आपका नजरिया - अम्बेडकरवादी संगठनों का हश्र

14 अप्रैल को अम्बेडकर जयंती कार्यक्रम में दो जगह पर मैं शामिल हुआ। पिछले साल भी 14 अप्रैल को दो कार्यक्रमों में शामिल हुआ था। पिछले साल और इस साल के अनुभव लगभग समान हैं। पिछले दो सालों से अम्बेडकर जयंती कार्यक्रम बरेली में जिस तरह से आयोजित हो रहे हैं उससे मुझे निराशा ही होती है। इन मंचों को राजनीतिक दलों का प्लेटफार्म बनाने का काम किया जाता है। कई स्थानों पर आयोजित कार्यक्रमों में बीजेपी के विधायकों का स्वागत-सत्कार किया जाता रहा है। अम्बेडकर जयंती पर अम्बेडकर को याद करने का काम तो लंबे समय से हो रहा है। लेकिन उनको पूजने का चलन भी पिछले कुछ समय से बढ़ गया है। अम्बेडकर की सामाजिक-राजनीतिक भूमिका का मूल्यांकन करने का काम हर जगह से नदारद है। बस हर मंच पर रटी-रटायी बातें सुनने को मिलती हैं- अम्बेडकर ने संविधान बनाया विश्व का सबसे बड़ा और अच्छा संविधान, महिलाओं के लिये ये किया, आदि, आदि। उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े जाते हैं उनका महिमामण्डन किया जाता है यहां तक कि उनको भगवान घोषित कर दिया जाता है। बस अब उन पर कोई तर्क नहीं, कोई सवाल नहीं। 
    
मंचों को खास जाति के लोग संभाले होते हैं उन्हीं की जाति के अधिकांश लोगों का हर जगह कब्जा होता है।     
    
इधर कुछ समय से अम्बेडकर जयंती पर निकाली जा रही शोभा यात्राओं में डीजे का चलन बढ़़ गया है। बड़़े-बड़े साउण्ड सिस्टम को मैटाडोर गाड़ियों और ट्रैक्टर ट्रालियों पर रखकर फुल साउण्ड में फिल्मी गानों और धार्मिक गानों की तर्ज पर बनाए गये गानों पर युवा थिरकते हैं। कोई अपनी जाति पर घमंड करने वाली तख्ती लिए लहरा रहा होता है। डीजे की तेज धमक से दुकानों के शीशे तक हिलने लगते हैं। कमजोर दिल वाले और बुजुर्गों का क्या हाल होता होगा? 
    
इस तरह का उन्मादी प्रदर्शन और अपनी जाति पर गर्व करने का प्रदर्शन क्या दिखाता है? और क्या इस भीड़़ की तुलना धार्मिक जुलूसों में नाचती भीड़ से नहीं की जा सकती? इसमें और उसमें क्या अंतर है? जब हम धार्मिक जुलूसों की उन्मादी भीड़ की आलोचना करते हैं तो यह क्या है? 
    
अब आते हैं अम्बेडकरवादी संगठनों के अम्बेडकरवाद और अम्बेडकर से संबंध पर। 
    
अम्बेडकरवादी संगठनों की स्थिति वर्तमान समय में बहुत बुरी हो गयी है। पहली बात तो यह है कि इन अम्बेडकरवादी संगठनों पर विशेष जाति का नियंत्रण है और ये उस नियंत्रण को बनाए रखना चाहते हैं। दूसरा इन संगठनों ने केवल आनुष्ठानिक कार्यक्रमों तक अपने को सीमित कर लिया है। ये अम्बेडकर जयंती, सावित्रीबाई फुले जयंती, बुद्ध जयंती तो मना लेते हैं लेकिन दलितों-वंचितों के साथ होने वाले अत्याचारों पर मौन साध जाते हैं या जाति देखकर विरोध दर्ज कराते हैं। 
    
इन संगठनों द्वारा अपने आनुष्ठानिक कार्यक्रमों में बच्चों के लिए क्विज कार्यक्रम, सांस्कृतिक कार्यक्रम- गीत, संगीत और डा. अम्बेडकर पर भक्ति भाव से भाषणबाजी होती है। लेकिन अम्बेडकर के राजनीतिक आंदोलन की सीमाओं, उनके द्वारा समाज में किए गये कार्यों का महत्व और दलितों की मुक्ति का प्रश्न बगैर पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को निशाने पर लिए हल नहीं हो सकता। ये बातें अम्बेडकरवादी संगठनों के कार्यक्रमों से गायब रहती हैं। अम्बेडकरवादी संगठन दलितों के आरक्षण को कमजोर करने के शासक वर्ग के प्रयासों पर सवाल तो दबे स्वर में उठाते हैं लेकिन सरकारी संस्थाओं के निजीकरण, ठेकाकरण, संविदाकरण के सवाल पर चुप हैं। वे बढ़ती बेरोजगारी के सवाल पर चुप हैं। वे इस बात को गर्वपूर्वक बताते हैं कि फलां देश में डा. अम्बेडकर की मूर्ति स्थापित हुई है लेकिन अपने देश में शोषितों-वंचितों को शिक्षा के निजीकरण द्वारा शिक्षा से वंचित किया जा रहा है इस पर चुप हैं। वे अम्बेडकर को सिम्बल आफ नालेज घोषित करते हैं, अम्बेडकर को मार्क्स से बड़ा ज्ञानी घोषित करते हैं। व्हाट्सएप से प्राप्त इस तरह के संदेशों को खूब प्रचारित-प्रसारित करते हैं। अम्बेडकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एनीहिलेशन आफ कास्ट’ (जाति भेद का उच्छेद) में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए दो उपाय बताए- सामूहिक भोज और अंतर्जातीय विवाह। अम्बेडकरवादी संगठनों ने इन दोनों उपायों का पालन नहीं किया। अम्बेडकरवादी संगठन खुद जाति के खोल में सिमट कर रह गए और राजनीतिक अवसरवादिता का उदाहरण बन गए जिनकी देखा-देखी अन्य दलित तथा पिछड़ी जातियों ने भी अपने जातिगत संगठन बनाए और पूंजीवादी व्यवस्था में अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने लग गए। इस तरह अम्बेडकरवादी संगठनों ने जाति व्यवस्था को खत्म करने के बजाय उसको मजबूत करने में योगदान दिया। 
    
अम्बेडकरवादी संगठनों के संघर्षों से दूर रहने और अम्बेडकर या अन्य दलित समाज सुधारकों के नाम पर केवल महिमामंडन या शोभायात्रा का नाम लेकर डीजे पर थिरकने से यह स्पष्ट हो रहा है कि अम्बेडकरवादी संगठनों की क्या गत हो गई है। उसको देखकर वे दलित युवा भी निराश हैं जो लगातार सिकुड़ती सरकारी नौकरियों और निजीकरण से परेशान हैं और अम्बेडकरवादी संगठनों का उनकी समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रह गया है।             -एक पाठक, बरेली 

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।