जी-20 का दिल्ली शिखर सम्मेलन सम्पन्न हो चुका है। भारत की राजधानी दिल्ली में जनता को कैद कर सम्पन्न हुए सम्मेलन की सफलता की घोषणायें की जा रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी इसे अपने मंत्रियों-शेरपाओं की कड़ी मेहनत का नतीजा बता रहे हैं कि सम्मेलन ने संयुक्त वक्तव्य जारी करने में सफलता पा ली। भारत का पूंजीवादी मीडिया सफलता के लिए मोदी के कसीदे गढ़ रहा है।
सम्मेलन में एक खेमे रूस-चीन के राष्ट्राध्यक्ष हिस्सेदार नहीं थे। यूक्रेन युद्ध के मसले पर जी-20 के देश बंटे हुए थे। सम्मेलन में जो साझा वक्तव्य जारी हुआ उससे रूसी साम्राज्यवादी खुश थे। यूक्रेन मसले पर रूस का नाम लिए बगैर सारी बातें की गयीं थीं। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने सम्मेलन के तत्काल बाद ही वक्तव्य को निराशाजनक करार दिया। पश्चिमी साम्राज्यवादी पिछले सम्मेलन में रूस को हमलावर कह कर वक्तव्य पारित कराने में विफल हो चुके थे। इसलिए वे प्रकारान्तर से यूक्रेन पर कुछ अन्य बातें डलवा कर वक्तव्य पर सहमत हो गये। जाहिर है कि जी-7 के पश्चिमी साम्राज्यवादी खुद द्वारा बनायी गयी संस्था जी-20 की कब्र खुदती नहीं देखना चाहते थे इसलिए वे इस संस्था को बनाये रखने की खातिर अपेक्षाकृत नरम भाषा पर सहमत हो गये।
पर क्या वक्तव्य से दोनों पक्षों के रुख में कोई बदलाव आया है? नहीं। सम्मेलन से उठते ही दोनों पक्ष अपने-अपने हिसाब से वक्तव्य की व्याख्या करने लगे। पश्चिमी साम्राज्यवादी रूस की निन्दा में तो रूसी-चीनी साम्राज्यवादी नाटो-अमेरिका की लानत मलानत में जुट गये। वक्तव्य का उनके लिए इसके अलावा कोई महत्व नहीं था।
भारत के प्रधानमंत्री मोदी जिस साझे वक्तव्य पर इतना इतरा रहे हैं इसे कूड़े के ढेर के हवाले करने में भागीदार देशों को दो दिन की भी लाज नहीं रही। वैसे सभी साझे वक्तव्यों का दुनिया की प्रमुख ताकतें पहले भी यही हाल करती रही हैं।
दरअसल दो साम्राज्यवादी खेमों में बंटती दुनिया के बीच कोई साझा वक्तव्य, कोई समझौता शांति नहीं कायम कर सकता। वैश्विक वर्चस्व की इनकी ख्वाहिश इन्हें हमेशा परस्पर झगड़े की स्थिति में बनाये रखती है। इनके बीच शांति-समझौता तात्कालिक होता है व झगड़ा स्थायी। अगर आज रूस-यूक्रेन युद्ध डेढ़ वर्ष बाद भी किसी अंजाम तक नहीं पहुंचता दिख रहा है तो यह पश्चिमी साम्राज्यवादियों व रूसी-चीनी साम्राज्यवादियों के बीच बढ़ती कलह की ही अभिव्यक्ति है।
इस शिखर सम्मेलन में अफ्रीकी संघ को सदस्यता देकर जी-20 ने यूरोपीय संघ के बाद दूसरे क्षेत्रीय संघ को अपने भीतर शामिल कर लिया। साझे वक्तव्य ने एक बार फिर बदलती दुनिया में वैश्विक संस्थाओं में बदलाव की बात को दोहराया। इसके अलावा पर्यावरण, स्वास्थ्य से लेकर जेण्डर गैप कम करने, महंगाई-आर्थिक विकास आदि के बारे में हमेशा की तरह ऐसी चिन्तायें व्यक्त की गयीं जिन्हें हर साल दोहराने के बावजूद कोई देश मानने को तैयार नहीं है।
हां, खाद्य सुरक्षा के मसले पर किसी तरह रूस को फिर से इसमें शामिल करने की इच्छा जरूर साझे वक्तव्य से प्रतीत हुई। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद खाद्यान्न की खासकर गेहूं की आपूर्ति रूस-यूक्रेन से ठप हो गयी थी। बाद में एक समझौते के तहत रूस से आपूर्ति शुरू हुई पर बाद में रूस यह कहकर समझौते से पीछे हट गया कि आपूर्ति किया जा रहा खाद्यान्न जरूरतमंद देशों के बजाय यूरोप जा रहा है व उसकी अन्य मांगें पूरी नहीं की जा रही हैं।
दरअसल जी-20 संस्था दो खेमों में बंटती दुनिया के बीच रस्साकसी का मंच बनकर रह गयी है। इसके किसी वक्तव्य का अब कोई खास अर्थ इसके सदस्य देशों के लिए नहीं रह गया है। हां पश्चिमी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व वाली वैश्विक संस्थाओं के दायरे में इन झगड़ों का निपटारा चाहते हैं। वे अपने वर्चस्व को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। तीसरी दुनिया के कुछ बड़े देश दो खेमों के अस्तित्व का लाभ उठा अपने लिए संयुक्त राष्ट्र से लेकर बाकी मंचों पर ज्यादा अधिकार की मांग कर रहे हैं।
इसी तरह ‘आज का दौर निश्चित रूप से युद्ध का नहीं होना चाहिए’ की वक्तव्य की बात को लें। युद्ध के संदर्भ में यह घोषणा दुनिया भर की जनता को भ्रम में डालने के अलावा कुछ नहीं है। अन्यथा तो दुनिया में जब तक पूंजीवाद-साम्राज्यवाद है युद्ध के खतरे से नहीं बचा जा सकता है। लुटेरे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शासक यह अच्छे से जानते हैं कि अपने स्वार्थों की खातिर उनमें से कोई युद्ध से पीछे नहीं हटेगा। इसीलिए वे लगातार हथियारों को-फौज को मजबूत करते जाते हैं पर जनता को दिखाते ऐसे हैं कि मानो वे युद्ध नहीं चाहते हैं।
यही बात पर्यावरण संरक्षण से लेकर जनवाद के प्रसार तक, स्त्री-पुरुष बराबरी से लेकर मजदूर कल्याण तक सब पर लागू होती है। वक्तव्य में इन सब मामलों में अच्छी-अच्छी बातें की गयी हैं पर ये पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शासक ही हैं जो आज पर्यावरण को मुनाफे की खातिर चौपट कर रहे हैं। ये ही अपनी जनता के जनवादी अधिकारों पर कैंची चला रहे हैं। मजदूरों के जीवन को नारकीय बना रहे हैं। अतः वक्तव्य में इन बातों का दुनिया की जनता को भ्रम में डालने के अलावा कोई अर्थ नहीं है।
अंत में आयोजक देश भारत के शासकों पर कुछ बातें की जानी जरूरी है। यह जगजाहिर है कि भारत में संघ-भाजपा एक फासीवादी शासन की ओर बढ़ रहे हैं। मुस्लिमों को उन्होंने दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया है। जनता के जनवादी अधिकारों को कुचलने का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि जहां बाकी जी-20 बैठकों के वक्त तमाम जनपक्षधर संगठन-पर्यावरणवादी संगठन-एनजीओ आदि सम्मेलन स्थल वाली जगह पर विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं वहीं इस बार दिल्ली में कर्फ्यू का माहौल कायम कर सरकार ने कोई विरोध प्रदर्शन तो दूर लोगों को सड़कों पर उतरने तक से रोक दिया।
जबकि संयुक्त वक्तव्य संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का हवाला देते हुए बिन्दु 78 के तहत धार्मिक-सांस्कृतिक विविधता, संवाद-सहिष्णुता बढ़ाने, धर्म-आस्था की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी, शांतिपूर्ण सभा के अधिकार को मजबूत बनाने, धर्म के आधार पर सभी प्रकार की असहिष्णुता-भेदभाव के खिलाफ लड़ाई तेज करने की बात करता है।
स्पष्ट है बाकी देशों की तरह भारत की मोदी सरकार भी वक्तव्य की नाम मात्र की परवाह नहीं करती है। अन्यथा तो उसकी समस्त करनी ही बिन्दु 78 की उलटी दिशा में है। हां मोदी सरकार ने सफल सम्मेलन के लिए खुद की पीठ थपथपा खुद को वैश्विक नेता के बतौर प्रदर्शित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
साझा वक्तव्य : कितनी सफलता कितनी मजबूरी
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को