सरकारी गठबंधन यानी राजग के लोकसभा में कुल 293 सांसद हैं। पर यह गठबंधन अल्पसंख्यक मुक्त है। इसमें एक भी मुसलमान, ईसाई या सिख सांसद नहीं है। एक बौद्ध सांसद जरूर है। ये सारे कुल मिलाकर आबादी का करीब बीस प्रतिशत बनते हैं। यानी कहां तो उनके पचास से ज्यादा सांसद होने चाहिए थे पर है बस एक। वह भी जिसे संघ परिवार अल्पसंख्यक नहीं बल्कि हिन्दू समाज का ही हिस्सा मानता है।
यह गौरतलब है कि भाजपा ने इस चुनाव में महज एक मुसलमान, एक ईसाई तथा सात सिख उम्मीदवार खड़े किये थे। इनमें से भी मुसलमान और ईसाई उम्मीदवार केरल से तथा छः सिख उम्मीदवार पंजाब से।
यह भी गौरतलब है कि इस बार लोकसभा में मुसलमान सांसदों की संख्या अब तक की सबसे कम संख्या होगी। इसमें केवल चौबीस मुसलमान सांसद होंगे। सबसे ज्यादा मुसलमान सांसद 1980 में 49 तथा 1984 में 45 थे। आज आबादी में मुसलमानों के अनुपात को देखते हुए मुसलमान सांसदों की संख्या करीब पचहत्तर होनी चाहिए। हैं महज चौबीस।
एक तथ्य और भी गौरतलब है। सत्तारूढ़ गठबंधन में 33.2 प्रतिशत सांसद सवर्ण हैं जबकि विरोधी गठबंधन में महज 12.4 प्रतिशत। पिछड़ों की संख्या दोनों में करीब 42 प्रतिशत है। हां, विरोधी गठबंधन में 7.9 प्रतिशत मुसलमान, 5 प्रतिशत सिख तथा 3.5 प्रतिशत ईसाई हैं।
सत्तारूढ़ गठबंधन का अल्पसंख्यक मुक्त होना यूं ही नहीं है। यह भाजपा और हिन्दू फासीवादियों का देश के अल्पसंख्यकों के प्रति रुख का स्वाभाविक परिणाम है। आम तौर पर अल्पसंख्यक विरोधी रुख तथा खासतौर पर मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख के कारण संसद और विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व क्रमशः घटता गया है। यहां तक कि विपक्षी पार्टियां भी उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देने से बचती हैं। इस बार समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में केवल चार मुसलमान उम्मीदवार खड़े किये जबकि प्रदेश में मुसलमानों की आबादी बीस प्रतिशत है। बसपा ने जरूर बीस मुसलमान उम्मीदवार मैदान में उतारे पर उसका उद्देश्य सपा-कांग्रेस गठबंधन को मिलने वाले मुसलमानों के वोट में सेंधमारी था जिससे भाजपा को फायदा हो। उस पर तुर्रा यह कि मायावती ने उन्हें वोट न देने के लिए मुसलमानों को कोसा।
संघ परिवार का अपने जन्म के समय से ही यह उद्देश्य रहा है कि देश में मुसलमानों को सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से अदृश्य कर दिया जाये। वे बस हिन्दुओं के रहमोकरम पर जिन्दा रहें। उन्हें भले ही संवैधानिक-कानूनी तौर पर दूसरे दर्जे का नागरिक न बनाया जाये पर वास्तव में उन्हें उसी स्थिति में पहुंचा दिया जाये। कहना न होगा कि हिन्दू फासीवादियों ने इस मामले में काफी सफलता पाई है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
भाजपा ने न केवल स्वयं की पार्टी से मुसलमानों को बाहर रखा है बल्कि दूसरी पार्टियों को मजबूर किया है कि वे मुसलमानों को उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने से बचें। मुसलमान आबादी ने भी धीमे-धीमे इस नियति को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए वे दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह देखते हुए भी आम आदमी पार्टी को वोट देते हैं कि यह पार्टी खुलेआम हिन्दुओं का तुष्टीकरण कर रही है। इसीलिए वे एम आई एम जैसी पार्टी को नकार देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इससे केवल हिन्दुओं का भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होगा। कहना न होगा कि विपक्षी पार्टियां इसका बेशर्मी से फायदा उठा रही हैं, खासकर आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियां। उन्हें लगता है कि मुसलमान मरता क्या न करता उन्हें वोट देंगे ही।
भारतीय समाज के लिए यह स्थिति अत्यन्त खतरनाक है। हिन्दू फासीवादियों की इस मामले में सफलता समाज को एक विस्फोटक स्थिति की ओर धकेल रही है। यह याद रखना होगा कि देश में अल्पसंख्यक आबादी करीब बीस प्रतिशत है। इतनी बड़ी आबादी को हाशिये पर धकेलना पूरे समाज को ज्वालामुखी के मुहाने पर धकेलना है।
अल्पसंख्यक मुक्त सरकारी गठबंधन
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आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
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7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
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