पिछले कुछ सालों से प्रवर्तन निदेशालय यानी ई.डी. अत्यधिक चर्चा में है। यह संस्था जिसे पहले बहुत कम लोग जानते थे अब अधिकांश की जुबान पर है। आम तौर पर भी यह संस्था संघी सरकार के आने के बाद ‘अत्यधिक सक्रिय’ है। चुनाव के मौके पर, यह विपक्षी दलों के नेताओं पर ताबड़-तोड़ छापे मारकर, इनकी ‘साख’ को गिराने का काम कर रही है।
यह संस्था निरंकुश होकर काम कर रही है। इसे सामान्य नियम कायदों या संवैधानिक प्रावधानों से अलग करके एक खतरनाक हथियार के रूप में ढाल दिया गया है। वास्तव में यह संस्था भी मोदी-शाह की सरकार के हाथ में विपक्षियों और विरोधियों पर शिकंजा कसने, डराने, धमकाने और पालतू बनाने का औजार भर है।
प्रवर्तन निदेशालय, केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय के अधीन वित्तीय जांच एजेंसी है। यह संस्था आर्थिक अपराधों, भगोडे़ आर्थिक अपराधियों (एफ.ई.ओ.ए.), विदेश से होने वाले वित्तीय या मौद्रिक लेन-देन (फेमा), तस्करी (सी.ओ.एफ.ई.पी.ओ.एस.ए.) और धन शोधन निवारण (पी.एम.एल.ए.) जैसे मामलों-कानूनों के तहत काम करती है। धन शोधन यानी मनी लॉन्ड्रिंग से सम्बंधित कानून पी.एम.एल. ए. के तहत प्रवर्तन निदेशालय को अब निरंकुशता हासिल है।
निरंकुशता के लिए ‘धन शोधन निवारण अधिनियम-2002’ में मोदी सरकार ने संशोधन करवाये। यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 110 का उल्लंघन था। मोदी सरकार ने इसे ‘धन विधेयक’ के रूप में पारित किया था जबकि यह ‘धन विधेयक’ था ही नहीं। यह भी भारत के पूंजीवादी लोकतंत्र का कमाल है कि लोकसभा का अध्यक्ष अंतिम तौर पर तय करता है कि कौन सा बिल ‘धन विधेयक’ होगा और कौन सा नहीं।
इस तरह आधार विधेयक की ही भांति ‘धन शोधन निवारण (संशोधन) बिल’ 2019 को ‘धन विधेयक’ के रूप में पारित कर दिया गया। ‘धन विधेयक’ के रूप में प्रस्तुत बिल में ‘राज्य सभा’ कोई संशोधन नहीं कर सकती है, इसे खारिज भी नहीं कर सकती है। धन विधेयक को न्यायायिक समीक्षा के दायरे से भी बाहर रखा गया है हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2008 के एक मामले में कहा कि अनुचित लगने पर कोर्ट संसदीय कार्यवाहियों (लोकसभा अध्यक्ष के फैसले इसमें शामिल हैं) की समीक्षा कर सकता है।
फासीवादी मोदी सरकार ने ‘धन शोधन’ को व्यापक और अस्पष्ट बनाकर उत्पीड़न और आतंक के दायरे को व्यापक बना दिया है।
इस संशोधित कानून के जरिये केंद्र की फासीवादी सरकार ने प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों को किसी भी कथित संदिग्ध की जांच करने से आगे बढ़कर कथित आरोपी को गिरफ्तार करने, मुकदमा चलाने तथा कथित आरोपी की संपत्ति को जब्त करने का अधिकार दे दिया है। किसी भी कथित आरोपी के खिलाफ प्रवर्तन मामले में प्रथम सूचना दर्ज होगी मगर सम्बंधित व्यक्ति को इस सूचना रिपोर्ट के बारे में जानने का कोई अधिकार नहीं है।
इस कानून के जरिये मोदी सरकार ने न्याय की बुनियादी अवधारणा पर भी हमला किया है। प्रवर्तन निदेशालय किसी पर भी गैरकानूनी तरीके से पैसे अर्जित करने या फिर विदेश से गलत ढंग से पैसे लेने आदि आदि का आरोप लगाकर आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेगा मगर खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी भी अब कथित आरोपी की ही होगी, आरोप लगाने वालों की नहीं। इस तरह प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी किसी भी जिम्मेदारी और जवाबदेही से ही मुक्त हैं।
इस गैरजवाबदेह और निरंकुश प्रवर्तन निदेशालय के जरिये फासीवादी मोदी सरकार राज्य की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने और गिराने का काम कर रही है। कथित संघीय ढांचे को तहस-नहस करने में कोई कमी मोदी-शाह की जोड़ी नहीं छोड़ रही है। एक राज्य के उपमुख्यमंत्री को गिरफ्तार कर लेना ‘संघीय ढांचे’ की ही पोल खोलता है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ इनकी कथित ज़ीरो टालरेंस की नीति केवल फर्जी बात भर है। 2019 से 2022 के बीच लगभग 14 हज़ार से ज्यादा मामले ई डी ने दर्ज किए हैं। चुनाव के मौके पर एक वक्त नेशनल हेराल्ड व जमीन मामले आदि में सोनिया गांधी, राबर्ट बढेरा, राहुल गांधी से लेकर आजकल आम आदमी पार्टी के मनीष सिसोदिया तक इस लिस्ट में हैं। इस लिस्ट में वे अधिकारी भी हैं जो विपक्षी पार्टियों के हिसाब से राज्य सरकारों से सटे हुए हैं।
इस लिस्ट में कांग्रेस के 24, टी एम सी के 19, बीजू जनता दल के 6, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी के 11, शिवसेना के 8, द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम यानी डीएमके के 6 समेत अन्य दलों के कई नेता शामिल हैं। 95 फीसदी गिरफ्तार नेता विपक्षी पार्टियों के हैं।
कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ यह उठा-पठक तब खत्म हो जाती है जब विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों के नेता संगठित भ्रष्टाचारी गिरोह भाजपा में शामिल हो जाते हैं। महाराष्ट्र से कांग्रेस के नारायण राणे पर 2016 में 300 करोड़ रु. की मनी लान्ड्रिंग के आरोप लगे थे। 2017 में नारायण राणे ने कांग्रेस से अलग होकर अलग पार्टी बनाई और भाजपा गठबंधन में शामिल हो गए और ई डी यानी मोदी-शाह के आतंक से मुक्त हो गए। मोदी सरकार ने इन्हें केंद्र में मंत्री बना दिया।
असम के मौजूदा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा पहले कांग्रेस में थे। इन पर शारदा चिट फंड घोटाले में जुड़े होने के आरोप लगे थे। छापामारी होने लगी। 2015 में हिमंत बिस्वा भाजपा में शामिल हो गए और फिर सारे आरोपों व जांचों से हिमंत बिस्वा को मुक्ति मिल गयी। इसी तरह पश्चिम बंगाल से भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी का मामला है व अन्य मामले भी हैं।
प्रवर्तन निदेशालय ने कांग्रेस गठबंधन के दौर में साल 2004 से लेकर 2014 तक 112 जगहों पर छापेमारी की और 5346 करोड़ की संपत्ति जब्त की थी जबकि साल 2014 से लेकर 2022 के आठ वर्षों के बीजेपी के शासनकाल में ईडी ने 3010 जगहों पर छापेमारी की और लगभग एक लाख करोड़ की संपत्ति जब्त की।
धन शोधन निवारण कानून में संशोधन को 2019 में न्यायालय में चुनौती दी गयी। इस संबंध में 242 याचिकाएं कोर्ट में लगीं। 7 जजों की बेंच को इस मामले में फैसला देना है। अभी तो सुनवाई भी शुरू नहीं हुई है। मगर 3 जजों की बेंच ने इसी सम्बन्ध में भिन्न मामले में प्रवर्तन निदेशालय को हासिल निरंकुशता को सही ठहराया है।
दरअसल इस कानून के जरिये भी मोदी सरकार ने सत्ता के केंद्रीकरण को काफी बढ़ा दिया है। भांति-भांति के तरीके से प्रधानमंत्री कार्यालय (पी.एम.ओ.) ने आज अभूतपूर्व ताकत हासिल कर ली है। ऐसा इंदिरा गांधी के आपात काल के दौर में ही था।
असल बात यह नहीं है कि विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों के नेता भ्रष्ट हैं या नहीं है। इनकी दौलत और संपत्ति का दिन दुगुना रात चौगुना विस्तार ही खुद आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे होने की बात कह देता है। मगर यह तो भाजपा के संगठित भ्रष्टाचार की तुलना में कुछ भी नहीं है। यह किस तरह सम्भव हुआ कि आज भाजपा देश की सबसे अमीर पार्टी है। आज यह बात जगजाहिर है कि केंद्र से लेकर राज्य तक में संघी सरकार संगठित तरीके से तमाम तरह के निर्माण कार्यों में हेर-फेर, वसूली और फर्जी ऊंची लागत आदि के जरिये भ्रष्टाचार में संलिप्त है। दरअसल मामला तो भ्रष्टाचार का है ही नहीं। मामला तो सत्ता पर गिरफ्त को मजबूत बनाये रखना है। किसी भी तरह से सत्ता हाथ से नहीं निकलने देने का है। मामला इससे आगे बढ़कर कारपोरेट घरानों, एकाधिकारी पूंजीपतियों की नग्न लूट-खसोट को बरकरार रखने का और बढ़ाने का है। मामला पूंजीपति वर्ग के निचले हिस्सों को इस बड़ी पूंजी के हितों के हिसाब से ढालने का है।
इस सब को मोदी-शाह की जोड़ी पी एम ओ के जरिये पूरी सत्ता की ताकत को अपने हाथ में समेटकर अंजाम दे रही है, आगे बढ़ा रही है। इसलिये यह यूं ही नहीं है कि अडाणी के बंदरगाह पर 21,000 करोड़ रुपये के ड्रग्स पकड़े जाने का मामला हो या फिर हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट का मामला, हिंदू फासीवादी सरकार और इनका गिरोह अडाणी के साथ खड़ा था और है। इस मामले में इनकी जुबान पर ताले हैं जबकि दूसरी ओर इसी तरह के अन्य छोटे मामलों में ये हर जगह अति सक्रिय हैं। एक ओर टी वी पर इनके प्रवक्ता और एंकर आग उगलते हैं तो दूसरी ओर मोदी से लेकर इनकी पुलिस और संघी हर कोई हरकत में आ जाता है।