राहुल गांधी की खोज: एक उदारवादी मरीचिका

(पिछले दिनों लोक सभा चुनाव हुए। मोदी एक बार फिर से जोड़ तोड़ कर प्रधानमंत्री बन गये लेकिन साथ ही इन चुनावों के बाद राष्ट्रीय राजनीति में राहुल गांधी का कद थोड़ा बढ़ गया। वे विपक्ष के नेता बन गये। उनके द्वारा विपक्ष के नेता के बतौर दिये गये भाषण के बाद तो वाम उदारवादी उन पर फ़िदा ही हो गये। राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें भावी प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाने लगा है।

राहुल गांधी के रूप में एक राष्ट्रीय नेता के बतौर खोज पर नागरिक में पिछले साल एक लेख छपा था। यह लेख आज लोक सभा चुनाव के बाद मौजूं है।)

किसी जमाने में राहुल गांधी के परनाना जवाहर लाल नेहरू ने एक किताब लिखी थी- भारत की खोज (डिस्कवरी आफ इण्डिया)। इस किताब में उन्होंने उस भारत की खोज की थी जो मौजूद तो हजारों सालों से था पर जिसे नेहरू जानते नहीं थे। नेहरू को लगता था कि उन्हीं की तरह देश के और लोग भी भारत से अनजान थे। भारत की खोज उनके स्वयं के लिए तो थी ही साथ ही अन्य देशवासियों के लिए भी थी। यह दिलचस्प है कि इस किताब के प्रकाशित होने पर इसकी समीक्षा करते हुए डी डी कौशाम्बी ने टिप्पणी की थी कि किताब यह दिखाती है कि भारत का पूंजीपति वर्ग अब प्रौढ़ हो गया है- इतना प्रौढ़ कि अपने लिए एक भारत खोज सकता है।

आज कल भारत के उदारवादियों ने एक नयी खोज की है। यह है राहुल गांधी की खोज। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी मौजूद नहीं थे। वे भारत की राजनीति में पिछले बीस साल से हैं और पन्द्रह साल से तो कांग्रेस पार्टी के नेताओं में। पर उदारवादियों को अब राहुल गांधी दीख रहे हैं। या वे एक नयी नजर से राहुल गांधी को देख रहे हैं।

राहुल गांधी को खोजकर देश के उदारवादी प्रौढ़ हो जाने का परिचय नहीं दे रहे हैं। इसके उलट वे सठिया जाने का परिचय दे रहे हैं। वे राहुल गांधी में वह खोज रहे हैं जो राहुल गांधी में नहीं है। वे राहुल गांधी में उन आकांक्षाओं को आरोपित कर रहे हैं जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं।

कुछ उदारवादी और वाम-उदारवादी तो और आगे गये हैं। वे राहुल गांधी में उसी तरह का नायक देख रहे हैं जिस तरह का नायक हिन्दू फासीवादी मोदी में देखते हैं। वे राहुल गांधी की व्यक्ति पूजा में लग रहे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि पूंजीवादी राजनीति के दायरों में पिछले साल भर में राहुल गांधी की छवि काफी बदली है। उन्हें ‘पप्पू’ या अगंभीर अथवा अनिच्छुक राजनीतिज्ञ के रूप में पेश करने में हिन्दू फासीवादियों को अब मुश्किल आ रही है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी की इस छवि परिवर्तन में कांग्रेस पार्टी तथा उसके द्वारा नियुक्त छवि-निर्माण कंपनियों की काफी भूमिका है। इस मामले में वे अब किसी हद तक हिन्दू फासीवादियों को चुनौती देने लगे हैं।

पर जैसा कि कांग्रेसी या कुछ वाम-उदारवादी कहते हैं राहुल गांधी की सार्वजनिक छवि में तो परिवर्तन हुआ है पर स्वयं राहुल गांधी में नहीं। वे और उनकी सोच वही है। यदि ऐसा है तो उदारवादियों द्वारा राहुल गांधी की खोज में परिवर्तन स्वयं उदारवादियों में हुआ है। उनकी नजर बदली है। वे एक नयी नजर से राहुल गांधी को देख रहे हैं।

ऐसे में इन सबका भारत की पूंजीवादी राजनीति के लिए तथा हिन्दू फासीवादियों के लिए क्या मतलब निकलता है? इन पर क्या असर पड़ेगा?

देश के तमाम उदारवादी 2009 तक मोटा-मोटी कांग्रेस पार्टी के साथ थे। 2008 में कांग्रेस ने जिस तरह अमरीकी साम्राज्यवादियों से सटने के लिए (परमाणु समझौते के तहत) सरकारी वामपंथियों से नाता तोड़ लिया था, उससे वे बेहद खुश थे। उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस सरकार उदारीकरण-वैश्वीकरण की ओर तेजी से बढ़ेगी। वह मजदूरों-किसानों पर हमले तेज करेगी। नक्सलवाद-माओवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित कर कांग्रेस सरकार ने इस ओर बढ़ने का संकेत भी दिया था। तब गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने कहा था कि उनका सपना है कि देश की नब्बे प्रतिशत आबादी शहरों में रहे। इसी भावना और चाहत के तहत 2009 के लोकसभा चुनावों में पूंजीपति वर्ग ने कांग्रेस पार्टी को भरपूर समर्थन दिया। चंदे का पचास प्रतिशत उन्होंने कांग्रेस पार्टी को दिया। यह आज उनके द्वारा भाजपा को दिये जा रहे नब्बे-पिंचानवे प्रतिशत चंदे से काफी कम है तब भी उनकी पहली पसंद साफ थी।

पर पूंजीपति वर्ग और उदारवादी दोनों 2009 के बाद निराश हुए। कांग्रेस सरकार मजदूर-मेहनतकश जनता पर हमले के लिए उस तरह आगे नहीं बढ़ी जैसा वे चाहते थे। इसके बदले वह हिचक गई। उसकी इस हिचक को ही उन्होंने ‘पालिसी परालिसिस’ अथवा ‘नीति लकवाग्रस्तता’ का नाम दिया और इसके लिए उसे कोसने लगे।

कोढ़ में खाज यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर गई। मजे की बात यह है कि जिन मामलों में ये आरोप लगे वे 2009 के पहले के थे- 2 जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाला। और ये मामले भी वैसी ही नीति के थे जैसा कि पूंजीपति वर्ग चाहता था। बाद में न्यायालयों ने इन मामलों में भ्रष्टाचार से इंकार कर दिया और कहा कि वे नीतिगत फैसले थे जिसको लेने का सरकार को अधिकार था।

यह अजीब था कि उदारवादी कांग्रेस पार्टी पर उसी तरह की नीतियों को लेकर हमला कर रहे थे जैसी नीतियां वे दरअसल चाहते थे। वे असल में कांग्रेस पार्टी से इतना असंतुष्ट हो गये थे कि अपने ही व्यवहार की असंगतता को देखने से इंकार कर रहे थे।

इन उदारवादियों में से तब कुछ ने संघी नरेन्द्र मोदी का यह सोचकर समर्थन किया कि वे अपने हिन्दू साम्प्रदायिक अतीत से मुक्ति पाकर उदारीकरण-वैश्वीकरण को तेजी से आगे बढ़ाने वाली नीतियां बनाएंगे। मोदी ने इसके लिए अपनी एक छवि गढ़ भी ली थी। लेकिन यदि उदारवादी मोदी के झांसे में आये तो इसलिए कि वे आना चाहते थे। अन्यथा तो यह साफ था कि मोदी संघी कार्यकर्ताओं के लिए ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ थे। और संघ ने इसी रूप में उन्हें समर्थन दिया था।

अब इस सबके करीब दस साल गुजर जाने के बाद उदारवादी खुद को और देश को कहां पा रहे हैं? वे पा रहे हैं कि देश भयंकर विग्रह और तनाव से गुजर रहा है। हिन्दू फासीवादियों ने समाज पर अपनी पकड़ बनाने के लिए समाज में मौजूद हर दरार को चौड़ा किया है तथा देश को मणिपुर जैसे हालात के कगार पर पहुंचा दिया है। दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग पर सरकारी दौलत लुटाने के अलावा उन्होंने नीतियों के स्तर पर ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे उदारवादी आश्वस्त हो सकें। कृषि कानून वापस ले लिए गये हैं, श्रम संहिताएं बीच में अटकी हैं तथा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां अभी भी सरकार के पास ही हैं। इसी के साथ मोदी स्वयं ‘रेवड़ी बांटने’ में लगे हुए हैं। उदारवादियों के लिए अब एक बार फिर ‘पालिसी परालिसिस’ है। यहां कोढ़ में नया खाज है। अरुण शौरी के शब्दों में मोदी सरकार ‘कांग्रेस प्लस काऊ’ है यानी हिन्दू साम्प्रदायिकता से लैस कांग्रेस जैसी ही सरकार।

अब हिन्दू फासीवादियों से निराश होकर (क्योंकि हिन्दू फासीवादी मोदी-शाह ने अपना रूपान्तरण नहीं किया) तथा किसी हद तक उनसे पिट कर उदारवादी कांग्रेस या राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की ओर वापस लौट रहे हैं। वे राहुल गांधी की खोज कर रहे हैं और उनमें अपनी उम्मीदें भर रहे हैं।

पर राहुल गांधी की कांग्रेस क्या उन उम्मीदों को पूरा कर सकती है जो उदारवादी और वाम-उदारवादी उससे पाल रहे हैं।

इसमें सबसे पहली बात तो यही है कि कोई भी पार्टी उदारवादियों और वाम-उदारवादियों दोनों की उम्मीदों को एक साथ पूरा नहीं कर सकती। राहुल गांधी अपने बायें योगेन्द्र यादव तथा दायें तवलीन सिंह को बैठाकर नहीं चल सकते। वे एक साथ रेवड़ी बांटने तथा रेवड़ी छीनने का काम नहीं कर सकते। यानी उदारवादियों और वाम-उदारवादियों दोनों में से एक को निराश होना पड़ेगा। ज्यादा संभावना है कि दोनों निराश हो जायें। इसके वाजिब कारण हैं।

कांग्रेस पार्टी स्वयं इस तरह के परस्पर विरोधी तत्वों का जमावड़ा है। इसमें रेवड़ी बांटने और छीनने वाले दोनों हैं। इसमें जयराम रमेश हैं तो पी चिदम्बरम भी। इसमें भगवा पटका लटकाये कमलनाथ हैं तो भूतपूर्व ‘कम्युनिस्ट’ कन्हैया कुमार भी। इससे भी आगे यह बात कि राहुल गांधी स्वयं इन दोनों से लबरेज हैं।

यह अचरज की बात नहीं है कि जनकल्याण की सारी बात करते हुए भी राहुल गांधी समेत कोई भी कांग्रेसी नेता यह नहीं कहता कि देश की मजदूर-मेहनतकश जनता की दुर्दशा का कारण उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां हैं। इसके उलट वे गाहे-बगाहे इन नीतियों की वकालत करते हुए पाये जा सकते हैं। अक्सर यह कहा जाता है कि उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के कारण देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर बहुत तेज हो गई है तथा भारी मात्रा में लोग भुखमरी की रेखा से ऊपर आ गये हैं। इसका स्वाभाविक निष्कर्ष निकलता है कि देश और देश की जनता के हित में यही है कि इन नीतियों को और आगे बढ़ाया जाये।

कांग्रेसियों की इन बातों में और उनकी दूसरी नीतियों में कोई सामंजस्य नहीं है। यदि लोगों की हालत इतनी ही बेहतर हो रही थी तो मनरेगा की जरूरत क्या थी? यदि लोग भुखमरी की रेखा से ऊपर आ रहे थे तो खाद्य सुरक्षा कानून की जरूरत क्या थी?

कांग्रेस पार्टी की यह स्थिति उसे बेहद घटिया स्तर के फर्जीबाड़े तक ढकेल देती है। चुनावों में कांग्रेस पार्टी कोई लुभावना वायदा करती है पर जरा बारीकी से देखने पर पता चलता है कि कहानी असल में कुछ और है। पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अपनी ‘न्याय’ योजना को भारी शोर-शराबे के साथ प्रस्तावित किया था। कहा गया कि इसके तहत हर परिवार की सालाना 72 हजार रुपया अथवा मासिक छः हजार रुपया आय सुनिश्चित की जायेगी। इससे ऊपरी तौर पर यह संदेश गया कि सरकार हर परिवार को हर महीना छः हजार रुपया देगी। पर ऐसा नहीं था। सरकार बस छः हजार रुपया महीना पाने की भरपाई करती। यानी यदि कोई परिवार स्वयं पांच हजार रुपया कमा ले रहा होता तो सरकार बस उसे एक हजार रुपया देती। यह कुछ उसी तरह का वायदा था जैसा कि मोदी ने 2013 में वायदा किया था- सालाना दो करोड़ रोजगार देने का। बाद में पता चला कि इसमें ‘पकौड़ा रोजगार’ भी शामिल था।

हाल के समय में कांग्रेस पार्टी ने प्रदेश चुनावों में जो वायदे किये तथा व्यवहार में जो किया उसमें भी इसे देखा जा सकता है। भाजपा सरकार पर लगातार सरकारी भर्तियां न करने का आरोप लगाने वाली पार्टी की प्रदेश सरकारें स्वयं भर्तियां नहीं कर रही हैं। सरकारी योजनाओं का वहां भी वैसा ही बुरा हाल है जैसा कि भाजपा शासित प्रदेशों में।

जहां तक सामाजिक मुद्दों का सवाल है, कांग्रेस की प्रदेश सरकारों का रिकार्ड कोई अच्छा नहीं है। वहां भी जनवादी अधिकारों को कुचला जा रहा है। स्वयं कांग्रेसी सरकारें हिन्दूवादी चीजों को आगे बढ़ाने में लगी हुई हैं।

कोई कह सकता है कि इस सबमें राहुल गांधी की कोई भूमिका नहीं है। वे कांग्रेसी नेताओं के आगे बेबस हैं। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। स्वयं को जनेऊधारी हिन्दू कहना तथा मंदिरों की दौड़ लगाना स्वयं राहुल गांधी ही कर रहे हैं। उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों पर चुप्पी साधना या प्रकारान्तर से उसे जायज ठहराना राहुल गांधी ही कर रहे हैं। ऐसे में राहुल गांधी के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि वे आस्थावान हिन्दू उदारवादी हैं। पर इस तरह के आस्थावान हिन्दू उदारवादी का आज हिन्दू फासीवादियों के सामने क्या भविष्य है?

हिन्दू फासीवादियों को खाद-पानी उस भौतिक जमीन से मिल रहा है जो भारत के पूंजीवाद के गहरे संकट का परिणाम है। इसमें मजदूर-मेहनतकश जनता का जीवन बद से बदतर होता जा रहा है। इसी से उपजी निराशा-पस्तहिम्मती और गुस्से को हिन्दू फासीवादी भुना रहे हैं। वे समाज के एक हिस्से को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। इसका मुकाबला ‘नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान’ खोल कर नहीं किया जा सकता। ऐसी दुकान बहुत जल्दी बंद हो जायेगी।

दूरगामी तौर पर इसका मुकाबला पूंजीवादी दायरे में एक बड़े स्तर के ‘कल्याणकारी राज्य’ की स्थापना से तथा तात्कालिक तौर पर सीधे हिन्दू फासीवादियों से टकराने से ही किया जा सकता है। आस्थावान हिन्दू उदारवादी यह दोनों नहीं कर सकते। ये उदारीकरण-वैश्वीकरण के समर्थक हैं और इसीलिए किसी व्यापक ‘कल्याणकारी राज्य’ के विरोधी। ये भी आम जनता को बस भीख देने तक सीमित रहेंगे। रही हिन्दू साम्प्रदायिकता की बात तो आस्थावान हमेशा ही या तो दंगाईयों के सामने समर्पण कर देते हैं या उनके पीछे हो लेते हैं। इसे आजकल सभ्य भाषा में ‘नरम हिन्दुत्व’ कहा जाता है।

इस तरह स्पष्ट है कि न तो उदारवादियों का आज के तनावपूर्ण समय में भविष्य है और न ही उनकी नई खोज राहुल गांधी का। इसलिए यदि कांग्रेसी चुनावी जोड़-तोड़ में सफल भी हो जाते हैं तो उससे हिन्दू फासीवादियों का रथ नहीं रुक जायेगा। उसे रोकने वाली शक्ति कोई और है जिसे उदारवादी अपना दुश्मन मानते हैं और उस पर उसी तरह हमला करते हैं जैसे हिन्दू फासीवादी।

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