अडाणी को ‘क्लीन चिट’

सरकार समर्थक जिस पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने अडाणी प्रकरण पर घनघोर चुप्पी साध रखी थी उसने अचानक एक दिन जोर-शोर से कहना शुरू कर दिया कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति ने अडाणी को ‘क्लीन चिट’ दे दी है। इस पूंजीवादी प्रचारतंत्र के ज्यादातर दर्शकों-पाठकों को समझ में ही नहीं आया होगा कि इस ‘क्लीन चिट’ का किस चीज से लेना-देना है। 
    

इस ‘क्लीन चिट’ का लेना-देना उन सवालों से है जो हिन्डेनबर्ग की रिपोर्ट में अडाणी समूह पर उठाये गये थे। इनका सारतत्व यह था कि अडाणी समूह ने विदेशों में अपनी फर्जी कम्पनियां खड़ी कीं और फिर उनके जरिये भारत में अपनी ही कम्पनियों के शेयर खरीदकर उनके दाम बढ़ाये। इन ऊपर चढ़े शेयरों को आधार बनाकर बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से कर्ज लिया गया। और अपने व्यवसाय का विस्तार किया गया। इस तरह अडाणी समूह ने अपनी ही कम्पनियों की ‘इनसाइड ट्रेडिंग’ की, उनके शेयरों के दाम बनावटी तरीके से चढ़ाये और उससे फायदा उठाया। विदेशों में फर्जी (शेल) कम्पनियां खड़ी करना और उनके जरिये गुपचुप तरीके से अपनी ही कम्पनियों के शेयर खरीदना एक अन्य अपराध था जिसके जरिये मालिकों की शेयरों में हिस्सेदारी निर्धारित सीमा 75 प्रतिशत से ज्यादा हो जाती थी। 
  

विशेषज्ञों की समिति ने इन मामलों में अडाणी समूह को क्या ‘क्लीन चिट’ दी? उसने कहा कि देश में अडाणी समूह द्वारा अपनी ही कम्पनियों के शेयरों की गलत तरीके से खरीद-बेच या निर्धारित सीमा के उल्लंघन का कोई प्रमाण नहीं है। अडाणी समूह ने जो किया है वह कानूनी तरीके से किया है। 
    

अतः सामान्य सी अकल रखने वाले व्यक्ति को भी यह बात समझ में आ जायेगी कि इस ‘क्लीन चिट’ का कोई मतलब नहीं है। यह ‘क्लीन चिट’ उन आरोपों के बारे में है ही नहीं जो अडाणी समूह पर लगे हैं। किसी ने भी नहीं कहा कि अडाणी समूह ने देश के भीतर से अपने शेयरों में गुपचुप तरीके से खरीद-बेच की या 75 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन किया। सारा आरोप विदेश स्थित विनोद अडाणी की फर्जी कम्पनियों द्वारा देश में अडाणी समूह के शेयरों की गुपचुप तरीके से खरीद-बेच के बारे में है। और विनोद अडाणी के बारे में अडाणी समूह ने अंततः स्वीकार किया कि वे अडाणी समूह का हिस्सा हैं (विनोद अडाणी गौतम अडाणी के बड़े भाई हैं)।
    

इन आरोपों पर विशेषज्ञों की समिति क्या कहती है? वह कहती है कि आरोपों की जांच नहीं की जा सकती क्योंकि सेबी (शेयर बाजार की नियामक संस्था) ने 2018 में नियम बदल दिये जिसके तहत विदेशों से होने वाले शेयर बाजार में निवेश के अन्तिम लाभार्थियों का नाम बताना जरूरी नहीं होगा। जो कम्पनी निवेश कर रही है उसे ही लाभार्थी माना जायेगा। इस कम्पनी में किसका पैसा लगा है यह बताना जरूरी नहीं। 
    

अडाणी समूह पर आरोप ही यही है जिन तेरह कम्पनियों ने निवेश से अडाणी समूह के शेयर खरीदे उनके पीछे अडाणी समूह की ही 40 फर्जी कम्पनियां हैं। अब सेबी के 2018 के नियम के अनुसार इन 40 कम्पनियों के बारे में जानकारी नहीं हासिल की जा सकती क्योंकि यह जानकारी देना अनिवार्य नहीं है। इसलिए विशेषज्ञों की समिति कहती है कि इस संबंध में सेबी द्वारा कोई भी जांच अंधी गली में पहुंच जाती है। 
    

यानी सेबी ने 2018 में शेयर बाजार में विदेशी निवेश के बारे में जो नियम बदले उसी से यह सुनिश्चित हो गया कि विदेशों से फर्जी कम्पनियों द्वारा होने वाले निवेश के असली मालिकों के बारे में कभी पता नहीं चल सकेगा। नियमों में यह बदलाव किसके फायदे में था? स्वाभाविक तौर पर अडाणी समूह जैसे कारपोरेट पूंजीपतियों के फायदे में जो पहले देश से काला धन विदेश भेजते हैं और अपनी ही फर्जी कम्पनियों के जरिये उसे देश में वापस लाते हैं। 
    

इस मामले में एक रोचक तथ्य और है। कुछ साल पहले मोदी सरकार ने जोर-शोर से घोषणा की कि वह सारी फर्जी कम्पनियों को बंद कर देगी। अब पता चल रहा है कि इस संबंध में सरकार के कानून विदेशों में भारतीयों द्वारा खड़ी की गयी फर्जी कम्पनियों पर लागू नहीं होते। यानी भारत सरकार भारतीयों द्वारा विदेशों में खड़ी की गयी फर्जी कम्पनियों की न तो जांच कर सकती है और न ही उन्हें बंद कर सकती है।     
    

भारत सरकार का यह कानून तथा सेबी के 2018 के नियम यह सुनिश्चित कर देते हैं कि देश के कारपोरेट पूंजीपति अपना काला धन विदेश ले जायें और फिर वहां स्थिति अपनी फर्जी कम्पनियों के माध्यम से सफेद धन के तौर पर वापस ले आयें। अडाणी समूह ने बड़े पैमाने पर यही किया। उसने बहुत बड़े पैमाने पर घोटाला किया। लेकिन वह पकड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि सरकार ने नियम-कानून ही ऐसे बना रखें हैं कि वह पकड़़ा न जा सके।             

दो शब्द सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति के बारे में। इस तरह के सारे विशेषज्ञ इस पतित व्यवस्था का हिस्सा हैं। इससे भी आगे बढ़कर वे अपनी जीविका और हैसियत के लिए सरकारी और निजी संस्थानों पर निर्भर हैं। ऐसे में वे सरकार और कारपोरेट पूंजीपतियों के खिलाफ कैसे जा सकते हैं। आज जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी सरकार के सामने नतमस्तक हों तो ये अपने अदने से विशेषज्ञ किस खेत की मूली हैं? ये सच्चाई जानते हुए भी वही कहेंगे जो सरकार चाहती है। जो कारपोरेट पूंजीपति चाहते हैं। खरीदी हुई कलम से सच्चाई निकलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसीलिए इन विशेषज्ञों ने इस तरह की गोलमाल बात की जिससे सरकार और कारपोरेट पूंजीपति अडाणी समूह को ‘क्लीन चिट’ मिलने का दावा कर सकें। 
    

वर्तमान ‘क्लीन चिट’ भी पिछले नौ सालों में सरकार और बड़े पूंजीपतियों को मिलने वाले ढेरों ‘क्लीन चिट’ का एक हिस्सा है। जिसका असल मतलब है सच्चाई को एकदम भौंडे तरीके से दफन कर देना। फासीवादियों के शासन में इससे भिन्न उम्मीद करना परले दरजे की नादानी होगी। 

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को