राष्ट्रपति दुर्दशा देखी न जाहि !

भारत के राष्ट्रपति का पद हर लिहाज से सर्वोच्च पद है। वे भारत के प्रथम नागरिक हैं। वे तीनों सेनाओं के सर्वोच्च कमाण्डर हैं। भारत सरकार उनके नाम पर ही काम करती है। संसद में पारित विधेयक तभी पास माने जाते हैं जब अंतिम तौर पर राष्ट्रपति अपनी सहमति दे देते हैं। इस तरह की नाना प्रकार की बातें भारत के राष्ट्रपति की महिमा में की जा सकती हैं। 
    
राष्ट्रपति का पद भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में अगर सर्वोच्च है तो फिर उनके द्वारा कही गयी बातें सबसे महत्वपूर्ण भी होनी चाहिए। उनके द्वारा कही गयी बातों को सरकारी मीडिया से लेकर निजी मीडिया यानी हर जगह प्रमुख स्थान मिलना चाहिए। और तब तो अवश्य मिलना चाहिए जब वे गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्र को संबोधित कर रहे हों। राष्ट्रपति के अभिभाषण को मीडिया की सुर्खियां बनना चाहिए और टेलीविजन के लोकप्रिय कार्यक्रमों में उनके भाषण पर चर्चा होनी चाहिए। परन्तु इस वर्ष के राष्ट्रपति द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिये गये अभिभाषण पर ऐसा कुछ खास नहीं हुआ। चलताऊ खबरों के बीच इसे कहीं इधर-उधर थोड़ा स्थान दिया गया। अखबारों में प्रमुख सुर्खियों में मोदी के आत्मप्रशंसा में दिये गये भाषण (‘विकास का बिगुल फूंकता है मोदी’) या मोदी के जयपुर में किये गये कारनामे (मोदी ने राम मंदिर का मॉडल खरीदकर फ्रांस के राष्ट्रपति को भेंट किया) प्रमुख थे। राष्ट्रपति का भाषण मोदी की लफ्फाजी में कहीं खो गया। 
    
मोदी ने जिस तरह से देश की सभी संस्थाओं को अपने सामने बौना या अप्रासंगिक बना दिया है। ठीक वही काम उन्होंने राष्ट्रपति पद के साथ भी किया है। और इसके बाद रही-सही कसर मोदी भक्त मीडिया ने पूरी कर दी है। और इसमें कमजोर व्यक्तित्व के श्री हीन राष्ट्रपति (जो कि किसी भी किस्म की दिक्कत उनकी सरकार के लिए न खड़ी करे) बने व्यक्तियों ने भी पूरी कर दी है। पहले कोविंद अब द्रोपदी मुर्मू को मोदी के गैर आधिकारिक तौर पर राष्ट्र प्रमुख की तरह व्यवहार करने से कोई दिक्कत नहीं रही है। वे तो मात्र इस बात से गद्गद् रहे हैं कि उनके जैसे राजनीतिक रूप से गुमनाम व्यक्तियों को राष्ट्रपति का पद मोदी की मेहरबानी से ही मिला है। इनमें से कोई न तो के.आर. नारायणन और न ही ज्ञानी जेल सिंह बनने को तैयार है। न तो वे प्रथम नागरिक और न ही सरकार के अभिभावक की भूमिका में कभी उतरे हैं। 
    
अभी राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में ‘शबरी! मेरी आदिवासी मां...’ कहकर चुनावी राजनैतिक प्रलाप करने वाले मोदी, महामहिम राष्ट्रपति जो कि आदिवासी महिला भी हैं, को इस योग्य भी नहीं समझते कि वह देश के नये संसद भवन का उद्घाटन करें! जब मोदी अपने व्यवहार से बार-बार ये साबित करें कि वे ही सरकार हैं, वे ही संसद हैं, वे ही हर मामले में सर्वप्रथम हैं तो बेचारे पूंजीपतियों के या सरकार के टुकड़ों पर पलने वाले पत्रकार-मीडिया राष्ट्रपति के भाषण के साथ ऐसा व्यवहार क्यों न करें कि जैसे उन्होंने जो कुछ कहा वह महत्वहीन है। कुछ नहीं है। 

आलेख

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इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं। 

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कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है। 

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।