विकास और कनेक्टिविटी

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             अकसर कनेक्टिविटी की बहुत बात होती रहती है। बड़े-बड़े शहरों को जोड़ने के लिए कभी हाइवे तो कभी एक्सप्रेस वे भी बन रहे हैं। कभी बम्बई से पूना के बीच की दूरी घट रही होती है तो कभी दिल्ली से बम्बई की। बड़ोदरा से जामनगर जुड़ रहा है। लखनऊ से कानुपर जुड़ रहा है। गंगा मैया और यमुना पुराने शब्द थे, आज के जमाने में गंगा एक्सप्रेस वे, यमुना एक्सप्रेस वे हैं। बेंगलुरू की चेन्नई से दूरी घट रही है तो लद्दाख दिल्ली से जुड़ जा रहा है। पास के शहरों दिल्ली और मेरठ को रैपिड रेल से जोड़ा जा रहा है। गुड़गांव और फरीदाबाद को बहुत पहले ही दिल्ली की मैट्रो से जोड़ दिया गया है। नये साल में दिल्ली और देहरादून को नये एक्सप्रेस वे से जोड़ दिया गया है और बताया जा रहा है इस एक्सप्रेस वे से दिल्ली से दूहरादून मात्र ढाई घंटे में पहुंचा जा सकता है। ऐसी बातें हर एक्सप्रेस वे के बनने पर होती हैं। पहले हाइवे बनते थे और हाइवे पर कोई भी गाड़ी चढ़ सकती थी और उतर भी सकती थी। लेकिन अब एक्सप्रेस वे बनाये जा रहे हैं। एक्सप्रेस वे पर दोनों साइड पर बैरीकेडिंग है। इस पर जब चाहे किसी गांव-शहर से मनमुताबिक नहीं आ सकते। इस पर चलने के लिए निश्चित स्थान पर चढ़ने-उतरने के लिए टोल गेट लगे होते हैं। बिना टोल दिये इससे पार नहीं हो सकते। नेशनल हाइवे अथॉरिटी को बस एक्सप्रेस वे बनाने के लिए टेंडर निकालना होता है। इसके रूट और डिजाइन करने के लिए अलग कंपनियां होती हैं जो इस टेंडर के आधार पर काम करती हैं। एक्सप्रेस वे बनाने के बाद कंपनी टोल वसूलती है और ये टोल सरकारी बसों को भी देना होता है और उसमें सफर करने वाली गरीब आबादी से भी ये टोल वसूला जाता है। 
             ऐसे ही शहरों को जोड़ने के लिए और ट्रेनें भी चलायी जा रही हैं। वंदे भारत ट्रेनों को हर महीने झंडी दिखायी जा रही है। सेमी हाईस्पीड ट्रेनें चलायी जा रही हैं। पैसेंजर ट्रेनों को वंदे भारत ट्रेन मुंह चिढ़ाती हुए निकल जा रही है। बचपन में बच्चे मुंह चिढ़ाते थे तो उनके बीच लड़ाई हो जाती थी लेकिन बड़े होकर भी ऐसा लगता है अभी भी कोई मुंह चिढ़ा रहा है। भले ही वे वंदेभारत ट्रेन के डिब्बे हों या उसके अन्दर लगी घूमने वाली चेयर हों या सुन्दर से पर्दे ये सारे मिलकर लोकल डिब्बों की सवारियों को मुंह चिढ़ा रहे होते हैं। लेकिन पुरानी ट्रेनों और आज की आधुनिक ट्रेनों में फर्क है। पहले की ट्रेन में लकड़ी की बनी बैठने की सीटें हों लेकिन वह ट्रेन अपनी ट्रेन महसूस होती थी। लोग बोलते भी थे ‘किसान’ को पकड़ लो, ‘तूफान’ को पकड़ लो। पहले तो यह एक अबूझ पहेली बनी रहती थी कि ये पकड़ लो, पकड़ लो और आ जाओ। पुरानी ट्रेन में एक-दो फर्स्ट क्लास के डिब्बों को छोड़कर किसी भी डिब्बे के हैंडल को पकड़ लो और चढ़ जाओ और जहां जगह मिल जाये वहां बैठ जाओ। घर की आलू-पूड़ी और ट्रेन की चाय के साथ गप्पे मारते हुए। लेकिन अब अपनेपन की फीलिंग न तो ट्रेन में आती है और न ही रेलवे स्टेशन पर। हवाई अड्डे, टर्मिनल और हवाई जहाज तो अपने कभी थे ही नहीं। ट्रेन में भी अपनेपन की फीलिंग खत्म हो गयी। ये फीलिंग तो देश और गांव के बारे में भी नहीं रही, मेरा गांव और मेरा देश भी अपना नहीं लगता। चांद-तारों में भी अपनापन कुछ घट सा गया है। पहले ट्रेनों में जेब कटने का डर बना रहता था हालांकि जेब में पैसा होता नहीं था और जो होता था वह भी अंटी में रखते थे लेकिन फिर भी खाली जेब कटने का डर तो बना ही रहता था। आधुनिक रेलवे स्टेशनों पर जेबकतरे तो नहीं होते हैं लेकिन फूड कोर्ट बने हुए हैं जो जेब काटते हैं। भारतीय रेल और उसके स्टेशन हवाई अड्डों जैसे होते जा रहे हैं, डिब्बे भी आधुनिक होते जा रहे हैं और उसकी सवारियां जैसे विकास में पिछड़ गयी हैं। रेलवे स्टेशन को आधुनिक बनाने के लिए मंत्री ने एक मिनट से भी कम समय में साइन कर दिये लेकिन उसी आधुनिक रेलवे स्टेशन पर बीस रुपये की पानी की बोतल खरीदने के लिए सवारी आधे घंटे से सोच रही है। और खरीद भी ली तो उसे पूरा खत्म करने के बजाय थोड़ा सा बचाकर रख लिया है कि बाद में काम आयेगी और थोड़ा सा ये भी बोध रहेगा कि उसके पास भी पानी है। आधुनिक रेलवे स्टेशन पर अगर ट्रेन एक-दो घंटे लेट हो तो सुकून से बैठकर ट्रेन का इंतजार करने की जगह कहीं नहीं मिलेगी। रेस्ट करना है तो चार्ज लगेगा, कुछ खाना चाहो तो फास्ट फूड के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। दाल, चावल, रोटी नहीं मिलेगी और स्टेशनों के बाहर से ऐसे ढाबे तो गायब ही कर दिये गये हैं। कुछ बातों में आपस में संबंध नहीं होता लेकिन फिर भी कभी तो कोई बात दिमाग में घूमने लगती है कि जब कुत्ता काटने पर सरकारी अस्पताल में गये तो कुत्ते काटने का इंजक्शन खत्म हो गया और टीवी की दवाई खत्म हो गयी है लेकिन स्टेशन पर स्केनर लगा है और हमारी जान की बहुत चिंता है। 
             सीता का स्वयंवर की कहानी के राम भी आज अपने नहीं लगते वह भी किसी के हो गये हैं। मोदी जी ने फोन पर ट्रम्प से बात की और क्या बात की ये सब बातें मीडिया और अखबारों छप जाती हैं जैसे कान लगाकर वे सब बातें सुनी जा रही थीं। बातों का आपस में कोई लिंक नहीं बन रहा है। एक मरीज तीन घंटे से अस्पताल की लाइन में लगा है लेकिन वह अभी डाक्टर को नहीं दिखा पाया है। दूसरा आदमी सुबह मुम्बई एयरपोर्ट से दिल्ली पहुंचकर होटल में नाश्ता भी कर चुका है। अगले घंटे वह नये बिजनेस के लिए डील फाइनल करेगा लेकिन पहला आदमी दवाई की लाइन में लगा होगा। अस्पताल के हेड जब राउण्ड पर आते हैं तो उन्हें मरीजों से कोई मतलब नहीं बस कहीं कोई गंदगी दिख जाती है तो सफाई कर्मचारियों के हेड को हड़काकर चले जाते हैं और उनका रिश्ता मरीजों से कम और टाइलों से ज्यादा नजर आता है। कितने मरीज उनके अस्पताल से वापस लौट गये और अस्पताल में कौन सी बीमारी से कितने लोग मर गये, इससे उनको कोई लेना नहीं। मरीज की डाक्टरी पेशे से कनेक्टिविटी टूट गयी है चाहे कितने का भी बीमा सरकार कर दे या खुद करा लो। 
             दुनिया में फोन नेटवर्क और ट्रांसपोर्ट नेटवर्क बढ़ता जा रहा है लेकिन आदमी इनसे कनेक्ट नहीं हो पा रहा है। फोन आपस में कनेक्ट होते हैं और सड़कें व हाइवे एक-दूसरे से जुड़ते हैं लेकिन आदमी का नेटवर्क अपने परिवेश से कटता जा रहा है। न तो इंसान फोन से कनेक्ट हो पा रहा है और न सड़क से। सड़क पर आदमी चल तो रहा है लेकिन सड़क और उस पर मौजूद दूसरी चीजों से कटा हुआ है। बीसियों साल से वह उस सड़क से गुजरता है लेकिन उसे कोई जानता नहीं है। अगर वह सड़क पर एक्सीडेंट में मारा गया तो कोई उसे जानने वाला नहीं होगा जैसे जंगल में एक हिरन कम हो जाता है वैसे उसके मरने पर एक संख्या कम हो जायेगी। 
             नये हाइवे तो क्या अब तो पुरानी सड़कें भी परायी सी लगती हैं। विकास के बाद नयी सड़क से वापस जब गांव जाना होता है तो लोग कहते हैं कि अब गांव में कोई दिक्कत नहीं है। पहले शाम होने के बाद कोई सवारी नहीं मिलती थी लेकिन अब बस अड्डे और रेलवे स्टेशन पर कभी भी सवारी मिल जाती है। नयी पीढ़ी का गुजारा अब खेती से नहीं हो रहा है। शहरों में रोजगार है नहीं तो भी विकास तो होना ही था। तो विकास के लिए लोगों ने लोन पर आटो रिक्शा और ई रिक्शा खरीद लिया है। उसी से अपने परिवार का पेट पालना है और विकास के आंकड़ों में ई रिक्शा की भी वृद्वि करना है। किस्त भरने की चिंता या परिवार के लिए ही अब दिन-रात सवारी ढोते हैं। जो गाड़ी रात दस बजे आनी थी लेकिन बारह बजे न आने के बावजूद उसे सवारी का इंतजार करना है, वह छोड़कर नहीं जा सकता क्योंकि किस्त भी जमा करनी है और परिवार भी पालना है। गांव के लोग कहते हैं कि अब गांव में भी विकास हो गया है, अब रात में भी सवारी मिलती है, सड़क भी बन गयी है और मुखिया की कोठी भी, प्राइवेट स्कूल भी खुल गया है। बड़े शहरों में विकास की निशानी कूड़े के पहाड़ होते हैं, गांव में उतने बड़े पहाड़ तो नहीं हैं लेकिन फिर भी दोने-पत्तल, ग्लास, थैली कूड़े के छोटे-छोटे ढेर तो बन ही गये हैं। अंग्रेजी की खाली बोतल खेत की मेड़ के पास पड़ी है, गांव में फिल्टर पानी की गाड़ी पानी बेचती है, यही सब विकास है तो हो ही गया है। इस विकास की इंसान से कनेक्टिविटी टूट गयी है। 
         -खालिद, फरीदाबाद
 

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