जापान में सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ने फूमियो किशिदा की जगह शिगेरू इशिबा को पार्टी प्रमुख और नया प्रधानमंत्री चुन लिया है। इशिबा ने 1 अक्टूबर को प्रधानमंत्री पद संभाल लिया है। पूर्व प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा कई मामलों के चलते जनाक्रोश के साथ पार्टी के भीतर भी अलोकप्रिय हो रहे थे।
भ्रष्टाचार के मामले में किशिदा की लिप्तता उजागर होने से विपक्षी दल पहले से उन पर हमलावर थे। इसके अलावा बढ़ती महंगाई में मजदूरी न बढ़ने से वे मजदूर वर्ग का गुस्सा भी झेल रहे थे। इजरायली नरसंहार का समर्थन भी उन्हें जापानी मेहनतकशों के आक्रोश का निशाना बना रहा था। इन परिस्थितियों में सत्ताधारी पार्टी को प्रधानमंत्री बदल कर जनता को बरगलाना ही सबसे बेहतर रास्ता नजर आया। पार्टी के भीतर भी किशिदा लोकप्रियता खो रहे थे। लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपने नये नेता के रूप में जिस शिगेरु इशिबा का चुनाव किया वह घोषित तौर पर अधिक दक्षिणपंथी रुख वाले हैं। वे खुलेआम चीन के खतरे को बयां कर तीव्र सैन्यीकरण के समर्थक हैं। इस तरह जापानी अवाम को एक कहीं अधिक जन विरोधी नेता प्रधानमंत्री के रूप में मिल गया है।
इशिबा एक अति-राष्ट्रवादी संगठन निप्पान कैगी के भी सदस्य हैं जो न केवल तीव्र सैन्यीकरण की वकालत करता है बल्कि जनवादी अधिकारों को भी खत्म करने की मांग करता है। स्पष्ट है कि इशिबा के चुनाव के पीछे जापानी साम्राज्यवादियों का भी समर्थन रहा है जो जापान को तीव्र सैन्यीकरण की ओर ले जाना चाह रहे हैं। इशिबा पूर्ववर्ती सरकारों की तीव्र सैन्यीकरण न करने के लिए आलोचना करते हैं।
गौरतलब है कि द्वितीय विश्व युद्ध की भारी विभीषिका झेलने के बाद जापान ने उस वक्त के युद्ध विरोधी माहौल के चलते यह कानून बनाया था कि वो अपना सैन्यीकरण सीमित स्तर पर ही रखेगा। तब युद्ध की विजयी ताकतों का भी जापान पर सैन्यीकरण रोकने का दबाव था। बीते 2 दशकों से जापानी साम्राज्यवादी धीरे-धीरे इस कानून को धता बता सैन्यीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। अब इशिबा खुलेआम संविधान के इस सम्बन्धी अनुच्छेद 9 को ही खत्म करने के प्रवक्ता रहे हैं। इसके साथ ही वो एशिया स्तर के नाटो को संगठित करने की भी वकालत करते रहे हैं।
फिलहाल चीन के खिलाफ केन्द्रित जापानी सैन्यीकरण को अमेरिकी साम्राज्यवादियों का समर्थन मिला हुआ है। हालांकि अमेरिका जापान को अपनी छत्रछाया में ही सैन्यीकरण करने देना चाहता है। वह यह नहीं चाहता कि इस सैन्यीकरण के दम पर जापान उसको ही आंख दिखाने की हैसियत पा ले।
सत्ता संभालने के बाद नये प्रधानमंत्री ने जापानी संसद के निचले सदन को भंग कर 27 अक्टूबर को उसके नये चुनाव कराने की घोषणा कर दी है। फिलहाल इशिबा चीन का भय दिखाकर अपने सैन्यीकरण के वायदे पर चुनाव जीतना चाह रहे हैं।
दरअसल सैन्यीकरण के मसले पर जापान की सत्ताधारी पार्टी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी व विपक्षी पार्टी संवैधानिक डेमोक्रेटिक पार्टी में कोई फर्क नहीं है। दोनों ही दल सैन्यीकरण के समर्थक हैं पर जापानी जनता के दिलों से आज भी द्वितीय विश्व युद्ध की हिंसा व हिरोशिमा-नागासाकी की तबाही पूरी तरह मिटी नहीं है। इसीलिए शासकों को धीरे-धीरे ही सैन्यीकरण की ओर बढ़ना पड़ता रहा है। अब उन्हें आक्रामक होते चीनी साम्राज्यवादी बड़े बहाने के रूप में मिल गये हैं।
जहां तक मजदूर-मेहनतकश वर्गों की स्थिति की बात है तो जो भी दल जीतेगा वह पूंजीपति वर्ग के पक्ष में जनता पर हमला बोलने का ही काम करेगा।
दक्षिणपंथी इशिबा बने नये जापानी प्रधानमंत्री
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को