नाभिकीय हथियारों के बढ़ते जखीरे के बीच शांति पाठ

    27 मई को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ‘हिरोशिमा’ के शांति स्मारक पार्क जायेंगे। हिरोशिमा व ‘शांति स्मारक पार्क’ की यात्रा करने वाले वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बन जायेंगे। <br />
    ओबामा से पहले के 11 राष्ट्रपतियों ने कभी हिरोशिमा जाने की जहमत नहीं उठाई क्योंकि हिरोशिमा अमेरिकी साम्राज्यवाद के बर्बर इतिहास का एक जिंदा सुबूत है।<br />
    आज से लगभग 71 वर्ष पूर्व 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा शहर पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिराया था। इनोला गे नाम के B-29 बमवर्षक विमान द्वारा हिरोशिमा पर गिराये गये इस बम (लिटिल बॉय) द्वारा लगभग 70,000 से 1,40,000 लोग मारे गये। मारे गये लोगों में 20,000 सिपाही थे बाकी सभी नागरिक थे। इसके तीन दिन बाद नागाशाकी पर अपेक्षाकृत बड़ा बम गिराया गया जिसे ‘फैट बॉय’ नाम दिया गया। नागाशाकी में 39,000 से 80,000 लोग मारे गये थे। <br />
    जापान के इन दो शहरों में बम बरसाकर अमेरिका द्वारा 1,29,000 से लेकर 2,46,000 लोगों की नृशंस व निर्मम हत्या कर दी गयी। मृतकों में आधे लोग बम गिराये जाने के पहले दिन में मर गये। आधे एक माह के भीतर विभिन्न बीमारियों, विकिरण व हताहत होने के कारण अत्यंत कष्टकर तरीके से मारे गये। <br />
    तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन द्वारा ब्रिटेन की सहमति से जापान को हथियार डालने के लिए मजबूर करने के बहाने से ये दो बम गिराये गये। लेकिन यह बात बनावटी थी। द्वितीय विश्व युद्ध में 1945 तक आते-आते जापानी सेना के पांव उखड़ने लगे थे। जापान का सहयोगी जर्मनी पहले ही जून 1945 को समर्पण कर चुका था। ध्रुवीय देशों (जर्मनी, जापान-इटली) का मोर्चा बेहद कमजोर हो चुका था और मित्र राष्ट्र (सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस व अमेरिका) का मोर्चा विजयी हो रहा था। चीनी जनमुक्ति सेना लगातार जापान को पीछे धकेल रही थी। ऐसे में जब जापान की पराजय निकट थी तो अमेरिका द्वारा जापान पर बम गिराना महज अपनी ताकत का प्रदर्शन व पूर्वी मोर्चे पर युद्ध के परिणामों को अपने पक्ष में मोड़ना था। अर्थात् अमेरिका नहीं चाहता था कि जापानी चीनी मुक्ति सेना या सोवियत लाल सेना के सामने समर्पण करें और समाजवाद के प्रभाव क्षेत्र को विस्तार मिले। हिरोशिमा व नागाशाकी पर बम गिराना अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व को स्थापित करने की ट्रूमैन की आकांक्षा का हिस्सा था। <br />
    बहरहाल अमेरिकी राष्ट्रपति शांति के मसीहा का स्वांग रचते हुए हिरोशिमा जा रहे हैं। शांति का नोबेल पुरुस्कार तो उनके गले में पहले से लटका हुआ है। वे जब तब शांति व सद्भावना के उपदेश देते रहते हैं। दीगर बात है कि शांति के उपदेशों के बीच अमेरिकी साम्राज्यवाद का खूनी कब्जाकारी अभियान, आक्रमण व हस्तक्षेप की कार्यवाहियां जारी रहती हैं। <br />
    ओबामा की हिरोशिमा के ‘शांति स्मारक पार्क’ की यात्रा का शांति से कितना सम्बन्ध है इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ओबामा की यात्रा से पूर्व अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने बयान देकर स्पष्ट कर दिया कि ओबामा 71 वर्ष पूर्व राष्ट्रपति ट्रूमैन द्वारा हिरोशिमा-नागाशाकी पर बम गिराने के फैसले पर कोई पुनर्विचार नहीं करेंगे अथवा कोई अफसोस या गलती जाहिर नहीं करेंगे। खुद ओबामा ने भी बयान दे दिया कि हिरोशिमा के मामले में माफी मांगने का कोई सवाल ही नहीं। आगे उन्होंने कहा कि यह इतिहासकारों का काम है कि वे ऐसे मुद्दों पर सवाल करें और निर्णय दें। लेकिन इस स्थिति (राष्ट्रपति की कुर्सी) पर बैठने के साढ़े सात साल बाद मुझे यह महसूस होता है कि युद्ध के दौरान नेताओं को बहुत कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं।’’<br />
    जाहिर है कि ओबामा साम्राज्यवादी अमेरिका की साम्राज्यवादी नीति पर कोई सवाल नहीं खड़ा होने देना चाहते हैं। वे वर्तमान दौर में खुद को अमेरिकी साम्राज्यवाद के योग्य प्रतिनिधि साबित करना चाहते हैं। <br />
    ओबामा हिरोशिमा यात्रा से पहले 22 मई को वियतनाम पहुंचे। कभी लंबे समय तक वियतनाम में युद्ध लड़ने के बाद आज वियतनाम अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण हो गया है। वियतनाम यात्रा का मकसद दक्षिण चीन सागर में चीन के खिलाफ एक रणनीतिक संश्रय कायम करना था। अभी हाल में ही जापान, वियतनाम व दक्षिण कोरिया के साथ मिलकर अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर में साझा युद्धाभ्यास किया था। बाद में इस युद्धाभ्यास में चीन भी शामिल हो गया था। इस साझे युद्धाभ्यास का मकसद अत्याधुनिक व अत्यधिक मारक हथियारों का प्रदर्शन कर दक्षिण चीन सागर में वर्चस्व की दावेदारी करना था। और एक तरीके से यह युद्धाभ्यास चीन को ही लक्षित था। <br />
    ओबामा की वियतनाम के बाद जापान की यात्रा दरअसल दक्षिण चीन सागर में अपने इस रणनीतिक संश्रय को आगे बढ़ाने की नीति का ही हिस्सा है। वैसे जापान में वे जी-7 की बैठक में हिस्सा लेने जा रहे हैं। <br />
   साम्राज्यवादियों के लिए ‘शांति’ भी  एक रणनीति का हिस्सा होती है। साम्राज्यवादियों का शांति का राग न केवल पाखंड होता है बल्कि उनके शांति के राग में भी भावी युद्ध व विनाश के बीज छिपे होते हैं। हिरोशिमा में शांति का प्रलाप और साथ में दक्षिण चीन सागर में कलह और तनाव को बढ़ाने का काम ओबामा एक साथ कर रहे हैं। <br />
    ओबामा की हिरोशिमा के ‘शांति स्मारक पार्क’ की यात्रा अपने आप में कितनी पाखंडपूर्ण है इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि 2009 में प्राग में ‘नाभिकीय हथियारों से मुक्त दुनिया’ का नारा देने तथा रूस के साथ 2010 में नाभिकीय हथियारों में कमी लाने हेतु न्यू स्टार्ट (न्यू स्ट्रेटेजिक आर्म रिडक्शन ट्रीटी) संधि करने, नाभिकीय सुरक्षा हेतु शिखर सम्मेलन करने के बावजूद अमेरिका द्वारा लगातार महाविनाशक हथियारों का उत्पादन जारी रहा है। <br />
    अमेरिका द्वारा अपने नाभिकीय हथियारों को नवीनीकृत करने, उनकी लक्ष्य भेदन क्षमता बढ़ाने और उनकी विस्फोटक व मारक क्षमता बढ़ाने के प्रयास जारी हैं। <br />
    अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने अगले 5 वर्ष के लिए जिन हथियारों के विकास के लिए बजट का प्रावधान किया है उसमें हवा में मार करने वाली नई क्रूज मिसाइल हैं जो नाभिकीय आयुध ले जाने में सक्षम होंगी। इसके अलावा नई ओहियो श्रेणी की पनडुब्बियां व लंबी दूरी के बमबर्षकों का विकास किया जा रहा है। <br />
    अमेरिकी सरकार के बजट सम्बन्धी खबरों के अनुसार नाभिकीय अस्त्रों को विकसित (अपग्रेड) करने तथा उनके रख रखाव में अगले एक दशक में लगभग 348 अरब डालर खर्च होंगे जोकि मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका सहित तीसरी दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था (डेनमार्क जैसे साम्राज्यवादी देश की अर्थव्यवस्था) से अधिक है। अथवा यह राशि दुनिया के 30 देशों के बाद सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगी। <br />
    ओबामा प्रशासन द्वारा अगले तीन दशकों में नाभिकीय अस्त्रों के आधुनिकीकरण हेतु 10 खरब डालर(1 ट्रिलियन डॉलर) के बजट की योजना है। <br />
    ऐसे में अमेरिका द्वारा लगातार नाभिकीय हथियारों के उत्पादन व विकास के चलते पूरी दुनिया में नाभिकीय हथियारों की प्रतिस्पर्धा तेज हो रही है। रूस अपने बजट का एक तिहाई हिस्सा नाभिकीय हथियारों के आधुनिकीकरण पर खर्च कर रहा है। ब्रिटेन अपनी ट्राइडेंट नाभिकीय मिसाइलों से युक्त पनडुब्बियों को और अधिक उन्नत प्रणाली की मिसाइलों से प्रतिस्थापित करने के लिए 25 अरब पौंड खर्च कर रहा है। भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया जैसे देश भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहते हैं। <br />
    भारतीय शासक भी अमेरिका की देखा देखी विश्व शांति का राग अलापते हुए नाभिकीय हथियारों की दौड़ में लगातार शामिल रहे हैं। भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू 60 वर्ष पहले 1957 में हिरोशिमा जाकर परमाणु बम विस्फोट के बाद बच गये लोगों (हिबाकुशा) से जाकर मुलाकात करने वाले पहले विदेशी शासनाध्यक्ष थे। प्रधानमंत्री नेहरू ने उस समय ‘हिरोशिमा शांति स्मारक’ पर वहां की जनता को संबोधित करते हुए कहा था कि मनुष्यता के पास चुनने के लिए दो ही रास्ते हैं, एक हिंसा का जिसका प्रतीक परमाणु बम है और दूसरा रास्ता अहिंसा का है जिसके प्रतीक ‘बुद्ध’ हैं। <br />
    इसे बिडम्बना कहें कि त्रासदी कि नेहरू ने खुद भारत में परमाणु अनुसंधान को आगे बढ़ाया और नेहरू की हिरोशिमा यात्रा के 17 साल बाद 1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट किया गया और इस अभियान का कूट नाम रखा गया ‘बुद्ध मुस्करा रहे हैं’ (Buddha Smiling)। नेहरू की हिरोशिमा यात्रा के 47 साल बाद 1998 में वाजपेयी सरकार द्वारा जब दूसरा परमाणु विस्फोट (पोखरण-II) किया गया तो उसके लिए उसने बुद्ध जयंती का दिन चुना। <br />
    जाहिर है कि पूंजीवादी शासकों की शांति की बातें व उपदेश महज पाखंड हैं और दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी शासक ओबामा की शांति की बातें तो पाखंड ही नहीं धूर्तता की पराकाष्ठा है। सच यही है कि साम्राज्यवाद-पूंजीवाद का सम्पूर्ण नाश किए बगैर दुनिया में शांति नहीं कायम की जा सकती है और परमाणु खतरे को खत्म नहीं किया जा सकता है। 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।