भारत में कपड़ा उद्योग का लंबा पुराना इतिहास है। किन्तु 1990 के दशक से ही यहां पर परिधान निर्यात क्षेत्र का महत्वपूर्ण विस्तार हुआ है। भारत का वैश्विक परिधान निर्यात में पांचवां स्थान है।
परिधान क्षेत्र ने वैश्विक पैमाने पर अपने जन्म के समय से ही अपनी फैक्टरी आधारित कार्यशक्ति में महिलाओं का समावेश किया है। यह क्षेत्र इस रूप में ‘स्त्रीकृत’ तो हुआ ही कि इसमें महिलाओं की भारी संख्या थी। साथ ही यह इसलिए भी स्त्रैन था क्योंकि इसमें ढेर सारे कामों की मजदूरी महिलाओं को मिलने वाली मजदूरी के स्तर की थी। हालांकि उत्तरी तथा पूर्वी भारत इस मामले में कुछ अपवाद हैं। यहां पर फैक्टरी के भीतर की कार्यशक्ति में पुरुष ज्यादा हैं और घर पर किये जाने वाले काम में महिलाएं ज्यादा हैं। दक्षिण भारत की स्थिति अन्य परिधान उत्पादक देशों जैसी ही है। यहां परिधान निर्यातक फैक्टरियों में महिला मजदूरां का अनुपात अधिक है।
दक्षिण भारत में भी परिधान उद्योग में अलग-अलग फर्क विद्यमान हैं। जैसे कि चेन्नई के परिधान उद्योग ने 1970 के दशक से ही फैक्टरी और गैर-फैक्टरी दोनों स्थानों पर महिला मजदूरों से काम लिया। इसके विपरीत, बैंगलुरू के परिधान उद्योग ने 1970 के दशक में ज्यादातर पुरुषों को रखा। गोकुलदास जो कि इस क्षेत्र का सबसे बड़ा परिधान निर्यातक समूह था, में कई हड़तालों के बाद इस उद्योग ने महिला मजदूरों को नियोजित करना शुरू किया। इसके पीछे यही धारणा थी कि महिलाएं यूनियनीकृत नहीं होंगी। इससे मजदूरी पर खर्च घटेगा और श्रम अनुशासन बढ़ेगा।
भारत में दुनिया के शीर्ष परिधान ब्रांडों (गैप, लेवी स्ट्रॉस, एच एंड एम, नाइक, आदि) के लिए उत्पादन करने के बावजूद मजदूरी बहुत कम है। भारी मात्रा में महिला मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी मिलती है। मजदूरों के गैर यूनियनीकृत और जल्दी-जल्दी नौकरी बदलने की वजह से कार्यपरिस्थिति के लक्षण अनौपचारिक वाले हैं। वास्तविक मजदूरी अलग-अलग राज्यों में 6000 रुपये से 16,000 रुपये तक है। महिला मजदूरों को मौखिक प्रताड़ना, यौन उत्पीड़न, लक्ष्यों को हासिल नहीं करने पर सार्वजनिक अपमान, अत्यधिक काम, कम मजदूरी और जबरन ओवरटाइम का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए बेंगलुरू जहां 1200 पंजीकृत रेडीमेड परिधान निर्यातक फैक्टरियां हैं जो कि 5 लाख महिला मजदूरों को नियोजित करती हैं, यहां 60 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उन्हें पुरुष सुपरवाइजरों से प्रताड़ना का सामना करना पड़ा है। आगे परिधान उद्योग की दो महिला ट्रेड यूनियन संगठनकर्ता की कहानी दी गयी है।
रुक्मिनी 1991 में ग्रामीण कर्नाटक के मांडया जिले से बेंगलुरू आई। उसका पति यहां फैक्टरी में काम करता था। रुक्मिनी ने बताया कि वह दो भाई और दो बहन हैं। उसके माता-पिता ने शेष तीन भाई-बहनों को स्कूल भेजा, लेकिन रुक्मिनी को कभी स्कूल नहीं भेजा। रुक्मिनी की छोटी बहन जो कि पोलियो से ग्रस्त थी उसको सिर्फ इसलिए स्कूल भेजा गया कि उसकी शादी होनी कठिन थी। रुक्मिनी के पिता ने रेलवे की नौकरी छोड़ी और अपने एक एकड़ की खेती में लौट आए। वे काफी शराब पीने लगे। फिर रुक्मिनी की मां ने खेती, घर का काम और बच्चों सभी को संभाला। रुक्मिनी को इसीलिए स्कूल नहीं भेजा गया, ताकि वह घर का काम देख सके।
आज 44 साल की रुक्मिनी बेंगलुरू में गारमेंट लेबर यूनियन की अध्यक्षा है। रुक्मिनी ने जब परिधान उद्योग में नौकरी करने का फैसला किया था तो उसमें अन्य महिला मजदूरों से अलग कुछ भी नहीं था। रुक्मिनी एक सामान्य प्रवासी ग्रामीण महिला थी जिसकी कुशल मजदूरी, शिक्षा, सामाजिक ताने-बाने या अन्य साधनों तक पहुंच बहुत सीमित थी। कर्नाटक और तमिलनाडु दोनों के पांच-पांच लाख परिधान निर्यात मजदूरों में से 80 प्रतिशत महिलाएं हैं और ये ज्यादातर गांव से शहर आए प्रवासी हैं। इनमें से अधिकांश राज्य के भीतर के प्रवासी हैं और एक छोटी संख्या राज्य के बाहर से है। लेकिन रुक्मिनी के मामले में एक अलग चीज यह है कि अशिक्षित प्रवासी मजदूर होने और औद्योगिक काम का कोई पूर्व अनुभव न होने के बावजूद उसने शहर के परिधान मजदूरों की यूनियन का नेतृत्व किया।
रुक्मिनी के बेंगलुरू आने के बाद की कहानी यह है कि एक वर्ष बाद 17 साल की उम्र में वह गर्भवती हो गई। एक नए शहर में इतनी कम आमदनी में यह काफी तनावपूर्ण था। वह बच्चे को जन्म देने गांव में अपने मां के पास चली गयी और वहां नौ माह तक रही। इस दौरान उसने सिलाई मशीन चलाना सीखा। उसने स्थानीय आंगनबाड़ी में भी काम किया। जब उसका बच्चा नौ माह का हुआ तब वह शहर अपने पति के पास आई और घरेलू नौकरानी का काम किया। उसने दूध की थैलियों की रिसाइकलिंग यूनिट के लिए थैलियों की छंटाई का भी काम किया। एक माह के काम के बाद उसने यह काम छोड़ दिया क्योंकि थैलियों से निकलने वाले सड़े दूध की गंध उसे सहन नहीं होती थी। इस दौरान उसका बच्चा बीमार पड़ गया जिसके इलाज का खर्च पति-पत्नी की सम्मिलित मासिक आय से ज्यादा था। रुक्मिनी के एक पड़ोसी ने उसे पास की एक परिधान फैक्टरी में नौकरी की संभावना के बारे में बताया। रुक्मिनी सिलाई जानती थी इसलिए काम ढूंढ़ने फैक्टरी गयी।
1992 में यह काम मिलने के बाद से रुक्मिनी अलग-अलग फैक्टरियों में काम कर चुकी है। दर्जी होने की वजह से उसे आसानी से काम मिल जाता था। वह याद करती है कि आज की तुलना में 1992-93 में उत्पादन काफी आसान था। वह एक घंटे में 30-35 पीस बनाती थी। वह बैठ सकती थी, सुस्ता सकती थी, मजे कर सकती थी। वहां परिवार जैसा माहौल था। वहां का मालिक अच्छा था। यह फैक्टरी मैसूर रोड पर थी। लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं रही।
1996 में दूसरे बच्चे के जन्म के बाद रुक्मिनी को नौकरी छोड़नी पड़ी। उसने 1998 में फिर से नौकरी पकड़ी। यह वही समय था जब फैक्टरी एच एंड एम और गैप जैसे बहुराष्ट्रीय ब्रांडों के लिए परिधानों की आपूर्ति करने लगी। दुबारा नौकरी पकड़ने के बाद के अनुभवों के बारे में रुक्मिनी सुनाती हैः
‘‘काम का दबाव ज्यादा था, सुपरवाईजर लगातार उत्पादन के लिए चिल्लाते थे। वे हमें उल्लू बुलाते थे। वे हमें कहते थे कि तुम यहां काम करने क्यों आती हो। कभी-कभी उत्पादन लक्ष्य पूरा न होने पर सुपरवाईजर या प्रोडक्शन मैनेजर किताब, कपड़ा, कैंची, पेंसिल आदि फेंक कर मारते थे या कान उमेठते थे। मेरा वेतन उस समय 1050 रुपया प्रति माह था। मैं सुपरवाइजर और प्रोडक्शन मैनेजर का विरोध करती थी। मुझे दर्जी के रूप में अपने हुनर पर भरोसा था, इसलिए मैं लड़ती थी।’’
रुक्मिनी ने कार्यपरिस्थिति में जिस बदलाव का जिक्र किया है वह 1992 से 1998 के बीच मल्टी फाइबर एग्रीमेंट की समाप्ति से जुड़ा हुआ है। इसने परिधान निर्यातक देशों के बीच प्रतियोगिता को बढ़ा दिया था। महिलाओं के लिए शारीरिक श्रम निचोड़ने वाला था, लेकिन सुपरवाइजरों द्वारा रोज की मौखिक प्रताड़ना ज्यादा चिंता और तनाव पैदा करता था। यह उनके आत्मसम्मान को भी काफी ठेस पहुंचाता था। कई वर्षों तक तनाव पैदा करने वाली मौखिक प्रताड़नाओं को सहन करने के बाद 2002-2003 में रुक्मिनी को एक एनजीओ के परिधान मजदूरों के अधिकार के बारे में एक पर्चा मिला। यह एनजीओ तब तक एक दशक से मजदूरों के रिहाइशी इलाकों में यूनियन पूर्व के श्रम अधिकारों के प्रति चेतना उन्नत करने का काम कर रहा था। रुक्मिनी इस एनजीओ के श्रम अधिकारों पर कानूनी प्रशिक्षणों की कक्षाओं में जाने लगी।
इन सबसे प्रेरित होकर 2004 में रुक्मिनी ने कुछ और मजदूरों के साथ मिलकर एनजीओ की मदद से गारमेंट महिला कर्मीकारा मुन्नादे (इसके आगे मुन्नादे नाम से इसका जिक्र होगा) नाम से संगठन बनाया। शुरू में मुन्नादे कार्यकर्ताओं ने अपनी बस्तियों में स्वयं सहायता समूह गठित किया। ये समूह महिलाओं के सूक्ष्म वित्त उधार व्यवस्था होने के साथ-साथ घरेलू हिंसा और अन्य मसले जैसे शिक्षा और इलाज के खर्च में मदद का भी काम करते थे। इस दौरान जो पहचान इस समूह ने हासिल की उसके दम पर इसने कार्य परिस्थिति और मजदूरों के अधिकारों से संबंधित मुद्दों को संबोधित करना शुरू किया। मुन्नादे के सदस्य गारमेंट फैक्टरियों के आस-पास श्रम अधिकारों पर पर्चा बांटने लगे और नियमित गेट मीटिंग चलाने लगे। इसके बाद कानूनी संरक्षण हासिल करने और औपचारिक प्रतिनिधित्व का दावा करने के मकसद से 2006 में गारमेंट एंड टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन का गठन किया गया।
इस वर्ष अप्रैल में इस यूनियन ने एक रैली आयोजित की जिसमें रुक्मिनी को महासचिव चुना गया। इस समय तक रुक्मिनी जहां काम करती थी वहां के प्रबंधन उसकी ट्रेड यूनियन सक्रियता के बारे में नहीं जानते थे। इस रैली के बाद जब वह फैक्टरी गयी तो उसे हेड ऑफिस में बुलाया गया। उन्होंने रुक्मिनी को काम से निकालने की धमकी दी और यूनियन छोड़ने के लिए कहा। रुक्मिनी ने उनसे कहा कि वे यह सब लिखित में दें। रुक्मिनी को काम से निकालने के बजाय उसके प्रबंधक रुक्मिनी को सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने लगे। यह घोषणा की जाती थी कि रुक्मिनी ठीक से काम नहीं कर रही है। उसे कठिन उत्पादन लक्ष्य दिये जाते थे। यूनियन सक्रियता की वजह से मजदूरों को प्रताड़ित किया जाना भारत में बहुत आम है। यह कई बार हिंसक रूप भी ले लेता है। एक दिन प्रोडक्शन मैनेजर उत्पादन लक्ष्य पूरा नहीं करने की वजह से रुक्मिनी पर चीखा। यह एक नया मैटेरियल था जिसको सिलना कठिन था। रुक्मिनी ने मैनेजर से कहा कि वह खुद इसे सिलकर दिखा दे। इस घटना के बाद रुक्मिनी को दूसरे विभाग में स्थानांतरित कर दिया गया। अंत में 2007 में रुक्मिनी को फैक्टरी के भीतर ‘‘अवैध’’ सूक्ष्म वित्त समूह चलाने का झूठा आरोप लगाकर निलम्बित कर दिया गया। यूनियन ने रुक्मिनी के निलंबन के खिलाफ एक शिकायत दर्ज करायी जिस पर एक सेवानिवृत्त जज ने घरेलू जांच की। जज ने निलंबन तो समाप्त नहीं किया, लेकिन रुक्मिनी का वेतन देते रहने का आदेश प्रबंधन को दिया। 2007 के बाद से कंपनी रुक्मिनी को वेतन दे रही है और रुक्मिनी यूनियन का काम कर रही है।
2013 में रुक्मिनी और कुछ अन्य कार्यकर्ताओं ने गारमेंट एंड टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन को छोड़ दिया। उनका कहना था कि उस यूनियन का एक पुरुष यूनियन नेता महिलाओं का यौन उत्पीड़़न करता था। इन महिलाओं ने गारमेंट लेबर यूनियन गठित की। इन महिलाओं को यौन उत्पीड़न का सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाने की वजह से काफी विरोध झेलना पड़ा। इस सबके बावजूद गारमेंट लेबर यूनियन परिधान उद्योग के मजदूरों को संगठित करना जारी रखे हुए है। एक अलग कहानी चेन्नई के गारमेंट एंड फैशन वर्कर्स यूनियन की है। इस यूनियन का जन्म 2009 में मद्रास एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोन के भीतर स्थित एक परिधान निर्यातक फैक्टरी के महिला मजदूरों के संघर्ष से हुआ। ऊर्जावान पचास वर्षीय डिल्ली बाबू याद करती हैं कि कैसे कम मजदूरी और बुरी कार्यपरिस्थितियों के खिलाफ बगैर किसी औपचारिक संगठित करने के प्रयास से पहले ही महिलाओं ने फैक्टरी में हड़ताल कर दी। डिल्ली 2003 से ही परिधान निर्यातक फैक्टरियों में काम कर रही हैं। नौ भाई-बहनों वाली डिल्ली चेन्नई में पैदा और बड़ी हुई। डिल्ली ने हाईस्कूल पूरा करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी ताकि ट्यूशन पढ़ाकर परिवार की आर्थिक मदद कर सके। 26 साल की उम्र में डिल्ली की शादी हुई। उसका पति एक छोटे फूड केटरिंग व्यवसाय में काम करता था। शादी के दस साल तक डिल्ली ने बाहर काम नहीं किया। 2003 में जब डिल्ली ने नौकरी करने का फैसला किया तो उस पर काम करने का कोई दबाव नहीं था। उसने मद्रास एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोन के भीतर स्थित एक इकाई अम्बाटूर क्लोथिंग लिमिटेड में पहली नौकरी पकड़ी।
2006 में जब एसीएल का प्रबंधन नए मालिक सेलेब्रिटी फैशन्स ने संभाला तो मजदूरों में अपनी सेवा शर्तों को लेकर चिंता हुई। सेलेब्रिटी फैशन्स बड़ी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय ब्रांड मसलन एल एल बीन और टिम्बरलैंड का आपूर्तिकर्ता था। मजदूरों ने अपनी चिंताएं नए प्रबंधकों के सामने रखीं। उन्होंने मजदूरों को उनकी नौकरी की सुरक्षा और अन्य हित-लाभों के प्रति आश्वस्त किया। लेकिन प्रबंधन संभालने के बाद सेलेब्रिटी फैशन्स ने बोनस घटा दिया और वार्षिक वेतन वृद्धि रोक दी। अनिवार्य ओवरटाइम, अत्यधिक काम का दबाव और आकस्मिक अवकाश पर रोक जैसी चीजें की गयीं। 2008 में डिल्ली और अन्य मजदूरों ने बोनस और उपार्जित अवकाश के लिए उद्वेलन शुरू किया और प्रबंधन की प्रताड़ना का लक्ष्य बनी।
2008 में एक बैठकी हड़ताल के बाद प्रबंधन ने तालाबंदी घोषित कर दी। एक यूनियन जो कि एक राजनीतिक पार्टी से संबद्ध थी, ने प्रबंधन से समझौते की वार्ता चलाई और मुख्यतया पुरुष मजदूरों से हड़ताल समाप्त करने के लिए सम्पर्क किया। डिल्ली और अन्य महिला मजदूरों ने उन पुरुष मजदूरों पर भरोसा करने से इंकार कर दिया जिन्होंने उनसे राय लेने की भी जहमत नहीं उठाई। उन्होंने मामले को अपने हाथों में लेने का निर्णय लिया। डिल्ली ने महिला मजदूरों को सलाह दी कि वे महिलाओं द्वारा संचालित एक स्वायत्त यूनियन पीटीएस से सम्पर्क करें। डिल्ली इससे पहले पीटीएस की गेट मीटिंगों के दौरान उसके कार्यकर्ताओं से मिल चुकी थी और उसके पर्चे पढ़ चुकी थी।
पीटीएस अब तक चार सालों से घरेलू कामगार महिलाओं, घर आधारित काम करने वाली महिलाओं, निर्माण एवं खनन मजदूरों और फेरी लगाने वालों के बीच काम कर रहा था। पीटीएस सामुदायिक स्तर पर साफ-सफाई, घरेलू हिंसा, बुनियादी साधनों तक पहुंच जैसे रोजमर्रा के मुद्दों पर काम करता था। 2005 से चेन्नई के आस-पास परिधान और इलेक्ट्रोनिक्स सेक्टर के उग आने और इन फैक्टरियों में नवयुवती मजदूरिनों के प्रवेश के बाद से पीटीएस ने परिधान निर्यातक इकाईयों के फैक्टरी संबंधी मुद्दों पर भी काम करना शुरू किया। मई 2009 में पीटीएस के सहयोग से और सेलेब्रिटी फैशन्स के महिला मजदूरों के नेतृत्व में गारमेंट एंड फैशन वर्कर्स यूनियन का गठन हुआ। लेकिन सेलेब्रिटी फैशन्स के प्रबंधन ने इस यूनियन को मान्यता देने से मना कर दिया। 2010 में डिल्ली के साथ प्रबंधन ने मार पिटाई की। इस घटना के बाद डिल्ली ने तीन दिन अवकाश लिया ताकि वह ठीक हो सके। जब वह काम पर लौटी तो उसकी पदावनति कर दी गयी। उसे कटिंग सेक्शन में हेल्पर के रूप में भेज दिया गया जबकि वह टेलर के रूप में एक कुशल मजदूर थी। अगले वर्ष 2011 में डिल्ली और एक अन्य मजदूर एलिजाबेथ रानी (जो कि यूनियन की एक अन्य पदाधिकारी थी) छुट्टी लेकर एक राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन रैली में भाग लेने मुंबई गयी। चार दिन बाद वापस लौटने पर प्रोडक्शन मैनेजर ने एजिलाबेथ पर शारीरिक हमला किया और उसका आई डी कार्ड छीन लिया। यूनियन ने मैनेजर के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। कंपनी ने एलिजाबेथ को दो माह के सवैतनिक अवकाश पर भेज दिया और यूनियन के पुनः हस्तक्षेप के बाद काम पर वापस लिया। कंपनी यूनियन कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करना और बगैर किसी कारण के नौकरी से निकालना जारी रखे हुए है।
इस यूनियन ने परिधान क्षेत्र के महिला मजदूरों के सुरक्षित परिवहन को मुद्दा बनाया है। यह इसलिए जरूरी था क्योंकि कंपनी मजदूरों की परिवहन व्यवस्था को रोकने को ले ऑफ करने का एक तरीका बनाती थी।
ऊपर दिये गये अनुभव एनजीओवादी संगठनों की कार्यवाहियों से उपजे हैं। तब भी आलोचनात्मक तरीके से इन्हें देखकर इससे सकारात्मक-नकारात्मक सबक निकाले जा सकते हैं।
(मुधमिता दत्ता के लेख ‘‘विकमिंग एक्टिव लेबर प्रोटेस्टेर्सः वोमेन वर्कर्स आर्गेनाइजिंग इन इंडियाज गारमेंट एक्सपोर्ट फैक्ट्रीज’’ पर आधारित)