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बीते दिनों भारत के सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने मुफ्त सुविधाओं की घोषणाओं पर प्रश्न उठा दिया। न्यायमूर्ति गवई व एजी मसीह ने बेघर व्यक्तियों के आश्रय के अधिकार संबंधी मामले की सुनवाई करते हुए मुफ्त सुविधाओं को लोगां को परजीवी बनाने वाला करार दिया। न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि ‘‘दुर्भाग्य से इन मुफ्त सुविधाओं के कारण, जो अक्सर चुनावों से ठीक पहले घोषित की जाती है- जैसे महिलाओं और अन्य के लिए ‘लड़की-बहिन योजना’- लोग काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें बिना कोई काम किये मुफ्त राशन और पैसा मिलता है। न्यायमूर्तियों ने कहा कि मुफ्त राशन व वित्त वाले कल्याण कार्यक्रम लोगों को काम करने से हतोत्साहित करते हैं और इस तरह लोगों को मुख्यधारा में एकीकृत करने व उन्हें राष्ट्रीय विकास में योगदान करने को प्रोत्साहित करने के बजाय हम आश्रितों का एक वर्ग तैयार कर रहे हैं।
न्यायमूर्तियों की ये बातें दिखलाती हैं कि देश में न्याय के सर्वोच्च आसन पर बैठे लोग देश की गरीब जनता के बारे में क्या राय रखते हैं। वे किस हद तक गरीब मेहनतकश जनता के नकारा होने के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं।
यह पूर्वाग्रह वैसे पूंजीवादी व्यवस्था का आम पूर्वाग्रह है कि जो लोग मेहनत करते हैं वो सम्पन्न होते हैं और जो मेहनत नहीं करते वे गरीब बने रहते हैं। भारत की करोड़ों की बेरोजगार आबादी यही ताना घर परिवार में हर रोज सुनती है कि मेहनत करते तो तुम्हारी भी नौकरी लग जाती।
पर जरा गौर से देखें तो वास्तविकता इस पूर्वाग्रह के ठीक उलट है और वह यह है कि जो मेहनत करते हैं वे गरीब बने रहते हैं और जो तीन तिकड़म करते हैं वो सम्पन्न हो जाते हैं। देश का मजदूर-किसान दिन-रात मेहनत करता है पर दो वक्त की रोटी व एक छत के लिए भी मोहताज है। बेरोजगार काम करने को उत्सुक हैं पर उन्हें मौका ही नहीं मिलता।
अब अगर मेहनत करने वाले ही सबसे दयनीय हालत में हैं तो इसका कारण यही हो सकता है कि उनकी मेहनत का मोल कुछ न करने वाले अपनी पूंजी-अक्ल के दम पर हड़प ले रहे हैं। ऐसे में वास्तव में परजीवी मेहनतकश नहीं पूंजीपति हैं।
अब अगर सरकार मेहनत करने वालों की थाली से एक-एक निवाला छीन अम्बानी-अदाणी को दे रही हो और बदले में कुछ राशन मुफ्त देने की घोषणा कर रही हो तो सरकार दरअसल किसे परजीवी बना रही है? दरअसल वो अम्बानी-अडाणी का परजीवीपन बढ़ाने में मदद कर रही है। और मजदूरों-किसानों से निचोड़े गये श्रम के दम पर ही अम्बानी-अडाणी ही नहीं अध्यापक-डाक्टर से लेकर नेता-जज सभी पलते हैं। इसलिए महामहिम परजीवी गरीब मजदूर-किसान नहीं, बल्कि खुद उनके जैसे लोग हैं।
जहां तक मुफ्त घोषणाओं का प्रश्न है तो बेहतर तो यही था कि सरकार मजदूरों-किसानों की मेहनत की लूट पर लगाम लगाती। यह लगाम लगने से उसे किसी मुफ्त घोषणा की जरूरत ही नहीं पड़ती। पर पूंजीवादी व्यवस्था में सरकार से लेकर न्यायालय तक तो इस मेहनत की लूट के तंत्र को बनाये रखने में लगे होते हैं। ऐसे में वे मेहनत की लूट तो बंद करा नहीं सकते। क्योंकि वे खुद भी इसी लूट पर पलते हैं।
मोदी काल में यह लूट जब चरम पर पहुंचा दी गयी तो राहत के कुछ टुकड़े मुफ्त योजनाओं के नाम पर बतौर अहसान जनता पर फेंके जाने लगे। यह टुकड़े फेंक शासक जनता को राहत कार्य का मुगालता देते रहते हैं। ये टुकड़े अनाज-पैसे के रूप में लोगों को किसी तरह जिन्दा रखते हैं।
ऐसे में महामहिम को गरीब जनता पर नकारा होने का आरोप लगाने से पहले अपने व अपने सहयोगी नेताओं-अफसरों-पूंजीपतियों के गिरेबान में झांकना चाहिए। तब उन्हें पता चल जायेगा कि जिन्हें वे नकारा कह रहे हैं उन्हीं की मेहनत की लूट पर वे खुद पल रहे हैं।