युद्ध के काल में परमाणु हथियार विरोधी संगठन को नोबेल देने की राजनीति

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इस वर्ष का शांति का नोबेल जापान परमाणु निरस्त्रीकरण की वकालत करने वाले संगठन निहोन हिंडाक्यो को दिया गया है। यह संगठन जापान के हिरोशिमा-नागासाकी के परमाणु बम विस्फोट में जिन्दा बचे लोगों द्वारा बनाया गया था। इस संगठन का घोषित लक्ष्य परमाणु युद्ध रोकना, परमाणु हथियार खत्म करना, परमाणु हथियार के शिकार लोगों की चिकित्सा देखभाल करना, बताया गया है। 
    
हिंडाक्यो की स्थापना 1956 में ब्रावो हाइड्रोजन-बम (जो हिरोशिमा बम से 1000 गुना शक्तिशाली था) के निर्माण के बाद हुई थी। 70 वर्ष पूर्व इसका परीक्षण अमेरिका ने बिकनी एटोल द्वीप पर किया था। इसके शिकार जापानी मछुआरे व मार्शल द्वीपवासी बड़े पैमाने पर हुए थे। 
    
दुनिया भर में इस संगठन को नोबेल देने की तारीफें हो रही हैं और कहा जा रहा है कि इससे युद्धों को आगे बढ़ने से रोकने व परमाणु हथियारों की होड़ रोकने में मदद मिलेगी। इससे शांति स्थापना में मदद मिलेगी। 
    
दरअसल इस वर्ष इस संस्था को नोबेल देने के पीछे पश्चिमी साम्राज्यवादियों के ही हित छिपे हुए हैं। पहला तो मौजूदा रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिकी  साम्राज्यवादियों की हरकतों के जवाब में रूसी साम्राज्यवादी बार-बार परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी दे रहे हैं। ऐसे में इस कदम के जरिये पश्चिमी साम्राज्यवादी खुद को शांति समर्थक व रूस को युद्धोन्मादी दिखलाना चाहते हैं। कुछ ऐसा ही प्रचार वो ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ भी करना चाहते हैं। 
    
दूसरा मौजूदा वक्त में जब साम्राज्यवादी अंतरविरोध तीखे होते जा रहे हैं। तब इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि तमाम विकासशील देश इन अंतरविरोधों का लाभ उठा खुद को परमाणु शक्ति सम्पन्न बना लें। अमेरिकी साम्राज्यवादी इस संभावना को कमजोर करना व ऐसे देशों पर दबाव बनाये रखना चाहते हैं। मौजूदा पुरुस्कार इस काम में उनकी मदद करेगा। 
    
तीसरा एक ऐसे वक्त में जब दुनिया में युद्धों की संभावनायें बढ़ रही हैं तब एक परमाणु युद्ध विरोधी संस्था को नोबेल दे साम्राज्यवादी जनमानस में ये भ्रम पैदा करना चाहते हैं कि ऐसी संस्थाओं के दम पर युद्ध रोके जो सकते हैं। कि मौजूदा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया में ही शांति स्थापित की जा सकती है। 
    
साम्राज्यवादी इस सबके जरिये यह सच्चाई दुनिया से छिपा लेना चाहते हैं कि साम्राज्यवाद का अर्थ ही है युद्ध। कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांति की लाख बातों के बावजूद युद्ध कभी नहीं रुके। कि युद्धों को रोकने के लिए साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था का अंत जरूरी है। कि आज परमाणु हथियारों के सबसे बड़े जखीरे के मालिक अमेरिकी साम्राज्यवादी ही हैं और उनके इन हथियारों को खत्म किये बिना परमाणु निरस्त्रीकरण संभव नहीं है। कि स्थायी शांति के लिए जरूरी है कि जनता साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध छेड़ दे। 
    
मौजूदा पुरस्कार के जरिये पश्चिमी साम्राज्यवादी अपने कुकर्मों से पैदा हुए युद्धों के माहौल में शांति के स्वरों को भी अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहते हैं। यही इस पुरस्कार की राजनीति है। 

 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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