विस्फोटक बेरोजगारी और बंशी बजाता नीरो

भारत में बेरोजगारी का आंकड़ा आजादी के बाद सर्वोच्च स्तर तक पहुंचा हुआ है। बेरोजगारी विस्फोटक रूप ले चुकी है इसका प्रमाण जब-तब देखने को मिलता रहता है। अभी हाल में गुजरात के भरूच में 40 रिक्त पदों की भर्ती के लिए मची भगदड़ ने एक बार फिर सच्चाई बयां कर दी। एक निजी कम्पनी द्वारा प्लांट आपरेटर, सुपरवाइजर, फिटर आदि के 40 पदों पर भर्ती हेतु होटल में साक्षात्कार रखा गया था। कंपनी को जहां मात्र 150 लोगों के आने की उम्मीद थी वहीं 800 से अधिक बेरोजगार साक्षात्कार हेतु पहुंच गये और इस दौरान भारी भीड़ से होटल गेट पर बनी रेलिंग टूटberojgaari गयी। 
    
गुजरात का यह वाकया कोई अकेली घटना नहीं है। जब तब चंद नौकरियों के लिए लाखों की तादाद में उमड़ती भीड़ को देखा जाता रहा है। सेना भर्ती, प्रतियोगी परीक्षा के दिन ट्रेनों-बसों में बेरोजगार युवाओं की भारी भीड़ आये दिन दिखती रहती है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले केन्द्र सरकार की नौकरियों के लिए 2014 से 2022 तक 22 करोड़ से ज्यादा उम्मीदवारों ने आवेदन किया। 
    
पढ़े-लिखे बेरोजगारां की हालत और दयनीय हो चुकी है। एक अदद सरकारी नौकरी की आस उनकी सारी जवानी खपा ले रही है। ऊपर से पेपर लीक, भर्ती का टलना, भर्ती प्रक्रिया पूरी होने में सालों लग जाना उनके साथ जले पर नमक छिड़कने सरीखा सुलूक कर रहे हैं। 
    
इस सबके बीच देश का मुखिया बीते 10 वर्षों से चैन की बंशी बजा रहा है। 2 करोड़ नौकरियां हर वर्ष देने का वायदा करने वाले महाशय कभी नौजवानों को ‘‘नौकरी ढूंढने के बजाय नौकरी देने वाला बनने’ का उपदेश देते नजर आते हैं तो कभी ‘पकौड़ा रोजगार’ का। ये बेरोजगारों के दुःख दर्द से दूर देश के पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की बंशी बजाने में लीन हैं। 2047 तक देश को विकसित बनाने की सनक इनके सिर पर सवार है। 
    
चुनावी भाषणों में झूठे वायदे करने और इन वायदों के विज्ञापन में माहिर मोदी सरकार विज्ञापन को ही हकीकत मान सत्ता के मद में चूर है। उसे बेरोजगार युवाओं का दुख दर्द नजर ही नहीं आता। या यह कहना ज्यादा सही होगा कि बेरोजगारों की पीड़ा से आंख मूंद वह समझती है कि सारी पीड़़ा खत्म हो गयी है। 
        
एक के बाद एक नयी योजनायें बनाने में माहिर सरकार योजनावीर सरकार बन चुकी है। हर योजना का काफी ताम झाम से विज्ञापन, प्रचार-प्रसार किया जाता है और फिर कुछ महीनों में उसे भुला दिया जाता है। कभी राज्यों में पेपर लीक, धांधली रोकने के नाम पर इसने ग्रुप बी व सी की नौकरियों के लिए 2020 में एक देशव्यापी परीक्षा कराने की घोषणा की थी इसके लिए एक राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी भी बना ली गयी पर आज तक यह एजेंसी एक भी परीक्षा नहीं करा पायी। इस मसले पर सरकार संसद में एक के बाद एक गलतबयानी करती रही। 
    
आज हकीकत यही है कि ये सरकार एक भी भर्ती परीक्षा ऐसी नहीं करा पा रही है जिस पर पेपर लीक से लेकर भ्रष्टाचार का आरोप न लगा हो। छात्रों को परीक्षा पर उपदेश देने वाले देश के मुखिया को पेपर लीक पर सांप सूंघ जाता है, उसकी इस पर जुबान ही नहीं खुलती। लाखों की संख्या में रिक्त पड़े सरकारी पदों को भरने के बजाय भारतीय नीरो चैन की बंशी बजाने में वैसे ही जुटा है जैसे रोम के जलते वक्त वहां का शासक नीरो इससे बेफिक्र हो चैन की बंशी बजा रहा था। मोदी सरकार के बीते 10 वर्षों के तुगलकी फरमानों- लॉकडाउन-नोटबंदी से लेकर जीएसटी ने लाखों की तादाद में नौकरियां खत्म कर दी हैं। पर देश का मुखिया अपने फरमानों को गलत मानने तक को तैयार नहीं है। 
    
अम्बानी-अडाणी सरीखे बड़े पूंजीपतियों की सेवा में लीन मोदी सरकार बेरोजगार युवाओं के आक्रोश को ‘विपक्षी साजिश’ मान हाथ पर हाथ धरे बैठी है। हद तो तब हो जाती है जब बेशर्म मुखिया के मुंह से बेकार नौजवानों के प्रति सहानुभूति का एक बोल तक नहीं फूटता। 
    
दरअसल मोदी सरकार ने अडाणी-अम्बानी सरीखे लुटेरों की सेवा की खातिर जिन नीतियों को आगे बढ़ाया है उससे बेरोजगारी की समस्या का गहराते जाना तय है। उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण की इन नीतियों का ही परिणाम है कि सरकारी नौकरियां लगातार घटती जा रही हैं पर समूचा पक्ष-विपक्ष इन नीतियों पर एकमत है। ऐसे में बेरोजगार युवाओं का एकजुट संघर्ष ही कुछ बदलाव पैदा कर सकता है। इस संघर्ष के निशाने पर उक्त नीतियों के साथ-साथ पूंजीवादी व्यवस्था को लिया जाना जरूरी है। क्योंकि यह पूंजीवादी व्यवस्था ही है जो बेरोजगारी को पैदा करती है और उसे पूंजीपतियों के मुनाफे की खातिर बनाये रखती है। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।