देश को नयी सरकार मिल चुकी है। वैसे नयी सरकार में नया क्या है। प्रधानमंत्री वही, वही रक्षामंत्री, वही गृहमंत्री, वही वित्त मंत्री, वही विदेश मंत्री। कृषि मंत्री जरूर नये हैं परन्तु उनके हाथ भी किसानों के खून से सने हुए हैं। 6 जून 2017 को शिवराज सिंह चौहान के राज में पुलिस फायरिंग में 6 किसान मारे गये थे और कई घायल हुए थे। इस मामले में कृषि मंत्री नये नहीं हैं। पुरानी सरकार के पुराने मंत्री की तरह हैं।
नयी सरकार में नया यह है कि यह अब ‘‘मोदी सरकार’’ नहीं ‘‘एनडीए (राजग) सरकार’’ है। क्योंकि बेचारे मोदी जी को संसद में सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला इसलिए उन्हें मजबूरी में एनडीए सरकार बनानी पड़ी।
नयी सरकार के संग नया यह है कि अभी मोदी की पार्टी की एक सांसद ने शपथ भी नहीं ली थी कि उसे अपने किसान विरोधी बयान के लिए एक करारा तमाचा किसान बेटी से खाना पड़ा। और खुद मोदी जी की तरफ उनके जीत के बाद के रोड शो में किसी ने जूता उछाल दिया। क्या नयी सरकार के साथ, जनता, कुछ नया करना चाहती है।
नयी सरकार जब से बनी है तब से शेयर बाजार झूम रहा है। नये-नये रिकार्ड बना रहा है। चुनाव परिणाम के दिन जरूर शेयर बाजार ने ‘‘ऐतिहासिक’’ गोता खाया था। नयी सरकार बनने के बाद शेयर बाजार क्यों झूम रहा है। असल में नयी सरकार एकदम पुरानी सरकार जैसी है। अम्बानी, अडाणी, मित्तल, टाटा जैसे भारत के एकाधिकारी घरानों से लेकर विदेशी निवेशकों को पता है जब ‘‘सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का’’।
यह सरकार अमीरों द्वारा अमीरों की अमीरों के लिए सरकार है। यह महज तुकबंदी नहीं वास्तविक सच्चाई है। भारत और दुनिया के अमीर यानी अरबपति-खरबपति चाहते थे कि किसी भी सूरत में मोदी ही फिर से प्रधानमंत्री बने। इसकी एक अभिव्यक्ति इस वर्ष के शुरू में हुए ‘गुजरात समिट’ में अडाणी-अम्बानी-टाटा समूह आदि के बयानों में देखी जा सकती है। और दूसरी अभिव्यक्ति विवादास्पद इलेक्टोरल बाण्ड और इलेक्टोरल ट्रस्ट द्वारा मोदी की पार्टी को दिये चंदे में दिखायी देती है। और तीसरी अभिव्यक्ति ठीक ऐन चुनाव के पहले नीतिश और नायडू के पाला बदलने में दिखायी देती है। क्या मामला इतना सरल है कि नीतिश पलटूराम हैं और नायडू को आंध्र प्रदेश के लिए केन्द्रीय फण्ड चाहिए। नहीं। दोनों ही मोदी की तरह देशी-विदेशी पूंजी के लाड़ले हैं। उन्होंने वही किया जो उनसे करवाया गया।
नयी सरकार मोदी के नेतृत्व में ही बने ये भारत और दुनिया के अमीर हर हालत में चाहते थे। चुनाव परिणाम के दिन शेयर बाजार को गोता इसलिए लगा था कि कहीं मोदी सरकार नहीं बनी तो क्या होगा। और जब से मोदी ने अपने पुराने तेवरों के साथ नयी सरकार को चलाया है तो शेयर बाजार झूमने लगा है। साफ है देश-दुनिया के अमीरों ने इस सरकार को चुनाव से पहले ही चुन लिया था। और चुनाव में मोदी ही जीत कर आये इसके लिए उन्होंने अपने खजाने के मुंह खोले, अपने पैसों से संचालित मीडिया को रात-दिन मोदी के प्रचार में लगाया, वगैरह-वगैरह।
यह सरकार अमीरों की सरकार है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह अमीरों के द्वारा चुनी गयी और अमीरों के लिए काम करेगी बल्कि इसलिए भी कि यह सरकार ऐसे लोगों से बनी है जो कि करोड़पति, अरबपति, खरबपति हैं।
‘एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफोर्म्स (ए डी आर)’ के अनुसार 99 फीसदी मंत्री करोड़पति हैं। इस मंत्रिमण्डल की औसत सम्पत्ति 107.94 करोड़ रुपये है। जिस व्यक्ति को ग्रामीण विकास व संचार मंत्रालय में राज्य मंत्री बनाया गया उसकी सम्पत्ति तो 570.47 करोड़ रुपये है। इन महाशय का नाम डा चन्द्रशेखर पेम्मासानी है। सिंधिया की सम्पत्ति 425 करोड़ रुपये तो एच डी कुमार स्वामी की 217.23 करोड़, अश्विनी वैष्णव की 144.12 करोड़ तो राव इन्द्रजीत सिंह की सम्पत्ति 121.54 करोड़ रुपये है। अरबपतियों-करोड़पतियों से बने इस मंत्रिमण्डल से देश के मजदूरों, मेहनतकश किसानों, बेरोजगार युवाओं को क्या कोई उम्मीद पालनी चाहिए? ये अमीर मजदूरों-मेहनतकशों को भीख में कुछ राशन-वासन तो दे सकते हैं परन्तु मजदूरों-मेहनतकशों को उनका हक, सम्मानजनक रोजगार, गरिमामय जीवन नहीं दे सकते हैं।
अमीरों द्वारा अमीरों की यह सरकार किसके लिए काम करेगी। साफ है, अमीरों के लिए ही करेगी।
अमीरों से बनी अमीरों की सरकार की हकीकत भारत के मजदूर, मेहनतकश किसान, बेरोजगार युवा न समझ लें, इसके लिए खूब सारा छल-प्रपंच किया जाता है। और मोदी जी इसलिए इस पार्टी के नेता और सरकार के अगुआ हैं कि वे अच्छे पूंजीवादी राजनीतिज्ञ की तरह जानते हैं कि कैसे मजदूरों-मेहनतकशों को छला जाता है। कैसे उनका भयादोहन किया जाता है। कैसे उनकी आंखों में धर्म की पट्टी बांधी जाती है। और कैसे अपने बचपन की झूठी-झूठी कहानियां गढ़कर बताया जाता है कि वे आपके बीच के ही हैं। कि मोदी जी ने चाय बेची। कि मोदी जी कहते हैं वे मजदूर नम्बर एक हैं।
एक समय दुनिया के एक बड़े सटोरिये ने मोदी जी की तारीफ में कहा था कि वे इस समय के दुनिया के महानतम नेताओं में एक हैं। भला कैसे? तो इस सटोरिये ने कहा कि मोदी ने भारत में वर्ग संघर्ष को तीव्र होने से रोका है। शायद आपको आश्चर्य होगा कि एक सटोरिया वर्ग संघर्ष की बात कैसे कर सकता है जबकि वर्ग संघर्ष जैसी बातें या शब्दावली तो मार्क्सवादी, माओवादी इस्तेमाल करते हैं। सटोरिया जानता है कि अगर वर्ग संघर्ष तीखा हो गया तो उसकी दौलत पर लगाम लग जायेगी। और वर्ग संघर्ष में यदि मजदूर-मेहनतकश किसान वर्ग जीत गया तो इन जैसे सटोरियों की दुनिया ही उजड़ जायेगी। सारी ऐय्याशियां हवा हो जायेंगी।
मोदी जैसे राजनेता इसलिए इन अमीरों के बीच में लोकप्रिय है कि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मजदूरों-मेहनतकशों की एकता को कैसे तोड़ा जाये। कैसे ऐसी जुगत लगाई जाए कि वे अमीरों को नहीं बल्कि एक-दूसरे को अपना दुश्मन समझें। धर्म इन लोगों के हाथ में सबसे बड़ा एक हथियार है। ये धर्म की बातें इसलिए नहीं करते हैं कि लोगों को कोई पारलौकिक आनन्द मिले। अध्यात्मिक राह सूझे। आत्मिक शांति मिले। इसके उलट इनके द्वारा धर्म की बातें करने का नतीजा यह निकलता है कि वह अपने से भिन्न धर्म वाले को दुश्मन और उस पर हमला करने को बहुत बड़ा धार्मिक काम समझते हैं। ईश्वर की सेवा समझते हैं। मोदी जी का अपने पूरे चुनाव प्रचार में हिन्दू धर्म की बातें करना और मुस्लिम या ईसाईयों पर निशाना साधना इसी रणनीति का हिस्सा है। इस बार के चुनाव में बस ये हुआ कि मोदी जी की चुनावी बिसात को जनता ने बिगाड़ दिया। हिन्दुत्व, राम मंदिर का मुद्दा जनता ने काफी हद तक नकार दिया।
निजी तौर पर मोदी जी का धर्म पर विश्वास है कि नहीं ये तो वे ही जानें पर वे ढंग से जानते हैं कि उनकी चुनावी सफलता में धर्म का, उनके धार्मिक प्रपंचों का बहुत बड़ा योगदान है। वे जिन्ना या सावरकर से इस मामले में भिन्न हैं कि ये दोनों जहां निजी तौर पर धार्मिक आचरण नहीं करते थे वहां मोदी आये दिन धार्मिक अनुष्ठान का प्रपंच करते रहते हैं। और तीनों में समानता यह है कि तीनों धर्म को एक धारदार हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं और अच्छे से जानते रहे हैं कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो कभी भी भारत में वो लाल रंग चढ़ जाता जिससे देश-दुनिया के पूंजीपति बहुत-बहुत खौफ खाते हैं। मजदूरों-मेहनतकश किसानों का राज उनके लिए मौत की आवाज ही है।
तो इसलिए अमीरों द्वारा अमीरों की अमीरों के लिए बनी नयी नवेली सरकार आने वाले दिनों में क्या-क्या करेगी। अरे साहब! वही करेगी जो पिछले दो बारों में कर चुकी है। अम्बानी-अडाणी-टाटा की दौलत में पंख लगेंगे और हिन्दू-मुसलमान के नाम पर मेहनतकश जनता एक-दूसरे को अपना दुश्मन समझेगी। जिनसे लड़ना चाहिए उसके बदले वे एक-दूसरे से लड़ेंगे। मजदूर-मेहनतकश दरिद्रता और दरिद्रता के दलदल में धंसेगे और अमीर और अमीर बनेंगे। लेकिन भारत के मजदूर-मेहनतकश किसान इनकी हकीकत समझ गये तो फिर वे क्या करेंगे।
नयी सरकार : अमीरों द्वारा, अमीरों की, अमीरों के लिए सरकार
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को