कहां गये वो वायदे.. सुखों के ख्वाब क्या हुए?

आम बजट 2023-24

वर्ष 2022 बीत चुका है। अगर बीते वर्षों के प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों को याद करें तो 2022 तक देश में बहुत कुछ होना था। 2022 तक हर व्यक्ति के सिर पर अपनी खुद की पक्की छत होनी थी। उस घर में शौचालय, बिजली व पानी की व्यवस्था भी होनी थी। हर घर में 24 घण्टे बिजली मिलनी थी। देश को 2022 तक 5 खरब डालर की अर्थव्यवस्था वाला देश बनना था। 2022 तक देश में किसानों की आय दोगुनी होनी थी। 2022 तक देश में बुलेट ट्रेन चलनी थी। 2022 में भारत को अपना स्वनिर्मित यान अंतरिक्ष में भेजना था। देश में 100 स्मार्ट सिटी तो 2020 में ही बनकर तैयार हो जाने थे।

सब जानते हैं कि उपरोक्त वायदों में एक भी पूरा नहीं हुआ। आने वाले कुछेक वर्षों मेंsubsidy इनके पूरा होने की उम्मीद भी नहीं है। हां सरकार का वायदों का क्रम अभी भी जारी है। 2022 की समय सीमा 25 वर्ष बढ़कर 2047 तक पहुंच गयी है। और अब आजादी के 100वें वर्ष में यानी 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनना है। अब 2047 को लेकर वायदे दर वायदे पेश किये जायेंगे।

इन वायदों की रोशनी में अगर इस वर्ष के आम बजट की बात करें तो वित्तमंत्री के बजट का भाषण और बजट का आवंटन परस्पर विरोधी तस्वीर पेश करता है। बजट भाषण में वित्तमंत्री ने लोकलुभावन बातें करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उन्हें बेरोजगारों की भी चिंता थी तो किसानों की भी। भाषण में महिलाओं के कल्याण के प्रति भी वे चिंतित थीं तो आदिवासियों के लिए भी। पर अफसोस कि बेरोजगारी-महिलाओं-किसानों-आदिवासियों-दलितों यानी सभी उत्पीड़ित-वंचित समुदायों के लिए उनके पिटारे में भाषण के अलावा कुछ नहीं था। जब वित्तमंत्री का पिटारा खुला तो पाया गया कि जिन-जिनका रोना उन्होंने भाषण में रोया था, उनसे जुड़ी सारी मदों में कटौती करने के अलावा कुछ नहीं था।subsidy

अगर भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालातों की बात करें तो दरअसल कोरोना काल में हुई गिरावट से अर्थव्यवस्था अभी ठीक से उबर भी नहीं पायी है। यह बात मजदूर-मेहनतकश जनता की कमाई और विभिन्न क्षेत्रों में वृद्धि दर दोनों से पुष्ट होती है। बीते वर्ष की पहली छमाही की 7 प्रतिशत विकास दर, दूसरी छमाही में 4.5 प्रतिशत पर आ गयी। बीते 5 वर्षों में औद्योगिक विकास दर दो वर्षों में नकारात्मक रही थी। बीते वर्ष की दूसरी छमाही में भी यह गिरकर 4.3 प्रतिशत पर आ गयी। औद्योगिक उत्पादन में सुस्त विकास दर और बढ़ती महंगाई के चलते वास्तविक प्रति व्यक्ति आय कोरोना पूर्व के काल के स्तर पर ही बनी हुई है।

अर्थव्यवस्था के विकास की मौजूदा सुस्त गति के पीछे मुख्य कारक घरेलू मांग में कमी है। मांग की यह कमी शहर-देहात सभी जगह है पर देहातों में यह कहीं अधिक है। मांग में यह कमी दिखलाती है कि गरीब मजदूर-किसान ही नहीं मध्यम वर्ग तक की हालत खस्ता है और वह बाजार से बहुत कुछ खरीदने की स्थिति में नहीं है। वह कोरोना काल के लॉकडाउन की मार से उबर ही नहीं पाया है।

ऐसे में अर्थव्यवस्था में गति केवल इसी तरह से पैदा की जा सकती थी कि सरकार अपने बजट आवंटनों को ऐसे क्षेत्रों में बढ़ाये जिससे आम जन-मध्य वर्ग की कमाई में सुधार हो और उसकी ओर से मांग बढ़े। पर बीते कुछ वर्षों की तरह मोदी सरकार उल्टी ही दिशा में आगे बढ़ रही है। जरूरत थी कि बजट खर्च बढ़ाया जाए पर सरकार बजट खर्च घटाने में जुटी है। 2020-21 में बजट खर्च कुल सकल घरेलू उत्पाद का 17.7 प्रतिशत था जो 2023-24 में घटकर 14.9 प्रतिशत रह गया है।

दरअसल मोदी सरकार इस उम्मीद में बैठी है कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाकर ही अर्थव्यवस्था किसी जादू से पटरी पर आ जायेगी। बजट में भी आम जन के ऊपर खर्च घटा कर और पूंजीपतियों को तरह-तरह की सहूलियतें देकर अर्थव्यवस्था में उछाल पैदा होता जायेगा। इस सबका डांवाडोल होती अर्थव्यवस्था पर भले ही अच्छा असर न पड़े पर इससे देश के बड़े पूंजीपतियों का मुनाफा व दौलत दोनों बढ़ते रहेंगे। यही मोदी सरकार का मुख्य लक्ष्य है और इसलिए पूंजीपति वर्ग मोदी सरकार से खुश है।

इस बजट में स्टार्ट अप के नाम पर पूंजीपतियों को नई छूटें प्रदान की गयी हैं। उच्च आय वालों पर आयकर का बोझ कम किया गया है। कई सरकारी क्षेत्रों को विनिवेश के नाम पर पूंजीपतियों को लुटाने की घोषणा की गयी है।

इसी तरह बेरोजगारी की मार से जूझ रहे देश को पटरी पर लाने के लिए जरूरी था कि सरकार अर्थव्यवस्था में अपना निवेश बढ़ाये। विभिन्न सार्वजनिक निवेश परियोजनाओं के जरिये स्थायी सुरक्षित रोजगार पैदा करे। श्रम कानूनों को मजदूरों के पक्ष में ढाल कर निजी क्षेत्र में बेहद कम वेतन पर 12-14 घण्टे काम कराने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगा नये रोजगार सृजित करे। पर सरकार इस मामले में भी उदारीकरण के रथ पर सवार है। वह न केवल मजदूर विरोधी नई श्रम संहितायें लागू करने पर उतारू है बल्कि सरकारी सेक्टर में भी अनौपचारिक-ठेके के काम को बढ़ावा देने में तुली है। यह सब बेरोजगारी की भयावहता को और बढ़ाने की ओर ही ले जायेगा। औद्योगिक उत्पादन की सुस्त पड़ती रफ्तार और उसका पूंजी सघन चरित्र समस्या को और गहरायेगा।

जिन क्षेत्रों में सरकार खर्च बढ़ा भी रही है मसलन रेलवे-सड़क निर्माण आदि उनका लक्ष्य भी नये रोजगार पैदा करना नहीं बल्कि पूंजीपतियों को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिये मुनाफा कमाने का मौका देना है। ऐसे में इस निवेश से जो रोजगार पैदा होंगे वे ठेके के ही अधिक होंगे।

अब अगर बात उन मदों में बजट आवंटन की करें जिनसे सीधे-सीधे आम जन का जीवन जुड़ा है तो यहां भी हर ओर से वित्तमंत्री के बजट ने निराशा ही पैदा की है।

सब्सिडी

विभिन्न मदों में सब्सिडी की बात करें तो 2012-13 में जहां सरकार कुल बजट खर्च का 18 प्रतिशत विभिन्न सब्सिडियों में खर्च करती थी वह क्रमशः घटते-घटते इस वर्ष के बजट में 9 प्रतिशत से नीचे चली गयी है। केवल कोरोना काल में ही यह कुल खर्च के 20 प्रतिशत पर पहुंची। (देखें तालिका -1) इस वर्ष की सब्सिडी की विभिन्न मदें तालिका-2 में प्रस्तुत हैं। तालिका 2 से स्पष्ट है कि सरकार खाद्यान्न, उर्वरक, रसोई गैस आदि सभी क्षेत्रों में सब्सिडी घटाने पर तुली है।

मनरेगा- मनरेगा के मद में गत वर्ष के संशोधित अनुमान में सरकार ने 89,400 करोड़ रुपये खर्च किये थे। अब इस वर्ष सरकार ने इस मद में महज 60,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया है। वास्तविक मूल्यों पर देखा जाये तो मनरेगा के बजट में वास्तव में सरकारें लगातार कटौती करती गयी हैं। बजट की कमी के साथ बजट का समय पर आवंटन न होना भी बड़ी समस्या रही है। ढेरों दफा मजदूरों को महीनों बाद मजदूरी मिल पाती है। मनरेगा की मजदूरी बाजार मजदूरी से काफी कम है पर इसके बावजूद कोरोना काल के बाद इसके तहत काम पाने की मांग मजदूरों की ओर से बनी हुई है। यह स्थिति ग्रामीण भारत में बेरोजगारी की भयावहता को ही दिखाती है। पर सरकार इससे भी आंख मूंद बेहद कम मजदूरी के इस काम से भी ग्रामीणों को वंचित करने पर तुली है।

पीएम पोषण- मिड डे मील की इस योजना के तहत सरकार ने 11,600 करोड़ रु. इस वर्ष के बजट में आवंटित किये हैं। ये पिछले वर्ष संशोधित बजट अनुमान से खर्च की गयी राशि से 9 प्रतिशत कम है। महंगाई को देखते हुए वास्तविक कटौती और ज्यादा हो जाती है। बीते वर्ष सरकार ने इस मद में 12,800 करोड़ रु. खर्च किये।

स्वास्थ्य व आयुष्मान भारत- इस स्वास्थ्य बीमा योजना की जितने तामझाम से सरकार ने शुरूआत की थी वास्तव में यह उतनी ही असफल साबित हुई। योजना हेतु सरकार ने हमेशा ही आवंटित धन बेहद कम रखा और उसको भी अस्पतालों को हस्तांतरित करने में इतनी लेट लतीफी दिखायी कि आज अस्पताल आयुष्मान कार्ड धारकों का आसानी से इलाज करने को तैयार नहीं हैं। 2022-23 के इस योजना हेतु आवंटित 6412 करोड़ रु. का महज 18 प्रतिशत सरकार ने दिसम्बर 22 तक जारी किया था। यही हाल पिछले वर्षों का भी रहा। इस वर्ष इस हेतु बजट में कुछ वृद्धि कर इसे 7200 करोड़ रु. कर दिया गया है। वर्ष 2019-20 में इस मद में आवंटित 6400 करोड़ रु. में मात्र 3200 करोड़ रुपये ही खर्च किये गये। 2020-21 में आवंटित 6400 करोड़ रु. में मात्र 3100 करोड़ रु. ही खर्च हुए। जबकि यह कोरोना काल था। 2021-22 में आवंटित 6400 करोड़ रु. में मात्र 3199 करोड़ रु. ही खर्च हुए। केवल 2022-23 में आवंटित 6412 करोड़ रु. में सम्पूर्ण राशि खर्च का अनुमान है।

यही हाल सरकार के स्वास्थ्य की मद में खर्च का है। गत वर्ष बजट में तय की गयी राशि पूरी खर्च ही नहीं की गयी। अब नये बजट में तय राशि 3 प्रतिशत कटौती कर 89.155 करोड़ रु. तय की गयी है। बताया जा रहा है कि यह बीते वर्ष की खर्च की गयी राशि से 8 प्रतिशत अधिक है।

शिक्षा- शिक्षा के क्षेत्र में भी स्वास्थ्य की मद की तरह सरकार जो राशि तय करती है उसे खर्च हेतु जारी ही नहीं करती। शिक्षा मंत्रालय हेतु सरकार ने इस वर्ष 1,12,899 करोड़ रु. तय किये हैं। इसमें समग्र शिक्षा का हिस्सा 37,453 करोड़ रु. है। समग्र शिक्षा का यह हिस्सा गत वर्ष के बजट अनुमान से मात्र 0.2 प्रतिशत अधिक है।

अल्पसंख्यकों की छात्रवृत्ति पर सरकार खास तौर पर हमलावर रही है। एक ओर सरकार शिक्षा की मद में बजट बढ़ाने में गुरेज कर रही है तो दूसरी ओर 157 नये नर्सिंग कालेज खोलने की घोषणा भी कर रही है। जाहिर है कि यह सरकार घोषणाओं में ही उस्ताद है उन्हें व्यवहार में उतारने में एकदम फिसड्डी है।

बात अगर किसानों की करें तो प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री किसान निधि की मदों में कटौती के साथ उर्वरक सब्सिडी में कटौती की गई है। अन्य सब्सिडी की मद में किसानों को छोटे ऋणों पर दी जाने वाली सब्सिडी में भी कटौती की गई है। मोदी सरकार 3 कृषि कानूनों पर किसानों के आगे झुकने को मजबूर हुई थी। अब वह कृषि की आगतें बढ़ा किसानों की तबाही को तेज करने को प्रयासरत है। इसके साथ ही वह आर्गेनिक खेती का शिगूफा छोड़, नकदी फसलों की ओर किसानों को धकेल उन्हें बाजार में तबाही की ओर ले जा रही है। बात महिलाओं की करें तो महिला राष्ट्रपति के तहत एक महिला वित्तमंत्री के बजट में देश की महिलाओं के लिए महज इतना ही था कि महिलायें 2 लाख रु. तक की रकम 2 वर्ष तक फिक्स्ड डिपाजिट कर 7.5 प्रतिशत ब्याज दर पा सकती हैं।

इसके अलावा बात चाहे महिला व बाल विकास मंत्रालय की मद की हो या महिला सशक्तिकरण की हर जगह वित्तमंत्री ने महिलाओं को अंगूठा ही दिखाया है। स्वास्थ्य के प्रति सरकारी संवेदना का आलम इसी से पता चल जाता है कि सरकार ने अगले 25 वर्षों में एनीमिया दूर करने का लक्ष्य लिया है जिसमें 7 करोड़ लोगों को एनीमिया से मुक्त किया जायेगा।

मोदी सरकार के विकसित होने की ओर बढ़ते भारत की यही तस्वीर है जहां एनीमिया से मुक्ति के लिए लोगों को 25 वर्ष का स्वप्न दिखाया जाता है। और इस स्वप्न के भी 2022 में आजादी के 75 वर्ष में सबके पक्के घर के स्वप्न की तरह ही ध्वस्त होने के आसार हैं।

जाहिर है यह बजट मजदूर-किसान-महिला विरोधी बजट है।

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