‘पार्क ग्वेन को गिरफ्तार करो’ ‘पार्क ग्वेन को जेल में डालो’ के नारे के साथ इस वक्त पूरा दक्षिण कोरिया गूंज रहा है। दक्षिण कोरिया की राष्ट्रपति पार्क ग्वेन-हे पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप हैं। ये आरोप इतने गम्भीर हैं कि देश की राष्ट्रपति, दो बार सरकारी मीडिया के मार्फत देश से माफी मांग चुकी हैं, पर वे राष्ट्रपति के पद को त्यागने को तैयार नहीं हैं। <br />
दक्षिण कोरिया वही देश है जिसकी कम्पनियों एल जी, सैमसंग, हुंदई ने भारत के हर घर में कब्जा किया हुआ है। इन कम्पनियों के उत्पाद मोबाइल सेट, वाशिंग मशीन, टेलीविजन, कार आदि को हमारे देश में कहीं भी देखा जा सकता है। इन कम्पनियों में से एक सैमसंग को खास लाभ राष्ट्रपति की सहेली चोई-सून-सिल द्वारा पहुंचाया गया है। और स्वयं चोई-सून-सिल ने कई तरह से सम्पत्ति बनाई है और इसके लिए उसने राष्ट्रपति से अपने वर्षों से चले आ रहे खास रिश्ते का फायदा उठाया है। और इसमें किसी को भी शक नहीं है कि ऐसा सब उन्होंने राष्ट्रपति की जानकारी और रजामंदी से ही किया है। और यही कारण है कि दो बार राष्ट्रपति ‘दुख और शर्म की भावना से भरकर’ दक्षिण कोरिया की जनता से माफी मांग चुकी हैं। <br />
चोई-सून-सिल को दक्षिण कोरिया की रासपुतिन कहा जा रहा है। रासपुतिन वह बदनाम शख्स था जिसका रूस में समाजवाद के पहले कायम जारशाही में जार की बीबी पर खास प्रभाव था। वह एक तांत्रिक था और अपने बदनाम कारनामों के लिए इतिहास में जाना जाता है। चोई-सून-सिल भी एक रहस्यमयी ईसाई सम्प्रदाय को चलाती रही हैं और उनकी कारगुजारियों के कारण उन्हें दक्षिण कोरिया की रासपुतिन कहा जा रहा है। रासपुतिन का अंत बेहद बुरा हुआ था। वह एक कुत्ते की मौत मरा था। <br />
दक्षिण कोरिया के सत्ता के गलियारों की यह कहानी हमारे देश के सत्ता के गलियारों से भिन्न नहीं है। इन बातों को सुनकर किसी को भी जयललिता-शशिकला, चन्द्रास्वामी, धीरेन्द्र ब्रह्मचारी, बाबा रामदेव, आशाराम आदि के नाम जेहन में आ जायेंगे। सत्ता के शीर्ष में बैठे लोगों के अंधविश्वास, प्रपंच, तंत्रमंत्र और सत्ता का दुरूपयोग, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजेवाद आदि सबकी याद आ जायेगी। दक्षिण कोरिया की राष्ट्रपति पार्क-ग्वेन-हे और चोई-सून-सिल के रिश्ते इतने बेपर्दा हो गये हैं कि खुद राष्ट्रपति की अनुमति से चोई-सून-सिल पर कानूनी कार्यवाही शुरू हो चुकी है। उसे गिरफ्तार कर लिया गया है। पार्क-ग्वेन-हे चोई-सून-सिल से पिण्ड छुड़ाना चाहती <span style="font-size: 13px;">हैं</span> परन्तु दक्षिण कोरिया की जनता उन्हें भी बराबर की हिस्सेदार मानती है।<br />
पिछले पांच हफ्तों से दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल सहित सभी प्रमुख शहरों में बड़े-बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। हफ्तों से चल रहे इन प्रदर्शनों में समाज के सभी तबकों की व्यापक भागीदारी है। छात्र, युवा, बुद्धिजीवी, मजदूर, कर्मचारी आदि के लगातार बढ़ती संख्या ने पार्क-ग्वेन-हे की सत्ता की चूलें हिला दी हैं। 26 नवम्बर का प्रदर्शन अब तक के सबसे बड़े प्रदर्शनों में था। इसमें अनुमान है दस लाख से तेरह लाख लोगों ने भागीदारी की है। इतनी बड़ी संख्या में लोग तब सड़कों पर उतर आये जब कि सियोल में बर्फबारी हो रही थी और मौसम बेहद सर्द था। लाखों की संख्या में प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति के आवास ‘ब्लू हाउस’ के पास ही जमे हुये थे। हजारों की संख्या में तैनात पुलिस अपनी लाख कोशिशों के बावजूद प्रदर्शनकारियों को नहीं हटा सकी है। <br />
दक्षिण कोरिया एक तरह से अमेरिकी साम्राज्यवाद का संरक्षित राज्य है। यहां की सेना का प्रमुख अभी भी अमेरिकी कमाण्डर ही होता है। जब से कोरिया प्रायद्वीप का विभाजन हुआ है तब से अमेरिका की सेना यहां मौजूद रही है। अमेरिका ने पहले खुले तौर पर फिर गुप्त तौर पर यहां परमाणु हथियार तैनात किये हुए हैं। अस्सी के दशक तक यहां अमेरिकी साम्राज्यवाद की जकड़बंदी बहुत ज्यादा थी तथा सैन्य तानाशाही कायम थी। 1987 में लोकतंत्र के समर्थन में व्यापक जन गोलबंद हुयी थी। इसका परिणाम यह निकला कि यहां बहु पार्टीय संसदीय व्यवस्था कायम हुयी। वर्तमान आंदोलन की 1987 के आंदोलन से तुलना की जा रही है। और माना जा रहा है कि यह आंदोलन दक्षिण कोरिया के समाज में शीर्ष स्थलों पर कायम भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, याराना पूंजीवाद को निशाने पर लेकर व्यापक उथल-पुथल मचायेगा।<br />
दक्षिण कोरिया के प्रमुख एकाधिकार घराने (सैमसंग, एल जी, हुंदई) के साथ सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के गहरे रिश्ते के कारण पनपे याराना पूंजीवाद ने समाज में व्यापक ध्रुवीकरण को जन्म दे दिया है। राष्ट्रपति की सहेली पर सैमसंग को सीधे लाभ पहुंचाने के ही आरोप हैं। दक्षिण कोरिया में आज जो हो रहा है वह भारत से कुछ अलग नहीं है। हर कोई जानता है कि भारत के प्रधानमंत्री की पीठ पर मुकेश अंबानी और गौतम अदाणी का हाथ है। अम्बानी और अडाणी ग्रुप को सीधे लाभ पहुंचाने की कई घटनाएं मोदी के सत्तारूढ होने के बाद सामने आ चुकी हैं। परन्तु अभी भारत में इस याराना पूंजीवाद के खिलाफ कोई आक्रोश नहीं है। <br />
दक्षिण कोरिया की जनता के क्षोभ व आक्रोश की अन्य वजह दुनिया भर में कायम आर्थिक संकट के कारण समस्याएं भी हैं। दक्षिण कोरिया के व्यापार में भारी गिरावट हालिया समय में आयी है। निर्यात घटा है। दक्षिण कोरिया की विकास दर पिछले कई वर्षों से 2 से 3 फीसदी के बीच ही रही है। बेरोजगारी, छंटनी से युवा और मजदूर परेशान है। औद्योगिक उत्पादन की दर महज 1 से 2 फीसदी रही है। उत्तरी कोरिया से कायम सैन्य तनाव ने सरकार को आम लोगों खासकर मजदूरों के प्रदर्शन के दमन का अच्छा बहाना दिया हुआ है। दक्षिण कोरिया के पास 6 लाख से अधिक सैनिकों की फौज है। इस फौज को पालने के लिए सरकार को भारी खर्च करना पड़ता है। इस वजह से भी जनता पर टैक्स का भारी बोझ है। शासक लगातार अंधराष्ट्रवादी माहौल बनाये रखते हैं और विदेशी अमेरिकी फौज के दक्षिण कोरिया में टिके रहने को जायज ठहराते हैं। <br />
वर्तमान भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने दक्षिण कोरिया के समाज में कायम अंतर्विरोधों को पूरी दुनिया के सामने ला दिया है। विपक्षी दल भले ही इस आंदोलन को सत्ता में वापसी के तौर पर देख रहे हों परन्तु उनको यह लाभ तात्कालिक तौर पर ही मिल सकता है। यह तो साफ है कि देर-सबेर राष्ट्रपति को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ेगा परन्तु यह साफ नहीं है कि इससे दक्षिण कोरिया की जनता का क्षोभ व आक्रोश शांत होगा कि नहीं।
कलंकित राष्ट्रपति के खिलाफ द.कोरिया की जनता सड़कों पर
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।