
भूतपूर्व संघी प्रचारक नरेन्द्र मोदी के दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने से लेकर अब तक संघ व उनके रिश्ते तथा संघ व भाजपा के रिश्ते पर लगातार चर्चा होती रही है। वैसे यह चर्चा तब से है जब से नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने।
औपचारिक तौर पर भाजपा संघ का एक आनुषांगिक संगठन मात्र है, ठीक वैसे ही जैसे उसके कई और आनुषांगिक संगठन हैं- एबीवीपी, बीएमएस, वीएचपी, इत्यादि। लेकिन वास्तव में भाजपा इन सबसे बहुत ऊपर है। इसका सीधा सा कारण यह है कि एक राजनीतिक पार्टी होने के चलते इसकी राज्यसत्ता तक सीधी पहुंच है। और जब यह पार्टी केन्द्र समेत कई प्रदेशों में सत्तारूढ़ हो तो इसकी विशाल ताकत बन जाती है।
जब 1998-2004 के काल में भाजपा सत्ता में रही तब भी संघ और भाजपा के रिश्ते का सवाल उठा था। अब 2014 से भी यह सवाल उठा हुआ है। दोनों काल में फर्क यह रहा कि पहले में भाजपा गठबंधन की सरकार में थी जबकि दूसरे में पूर्ण बहुमत से। साथ ही वाजपेयी और मोदी का भी फर्क है। वाजपेयी के समय में भाजपा आज की तरह दो नेताओं की पार्टी नहीं थी।
नरेन्द्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए स्वयं संघ को ही अपना आनुषांगिक संगठन बना लिया था। वहां संघ उन पर निर्भर तथा उनके अधीन था। शुरूआती दौर में इसका प्रतिरोध करने के बाद संघ ने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया था। इसके दो कारण थे। एक तो संघ मोदी का कुछ खास बिगाड़ नहीं सकता था। दूसरे मोदी संघ के एजेण्डे को ही आगे बढ़ा रहे थे। गुजरात हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बन चुका था।
जब मोदी दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुए तो उनके लिए स्पष्ट था कि संघ से रिश्ते के मामले में वे पूरे देश के पैमाने पर गुजरात मॉडल लागू नहीं कर सकते। पूरे देश के पैमाने पर मोदी की वह लोकप्रियता नहीं थी जो उनकी गुजरात में थी। भाजपा की भी पूरे देश के पैमाने पर वह पकड़ नहीं थी। कई प्रदेशों में तो भाजपा का नगण्य प्रभाव था। जहां भाजपा का ठीक-ठाक प्रभाव था वहां भी राजनीतिक समीकरण जटिल थे और थोड़े भी उलट-फेर से मोदी सत्ता गंवा सकते थे।
ऐसे में संघ परिवार की सम्मिलित ताकत ही, खासकर संघ के कार्यकर्ताओं की ताकत ही मोदी को सत्ता में बनाए रख सकती थी। केवल पूंजीपति वर्ग का पैसा और उसका प्रचार तंत्र मोदी की नैया पार नहीं लगा सकता था। संघ और मोदी दोनों ही इस सच्चाई से वाकिफ थे और यह उनके रिश्तों को तय कर रही थी।
यह रिश्ता मुख्यतः लेन-देन का था। अपने को राजा या दैवीय शक्ति मानने वाले मोदी को संघ परिवार की सांगठनिक ताकत चाहिए थी जिससे वह सत्ता में बने रह सकें। दूसरी ओर यह आत्ममुग्ध और सत्तालोलुप व्यक्ति कुल मिलाकर संघ के ‘हिन्दू राष्ट्र’ के एजेण्डे को ही आगे बढ़़ा रहा था। यह इसलिए भी कि मोदी स्वयं इसी विचारधारा में प्रशिक्षित हैं और उनकी सारी राजनीति, जहां तक उसका जन गोलबंदी से संबंध है, इसी पर टिकी है।
इस तरह दोनों एक-दूसरे के लिए काम के हैं। पर यह उनके बीच वर्चस्व की लड़ाई को समाप्त नहीं करता। बल्कि किसी हद तक बढ़ा भी देता है। पिछले दस सालों में इसकी झलक लगातार मिलती रही है। इसका सबसे मजेदार उदाहरण योगी आदित्यनाथ हैं। संघ के लिए बाहरी इस व्यक्ति को संघ ने एक मोहरे की तरह उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ाया हुआ है और मोदी अभी तक इस मोहरे को पीट नहीं सके हैं।
वर्तमान चुनाव में मोदी के पराभव ने संघ को वर्चस्व की लड़ाई में कुछ मजबूती प्रदान की है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मोदी के इस पराभव से बड़े पूंजीपति वर्ग तथा मोदी-शाह के अलावा सारे खुश हैं। संघ इस स्थिति का फायदा उठाकर अपनी खोई हुई स्थिति को फिर हासिल करने का प्रयास करेगा। ऐसा तो नहीं होगा कि वह मोदी पर अपना अनुशासन थोप देगा पर वह भांति-भांति से उन्हें घेरने का प्रयास करेगा। वह किसी हद तक वाजपेयी काल वाली स्थिति को हासिल करने का प्रयास करेगा।
आने वाले दिनों में मोदी और संघ के बीच यह खींचतान केन्द्र की गठबंधन सरकार के समीकरणों को और जटिल बनायेगी।