकुर को उन्होंने कपटी ठाकुर कहकर बुलाया था। 
    
पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में सामाजिक न्याय के नारे-आदर्शों का यही हश्र होना था। जहां पहली पीढ़ी के सोशलिस्ट कुछ ईमानदारी-कुछ दबे, कुचलों के संघर्षों को उठाते दिखते हैं वहीं इनके चेले पूंजी की चकाचौंध में और सत्ता के लोभ में किसी भी हद तक पतित होने को अभिशप्त थे। कर्पूरी ठाकुर और उनके चेले लालू-नीतीश, अम्बेडकर और मायावती, पेरियार और डीएमके-एआईडीएमके सब जगह इस कहानी को देखा जा सकता है। 
    
अब दबी-कुचली जातियों के लिए सामाजिक न्याय का नारा महज सत्ता की सीढ़ी चढ़ने, वोट बैंक साधने का जरिया बन गया। कभी सरकारी ठेकों में बेरोजगार इंजीनियरों को यूं ही नौकरी देने वाले कर्पूरी ठाकुर के चेले हर नौकरी के एवज में भारी घूस लेने लगे। पिछड़ों के सामाजिक न्याय की बात करने वाले कर्पूरी के चेले फासीवादी संघ-भाजपा की गोद में बैठने-उतरने लगे। वे अपने गुरू कर्पूरी की इतनी इज्जत भी रखने को तैयार नहीं हैं कि 1979 में कर्पूरी के नीचे से मुख्यमंत्री की कुर्सी खिसकाने वालों में आज के भाजपाई (तब की जनसंघ) प्रमुख भूमिका में थे, इसको याद कर संघ-भाजपा से दूर रहें। 
    
कर्पूरी को भारत रत्न देकर उनकी विरासत में अपनी भी हिस्सेदारी का दावा आज के धूर्त संघी ही कर सकते हैं। हिन्दू फासीवादी ही इतने पाखंडी हो सकते हैं कि एक दिन पहले तक राम मंदिर का हिन्दुत्ववादी जाप करते हुए अगले दिन कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दे खुद को पिछड़ों का मसीहा दिखाने लगें।
    
कहने की बात नहीं है कि हिन्दू पहचान (जो मुस्लिमों के खिलाफ केन्द्रित है) की फासीवादी राजनीति करने वाले मोदी-शाह ने पिछड़ी जातियों के एक हिस्से को भी अपने पक्ष में लामबंद करने में सफलता पायी है तो इसमें पूंजीवादी दायरे में सामाजिक न्याय के नारे के हश्र की भी बड़ी भूमिका है। 90 के दशक में जातिगत उभार जहां संघ-भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति की राह में कुछ बाधा खड़ा कर सका था। वहीं जातिगत उभार का ही आगे बढ़ना अब उनकी राह में बाधा खड़ी करने में असमर्थ हो गया है। 
    
उत्तर भारत में पिछड़ों में पहले यादव-कुर्मी सरीखी जातियां सम्पन्नता की ओर बढ़ीं। स्वाभाविक तौर पर जातिगत उभार के शीर्ष पर राजनीति में लाभ उठाने वाले नेता इन्हीं जातियों से आये। बाद में राजभर से लेकर गैर जाटव दलित जातियों के नेता भी उभरने लगे और इन्हें अपने साथ लेने में संघी सफल होने लगे। नीतीश कुमार की तरह ये सभी जाति आधारित नेता सामाजिक न्याय के नारे और संघ-भाजपा की गोद में बरसाती मेंढ़क के बतौर फुदक रहे हैं। 
    
अभी कुछ दिन पूर्व तक नीतीश जातीय जनगणना के हथियार, 75 प्रतिशत आरक्षण के जरिये संघ-भाजपा की राह रोकने का दम्भ भर रहे थे। पर अपनी नाक के नीचे राजद के तेजस्वी की बढ़ती लोकप्रियता इन्हें हजम नहीं हुई। और प्रधानमंत्री का ख्वाब पाले नीतीश को मुख्यमंत्री की गद्दी भी खिसकती नजर आयी। अतः इन्होंने झट पलटी मारी और मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए मोदी की गोद में शरण पा ली। 
    
भारतीय राजनीति में जाति आधारित पार्टियों के नेताओं का यह घोर अवसरवाद अगर चालू है तो इसकी वजह यही है कि इन जातियों के आमजन अंधश्रद्धा की हद तक इन नेताओं से जुड़े हैं। बसपा की सारी निष्क्रियता के बावजूद दलित वोट बैंक पर उसका नियंत्रण इसका जीता जागता उदाहरण है। पर यह अंधश्रद्धा लम्बे समय तक जारी नहीं रह सकती। वक्त के साथ यह कमजोर पड़ती जायेगी। 
    
आज हिन्दू फासीवादी आंदोलन के उभार के दौर में इंडिया गठबंधन के ऊपर उम्मीद टिकाये उदारवादियों-वामपंथी उदारवादियों को नीतीश के इस कदम से काफी धक्का लगा है। राहुल गांधी से हिन्दू फासीवाद को चुनौती देने की उम्मीद लगाये लोग इंडिया गठबंधन के इस हश्र से भी सबक निकालने को तैयार नहीं हैं। तो कुछ अम्बेडकरवाद-मार्क्सवाद की खिचड़ी से व्यवस्था बदलने का भ्रम छोड़़ने को तैयार नहीं हैं। 
    
हकीकत यही है कि आज दबी-कुचली जातियों के लिए सामाजिक न्याय का प्रश्न हो या फिर हिन्दू फासीवादियों की राह रोकने का प्रश्न यह मजदूर-मेहनतकश जनता की क्रांतिकारी लामबंदी के जरिये ही संभव है। मजदूर वर्ग के नेतृत्व में कायम होने वाला फासीवाद विरोधी मोर्चा ही हिन्दू फासीवाद की राह रोक सकता है। क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में यह मोर्चा सड़कों पर संघर्ष के जरिये ही मोदी-शाह की राह रोक सकता है। इसके साथ ही पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति के जरिये ही वास्तविक समाजवादी समाज रच सकता है जो सभी दबे-कुचले लोगों के साथ हो रहे अन्याय-उत्पीड़न का भी खात्मा करेगा। 
    
अतः वक्त की मांग है कि इंडिया गठबंधन, सामाजिक न्याय के पूंजीवादी नारे से आस लगाने के बजाय जनता की क्रांतिकारी लामबंदी पर विश्वास किया जाये व इस दिशा में प्रयास किये जायें।     

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।