पिछले वर्षों में चीन दुनिया की एक बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति बन चुका है। यह दुनिया के ऊपर अपना एक दबदबा कायम कर चुका है और इसको और बढ़ाने के लिए यह प्रयासरत है। आज मुख्यतया आर्थिक तौर-तरीकों के द्वारा ही यह अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि राजनीतिक, सामरिक और सांस्कृतिक औजारों का इस्तेमाल यह नहीं कर रहा है। अन्य साम्राज्यवादियों की भांति चीनी साम्राज्यवादी हर संभव तरीके से शेष दुनिया पर अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं।
वर्चस्व के सांस्कृतिक तौर-तरीकों का साम्राज्यवादियों (और पिछड़े पूंजीवादी देशों द्वारा भी) द्वारा इस्तेमाल के संबंध में बाकायदा ‘साफ्ट पॉवर’ नाम से एक नया शब्द प्रचलन में आ गया है। पूंजीवादी दायरे में साफ्ट पावर को एक ऐसा तरीका बताया जाता है जिसके द्वारा लोगों से या देशों से बगैर सामरिक ताकत या दबाव इस्तेमाल किए अपने वांछित लक्ष्य को हासिल किया जा सके। इसके बरक्स जब सामरिक ताकत या दबाव का इस्तेमाल किया जाता है तो इसे हार्ड पावर कहा जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका हार्ड पावर और साफ्ट पावर दोनों के मामले में सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी ताकत है। चीन हार्ड पावर के साथ-साथ साफ्ट पावर के मामले में भी अमेरिका के नजदीक पहुंचने की कोशिश कर रहा है। साफ्ट पावर के मामले में अपनी स्थिति बेहतर करने के लिए यह पश्चिमी साम्राज्यवादियों से सीखने की भी कोशिश कर रहा है।
चीन की साफ्ट पावर रणनीति में सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सार्वजनिक कूटनीति और सोशल मीडिया के माध्यम से किया जाने वाला प्रचार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
चीन अपने बारे में एक विशेष किस्म की समझ तैयार करने के लिए, अपने संपर्क स्थापित करने के लिए और अपने वैश्विक प्रभाव को बढ़ाने के लिए अपने सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और सामाजिक प्रगति को एक विशेष खांचे में सजा कर प्रस्तुत करता है। दुनिया भर में फैले कन्फ्यूशियस इंस्टीच्यूट का इसके लिए इस्तेमाल किया जाता है। चीनी सरकार इन संस्थानों पर प्रति वर्ष कुल 10 अरब डालर खर्च करती है। सभी मध्य और पूर्वी यूरोप के देश में कम से कम एक कन्फ्यूशियस इंस्टीच्यूट अवश्य ही है। सबसे ज्यादा कन्फ्यूशियस इंस्टीच्यूट संयुक्त राज्य अमेरिका में हैं। दुनिया में कुल 550 इंस्टीच्यूट में से 100 यहीं पर स्थित हैं।
चीनी सरकार अपनी आलोचनाओं को त्वरित तरीके से संबोधित करने के लिए, अपने से संबंधित चर्चाओं को खास शक्ल देने के लिए और अपने बारे में नकारात्मक प्रचार को निष्प्रभावी करने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स (पूर्व में ट्विटर) का काफी इस्तेमाल करती है। चीनी राजनयिक जितना मुखर और आक्रामक तरीके से एक्स पर कूटनीति करते हैं, इससे इसे ‘भेड़िया योद्धा’ कूटनीति कहा जाता है।
एक्स, फेसबुक और वीबो के माध्यम से चीन अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों से अंतर्क्रिया करता है ताकि धारणाओं को गढ़ सके, सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ा सके और अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि चमका सके। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी वैश्विक पैमाने पर प्रगति और विकास के संबंध में अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने के लिए काफी योजनाबद्ध तरीके से इन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का इस्तेमाल करती है। सार्वजनिक चर्चाओं को प्रभावित करने के लिए यह इन प्लेटफार्मों पर फर्जी नामों से खाते भी चलाती है।
चीन साफ्ट पावर के इस्तेमाल में इस हद तक कुशलता को हासिल कर चुका है कि साफ्ट पावर का मूल्यांकन करने वाले एक संस्थान ने अमेरिका और यू के के बाद चीन को दुनिया का सबसे बड़ा साफ्ट पावर करार दिया है।
साम्राज्यवादियों के सभी औजार मजदूर मेहनतकश जनता के नफरत के पात्र हैं।
चीन का सॉफ्ट पावर
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को