
उन्माद एक खतरनाक व नकारात्मक शब्द है। किसी भी प्रकार का (धार्मिक, नस्ल, राष्ट्र, जातीय) उन्माद देश समाज के लिए खतरनाक है। संघी/भाजपाई इस उन्माद को पूरे देश में फैलाने में दिन-रात लगे हुए हैं। उन्माद फैलाने में संघी हर रोज नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। इनका किसी एक प्रकार के उन्माद से काम नहीं चलता तो ये किसी दूसरे उन्माद का इस्तेमाल कर डालते हैं। संघी भारत में लम्बे समय से धार्मिक उन्माद फैला कर लोगों में भाईचारे को खत्म कर रहे हैं। लेकिन इनकी तमाम घृणित कोशिशां के बावजूद भी इंसाफ पसन्द जनता इनके नफरती एजेण्डे में फंसने को तैयार नहीं है। इसके बावजूद भी ये शांत नहीं रहते। तब जाकर ये पड़ोसी मुल्कों के खिलाफ अंधराष्ट्रवाद के नाम पर युद्ध उन्माद का माहौल बनाते हैं।
संघी सरकार ने पहलगाम की आतंकवादी घटना के बाद से ही देश में युद्ध उन्माद की स्थिति पैदा कर दी थी। ये सब राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किया गया। सवाल ये उठता है कि अगर सरकार को वास्तव में राष्ट्रीय सुरक्षा की इतनी ही चिंता है तो यह सुरक्षा में चूक क्यों हुई। आम जनता तो राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता करते हुए, सुरक्षा में हुई चूक के कारणों को सरकार से पूछेगी ही क्योंकि वह अपना नागरिक कर्तव्य निभाएगी। अगर जनता में से कोई भी नागरिक सरकार से इस तरह के सवाल करता है तो, उसे भी देश की सुरक्षा की चिंता है। जनता का सरकार से सवाल करना राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत क्यों आता है? क्यों मुकदमे लगाए जा रहे हैं? ऐसा नहीं है कि युद्ध उन्माद के दौरान ही सरकार ने रासुका के तहत मुकदमे लगाए। बल्कि सामान्य स्थिति के दौरान भी सामाजिक कार्यकर्ताओं व संघर्षशील लोगों पर और अनेकों पत्रकारों पर रासुका, देश द्रोह इत्यादि के तहत मुकदमे लगाए जाते रहे हैं, और हजारों बेगुनाह लोग जेलों की सजा काट रहे हैं।
क्या देश के कानून में सरकारों की नाकामी पर सवाल उठाना अपराध है? कानूनन ये अपराध नहीं है बल्कि हर किसी का अधिकार है पर आज जनता के जनवादी अधिकारों पर अंकुश लगाया जा रहा है। सवाल करने वाले नागरिकों को सरकार ऐसे दण्डित करती है जैसे इन्हीं लोगों ने अपराधों को अंजाम दिया हो।
सरकार व पूंजीपति वर्ग जनता के जनवादी अधिकारों को छीनकर उनके विरोध की आवाजों को कुचलकर सोचते हैं कि जनता दमन से शांत हो जायेगी। लेकिन जहां दमन है वहां प्रतिरोध है और ये प्रतिरोध दमन के साथ और बढ़ता जाता है। -एक पाठक