भारत रत्न और कर्पूरी ठाकुर

कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाये तो भारत रत्न भारत के ऐसे राजनेताओं को मिलता रहा है जिन्होंने अपने खास ढंग से भारत की राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था की सेवा की है। जिस ढंग से भारत रत्न बांटे जाते रहे हैं वह हमेशा ही अपने किस्म के राजनैतिक विवादों का कारण रहा है। 
    
‘‘जननायक’’ कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न चुनावी वर्ष में दिया जाना और सिर्फ व सिर्फ उन्हें ही दिया जाना कई बातें एक साथ कह देता है। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिये जाने की मांग पुरानी है और उनके चेले लालू और नीतिश इस मांग को उठाते रहे हैं। कर्पूरी ठाकुर भारत के अवसरवादी समाजवादी आंदोलन के एक बेहद ईमानदार सादगी पसन्द नेता थे। वे ऐसी नस्ल के नेता थे जो भारत की आजादी की लड़ाई के दिनों में पैदा हुए और जिन्हें निजी लोभ-लालच छुआ तक नहीं था। व्यक्तिगत ईमानदारी और सादगी भरा जीवन सामाजिक-राजनैतिक जीवन में एक आवश्यक गुण है परन्तु यह ऐसा गुण नहीं है जो यह बात सुनिश्चित कर देता हो कि वह व्यक्ति सच्चे अर्थों में शोषित-उत्पीड़ित मजदूर-किसान-मेहनतकशों का साथी या रहनुमा है। भारत का समाजवादी आंदोलन अपने जन्म के समय से ही वैचारिक अवसरवाद और जातिवादी मूल्यों का पक्षपोषण करता रहा है। सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता हासिल करने के लिए किसी के भी साथ हो लेने और पल-पल में पाला बदलने की पूंजीवादी राजनैतिक कला को महारत के स्तर पर पहुंचाने का काम सबसे पहले और सबसे ज्यादा समाजवादियों ने ही किया है। इन्हें हिन्दू फासीवादियों से लेकर सरकारी कम्युनिस्टों के साथ जाने में या उनसे गठबंधन तोड़ने में कुछ भी समय नहीं लगता रहा है। कर्पूरी ठाकुर के चेले नीतिश कुमार वही करते हैं जो उन्होंने अपने गुरू से सीखा था। पल में यहां पल में वहां। 
    
कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न चुनावी साल में देकर मोदी ने वैसा ही शातिर दांव खेला है जैसे पहले एक महिला आदिवासी राजनेता को भारत का राष्ट्रपति बनवा कर खेला था। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा जिसे किसी ने अभी ‘कमण्डल की राजनीति’ की संज्ञा दी और कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिये जाने को उसी ने ‘मण्डल राजनीति’ की संज्ञा दी। कमण्डल और मण्डल को एक साथ साध लेने के लिए उसी ने मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। आधे-अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा और लुटते-पिटते समाजवादी आंदोलन के एक नेता को भारत रत्न और इसके जरिये चुनावी बिसात बिछाना और फिर अपने विरोधियों को चित्त करने का मायावी काम मोदी ही कर सकते हैं। 
    
कर्पूरी ठाकुर ने अपने मुख्यमंत्री काल में कुछ ऐसे कदम भी उठाये थे (जैसे अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करना; लड़कियों को मुफ्त शिक्षा, आर्थिक रूप से अति पिछड़ों व महिलाओं को आरक्षण आदि) जो उस जमाने के हिसाब से आगे बढ़े कदम थे पर इससे ज्यादा चर्चा उनकी जाति और आगामी चुनाव में उनको भारत रत्न दिये जाने के प्रभाव की हो रही है।  

आलेख

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इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं। 

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कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है। 

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।