जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस (आठ मार्च का दिन) करीब आता जाता है वैसे-वैसे पूंजीवादी मीडिया में ऐसी महिलाओं की कहानियों को सुर्खी बनाकर छापा जाता है जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में विशिष्ट सफलताएं अर्जित की हों। इन कहानियों का सार यह होता है कि जब फलानी औरत ऐसा कर सकती है तो कोई भी आम औरत ऐसा क्यों नहीं कर सकती है। और गर कोई औरत सफलता अर्जित नहीं कर रही है तो उस औरत में ही कोई समस्या है। या तो इच्छा शक्ति का अभाव है या फिर प्रयासों में कमी है।
इस तरह से एक साथ दो उद्देश्य साधे जाते हैं। एक तो महिलाओं की ‘मुक्ति’ और ‘सशक्तिकरण’ को व्यक्तिगत कार्यभार में बदल दिया जाता है। सरकार का कार्य महज यह रह जाता है कि ऐसे व्यक्तिगत प्रयासों को प्रोत्साहन और सहारा दे। दूसरा यह कि यह सोच और दर्शन के तौर पर बहुत महीन स्तर पर व्यक्तिवाद को बढ़ावा देना है। जो स्त्री या पुरुष व्यक्तिगत जीवन में पूंजीवादी मापदण्डों के अनुसार सफल हैं, वे श्रेष्ठ हैं। और दूसरे रूप में जो असफल हैं, वे अपनी असफलता के कारण खुद अपने आप में ढूंढ़ें। इस तरह से सफल श्रेष्ठता बोध की कुण्ठा के शिखर पर चढ़ें और असफल हीनताबोध के गड्ढे में गिर जायें। और इस तरह से पूंजीवादी समाज और उसके कर्ता-धर्ता हर रूप में मुक्त हो जायें। ‘व्यक्तिवाद जिन्दाबाद!’ का नारा आम दर्शन बन जाता है।
क्या व्यक्तिगत प्रयासों, मेहनत, सफलता का कोई मायने नहीं है। निःसंदेह इसका महत्व व्यक्ति के जीवन के संदर्भ में हो सकता है। जितना अधिक संघर्ष किसी महिला को अपने वर्ग के पुरुषों के मुकाबले करना पड़ता है उस संदर्भ में भी इसका महत्व है। किंचित सीमित, बेहद सीमित अर्थों में आम महिलाओं के ऊपर भी इसका थोड़ा बहुत असर पड़ सकता है कि वे कुछ प्रेरणा अपने व्यक्तिगत जीवन में लें।
लेकिन जैसा कि अक्सर ही होता है किसी आम मजदूर-मेहनतकश व्यक्ति का जीवन इतना कठिन है कि वहां फालतू के ख्वाब पालने की कोई खास गुंजाइश नहीं होती है। जीवन की कठिनाईयों और संसाधनों का अभाव किसी मजदूर औरत या उसकी संतानों के लिए इसी बात का ‘अवसर’ अधिक से अधिक उपलब्ध कराता है कि वह वैसा ही जीवन जी सके जैसा कि उसके मां-बाप ने जिया है। पहले तो किसी व्यक्ति के लिए इसका अवसर ही नहीं होता है कि वह मजदूर से पूंजीपति बन सके। एक देहाती इलाके में रहने वाले मजदूरों के लिए इसका कोई खास अवसर नहीं होता कि वह कोई परीक्षा पास कर अफसर बन जाये या फिर कोई सफल व्यवसायी या उद्योगपति बन जाये। फिर खुदा न खास्ता कोई अगर पूंजीवादी मापदण्डों में सफल ही हो जाये तो उसकी कहानियां पूंजीवादी मीडिया और नेता बार-बार दोहराते हैं। और फिर वह ‘सफल’ भी मजदूर वर्ग का सदस्य नहीं रह जाता है। वह या तो निम्न पूंजीपति वर्ग का या फिर करोड़ों में एक घटना के रूप में पूंजीपति वर्ग का सदस्य बन जाता है। उनका कुछ नहीं होता जिनके बीच से वह कथित रूप से ‘सफल’ उठ कर आता है। वे उसी गरीबी, निरक्षरता, अभाव के जीवन में ही धंसे रहते हैं।
पूंजीवादी मीडिया किसी महिला की ‘मुक्ति’ या ‘सशक्तीकरण’ को इसी रूप में देखता है कि वह व्यक्तियों का ही मामला है। ‘मुक्ति’ या ‘सशक्तीकरण’ व्यक्तियों के स्तर पर होगा सामाजिक स्तर पर नहीं होगा। ‘सामाजिक मुक्ति’ की धारणा आज का पूंजीवाद किसी भी तरह से किन्हीं भी अर्थों में नहीं अपना सकता है। और ठीक इसी तरह से व्यवस्था के ठेकेदार व पोषक भी किन्हीं भी अर्थों में ‘सामाजिक मुक्ति’ की बात नहीं कर सकते हैं। उनकी ‘मुक्ति’ घोर पूंजीवादी राजनीति का ही हिस्सा होती है।
‘सामाजिक मुक्ति’ का कोई भी सामाजिक संदर्भ ग्रहण करने का अर्थ होगा कि वर्तमान पूंजीवादी समाज व्यवस्था का समग्र वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए और ऐसा करने पर वैज्ञानिक विश्लेषण अपने आप उस दिशा में ले जायेगा जिसका अर्थ होगा कि इस व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन किया जाए। ‘व्यक्तिगत मुक्ति’ के लिए वर्तमान व्यवस्था में न तो कोई आमूल चूल परिवर्तन की बात सोचेगा और न ही इसके लिए कोई प्रयास करेगा। अधिक से अधिक सामाजिक सरोकार रखने वाला कुछ समाज-सुधार का कार्य करने की सोचेगा।
किसी एक स्त्री की ‘‘मुक्ति’’ और ‘‘सशक्तीकरण’’ में और पूरी नारी जाति की मुक्ति और ‘‘सशक्तीकरण’’ में आकाश-पाताल का फर्क है। और जैसे ही नारी समुदाय के वर्गीय विश्लेषण को आधार बनाया जायेगा वैसे ही सच्चाई का यह पहलू उजागर हो जायेगा कि पूंजीपति वर्ग की महिलाओं को न तो मुक्ति चाहिए और न ही सशक्तीकरण। क्योंकि यह दोनों ही उन्हें अपनी वर्गीय हैसियत के चलते स्वाभाविक रूप से ज्यादातर हासिल हैं। निजी सम्पत्ति के मालिक होने और शोषक वर्ग का सदस्य होने के चलते वे स्वयं ही सामाजिक मुक्ति और ‘सशक्तीकरण’ के मार्ग में अवरोध बनाकर खड़ी हो जाती है। और जब वे ‘मुक्ति’ या ‘सशक्तीकरण’ की बात कर रही होती हैं तो वे वह राजनीति कर रही होती हैं जो उनके वर्ग की आवश्यकता होती है। और इस वर्ग की आवश्यकता यह है कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था हर कीमत पर बनी रहे और यहां कोई सामाजिक विद्रोह न हो। सामाजिक विद्रोह से विमुख करने के लिए वे मजदूर-मेहनतकश महिलाओं और पुरुषों को किस्म-किस्म से भ्रमित करती हैं। झूठे सपने दिखाती हैं। कोरे आश्वासन देती हैं।
विमुख करने का ही एक तरीका सफल महिलाओं की कहानियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना होता है। उनका महिमामण्डन करना होता है। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस पूरी दुनिया में एक मान्यता ग्रहण कर चुका है इसलिए इस दिन को वे इस रूप में मनाते हैं कि यह सफल महिलाओं के गुणगान का दिवस बन जाता है।
और जब से भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति (पूंजीवादी और विशेषकर साम्राज्यवादी) का बोलबाला हुआ है तब से महिला दिवस को मुक्ति दिवस के बजाय महिलाओं के द्वारा मनपसंद ‘शॉपिंग दिवस’ में बदल दिया गया है। और इस दिन को खास बनाने के लिए ऑफर दिये जाते हैं और पुरुषों से अपील की जाती है कि वे इस दिन अपनी पत्नी, बेटी आदि को मनपसंद शॉपिंग कराके महिला दिवस को मनायें। यहां सारी ‘मुक्ति’ और ‘सशक्तीकरण’ उपभोक्तावादी मालों की खरीद तक सीमित कर दिया जाता है।
जाहिर सी बात है मुक्ति के उपरोक्त संदर्भों से या ‘सशक्तिकरण’ की इस परियोजना से भारत की करोड़ों महिला मजदूरों व मेहनतकशों का भला क्या लेना-देना हो सकता है। अधिक से अधिक वह पूंजीपति-मध्यम वर्ग का अनुसरण कर अपने शोषण-उत्पीड़न, अपनी मुक्ति की बातों को भुलाकर मूर्खों के स्वर्ग में ही निवास कर सकती है।
सामाजिक विद्रोह से विमुख करने के लिए ही दुनिया सहित भारत के पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग के सच्चे प्रतिनिधियों द्वारा शुरू किये गये ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस’ को अपनाया। और इस दिवस को आम रूप देने के लिए बड़ी ही धूर्तता से ‘श्रमिक’ शब्द महिला दिवस से अलग कर दिया। और फिर आगे के समय में इसी तरह ‘मुक्ति’ को ‘सशक्तीकरण’ जैसे भ्रामक शब्द में बदल दिया। इस सशक्तीकरण शब्दावली का अर्थ है कि शनैः शनैः हर महिला सशक्त हो जायेगी। अजर अमर पूंजीवाद में किसी सामाजिक मुक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है।