आम चुनाव के पहले चरण के मतदान के बाद कुछ ऐसा हुआ कि मोदी एण्ड कम्पनी को लगने लगा कि चुनाव जीतना है तो अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा। मोदी का ब्रह्मास्त्र क्या था। मुसलमानों को राक्षस, आक्रान्ता आदि के रूप में दिखाओ और हिन्दुओं का भयादोहन करो। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ का नारा हवा-हवाई नारा था। असल नारा तो मुसलमानों को ‘घुसपैठिया’, ‘ज्यादा बच्चे पैदा करने वाला’ आदि गालियां देना है। ‘वोहरा मुसलमान’, ‘शिया मुसलमान’, ‘पसमांदा मुसलमान’ जिनको कल तक मोदी-भाजपा-संघ को अपने खेमे में लाना था अब सब घुसपैठिये, ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले हो गये। पहले चरण के मतदान के तुरंत बाद मोदी ने अपने चेहरे पर अपने आप चढ़ा हुआ नकाब खुद ही उतार फेंका। दूसरे, तीसरे, आदि चरण के बाद मोदी का कौन सा चेहरा सामने होगा। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, साम्प्रदायिक उन्माद के लिए अब और खराब बातें मोदी एण्ड कम्पनी करेगी।
असल में मोदी ये ना करे तो क्या करे। यही उनका चुनाव जीतने का मूल मंत्र रहा है। गुजरात से लेकर दिल्ली की सत्ता पर कब्जा ऐसे ही किया गया है।
मोदी ये ना करे तो क्या करे
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को