श्रम संहितायें लागू करने की तेज होती सरकारी कवायद

मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में मजदूर विरोधी 4 श्रम संहितायें लागू करने की कवायद तेज हो गयी है। इन संहिताओं को देश की संसद 2019 व 2020 में ही पारित कर चुकी है पर मजदूर वर्ग व उसकी ट्रेड यूनियनों के विरोध के चलते व चुनावों में नुकसान के मद्देनजर सरकार अभी तक इन्हें लागू नहीं कर पाई थी। अब चुनाव पश्चात श्रम मंत्रालय इन संहिताओं को जल्द से जल्द लागू करने के इरादे में दिख रहा है।

नये श्रम मंत्री मंसुख मांडविया और श्रम सचिव सुमिता दवरा ने बीते दिनों ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों के साथ बैठकें कर इन संहिताओं पर उनका सहयोग मांगना शुरू कर दिया है। जहां मंसुख मांडविया ने भारतीय मजदूर संघ के नेताओं के साथ बैठक की वहीं सुमिता ने ‘सेवा’ के प्रतिनिधिमण्डल के साथ बैठक की। दोनों संगठनों के प्रतिनिधियों ने बताया कि सरकार ने उनसे श्रम संहितायें लागू करने में मदद की मांग की।

इन श्रम संहिताओं के लागू होने से सरकार को देश में ‘व्यवसाय करने की आसानी’ बेहतर होने की उम्मीद है क्योंकि ये संहितायें मजदूरों के ट्रेड यूनियन अधिकारों, सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी उपायों में भारी कटौती करती हैं। सरकार इस सम्बन्ध में जिन राज्यों ने अभी तक इन संहिताओं संदर्भी नियमावली नहीं बनायी है उन पर भी दबाव डाल जल्द से जल्द नियमावली बनाने को कह रही है।

श्रम कानूनों का मसला केन्द्र व राज्य दोनों के अधिकार क्षेत्र में रहा है पर इन 4 केन्द्रीय श्रम संहिताओं के जरिये केन्द्र सरकार ने एक तरह से सारे अधिकार अपने हाथ में ले राज्यों को उन पर चलने को मजबूर कर दिया है।

यहां यह गौरतलब है कि श्रम मंत्रालय संघ-भाजपा से जुड़े ट्रेड यूनियन सेण्टर के साथ बैठक कर मजदूर पक्ष को सुने जाने की खानापूरी कर रहा है। अनुमान लगाया जा रहा है कि बाकी ट्रेड यूनियन सेण्टरों की राय जाने बगैर ही सरकार इन श्रम संहिताओं को लागू करने की ओर बढ़ जायेगी।

बीते 3-4 वर्षों में लगभग सभी ट्रेड यूनियन सेण्टरों ने इन मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं पर विरोध दर्ज कराया है। हालांकि ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियन सेण्टर आज जिस पूंजीवादी-सुधारवादी राजनीति से प्रेरित हैं उसके चलते वे इन श्रम संहिताओं के खिलाफ कोई कारगर संघर्ष खड़ा करने की क्षमता खो चुके हैं। फिर भी यह मजदूर वर्ग के आक्रोश का भय ही है जो सरकार को अब तक इन श्रम संहिताओं पर आगे बढ़ने से रोकता रहा है।

ये 4 नयी श्रम संहितायें इस बात का प्रमाण हैं कि मोदी सरकार किस कदर पूंजीपरस्त व मजदूर विरोधी है। और अब सरकार बीते 4-5 वर्षों से मजदूर वर्ग पर जिस हमले को बोलने की तैयारी कर रही थी, उस हमले को व्यवहार में उतारने को तैयार हो चुकी है। इन श्रम संहिताओं के जरिये सरकार बीते 100 वर्षों में मजदूरों को हासिल हुए अधिकारों को एक झटके में छीन लेना चाहती है। मोदी सरकार कृषि कानूनों पर किसान संघर्ष से मात खाने के पश्चात मजदूर वर्ग से दो-दो हाथ करने पर उतारू है। अब यह आने वाला वक्त ही बतायेगा कि मजदूर वर्ग सरकार के इस हमले का कब व कैसा जवाब देता है। वह सरकार को झुकाने वाला क्रांतिकारी जवाब देने में कितना वक्त लगाता है। इतिहास का सबसे क्रांतिकारी वर्ग होने के चलते उस के पास इस जवाब को देने की क्षमता व ताकत दोनों है। बस उसे अपनी क्रांतिकारी क्षमता व ताकत पहचानने की जरूरत है।

आलेख

/gazapatti-mein-phauri-yudha-viraam-aur-philistin-ki-ajaadi-kaa-sawal

ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

/apane-desh-ko-phir-mahan-banaao

आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। 

/trump-ke-raashatrapati-banane-ke-baad-ki-duniya-ki-sanbhaavit-tasveer

ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है। 

/bhartiy-ganatantra-ke-75-saal

आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं? 

/takhtaapalat-ke-baad-syria-mein-bandarbaant-aur-vibhajan

सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।