कारखाने में काम करते हुए, सब कुछ सहन करते, चलते-फिरते मशीनों और लाशों में तब्दील होते हम मजदूर, जिनको अब कुछ भी महसूस नहीं होता है। अपने आस-पास हो रहे गलत का विरोध करने की ताकत भी हम मजदूरों में नही रही है। कोई भी गलत बात अब हम को प्रभावित नहीं करती है।
मशीन पर कार्य करते हुए एक मजदूर का हाथ मशीन में आने से उस मजदूर का अंगूठा कट जाता है। और उसको अगले ही दिन कारखाने से निकाल दिया जाता है, और ये बात हम मजदूरों को बिलकुल भी नहीं कचोटती है।
जब भी कोई मजदूर इस दमन और शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसे भी तानाशाही फरमान सुना काम से निकाल दिया जाता है।
और इतना कुछ होने के बाद भी हम मजदूर हाथ पर हाथ रखकर सिर्फ अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं।
ऐसे तो नही थे हम, कि घटनाएं कुचलती जाएं, और हम मूकदर्शक बन अपनी बारी का इंतजार करते रहें।
हम करते थे विरोध गलत का, शोषण का। पहले हम मजदूर हर दमन, हर शोषण का जवाब अपनी सामूहिक एकता से देते थे। हम कारखाने में काम करने वाले हर मजदूर के सुख-दुख में उसके साथ खड़े रहते थे। और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत थी।
लेकिन दमन और शोषण के खिलाफ लड़ते-लड़ते हम मजदूर शोषकों के षडयंत्र के शिकार क्यों हो गए?
हम मजदूर ठेका-परमानेंट, नकली-असली में बंट गए। अपना-अपना स्वार्थ देखने लग गए।
हम मजदूरों को चाहिए कि हम स्वार्थ से परे हटकर, अपने जिंदा होने का सबूत देते हुए, अपने भीतर के सारे विभेद खत्म करते हुए फिर से अपनी सामूहिक एकता बनाकर अपने भाईचारे का परिचय दें। वर्ग एकता के द्वारा सब कुछ संभव है
-एक मजदूर, बेलसोनिका
एक मजदूर की अपने मजदूर साथियों से अपील
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
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