दुनिया भर में चलन है; जाते हुए साल को अलविदा कहना और नये साल का स्वागत करना। और इस चलन के तहत बीते साल की अच्छी-बुरी बातों को याद करना और नये साल के लिए आशा पालना, नये इरादे जाहिर करना और कुछ नया करने का संकल्प लेना। क्योंकि हम भी इसी दुनिया के वासी हैं इसलिए हमें भी ऐसा करना होगा। अन्यथा तो पृथ्वी रोज ही अपनी धुरी पर घूमती है और हर वर्ष सूर्य का चक्कर लगाती है। रोज ही नया दिन है, रोज ही नया समय है। यह अनवरत प्रक्रिया है जिसमें दिन, साल मनुष्यों ने तय किये हैं। <br />
पूरी दुनिया में अलग-अलग कलैण्डर है क्योंकि अलग-अलग सभ्यताएं रही हैं इसलिए साल भी अलग-अलग हैं। क्योंकि अंग्रेजी सभ्यता का बोलबाला है इसलिए तारीख, साल भी उसी के हिसाब से तय हैं। चलो जो है, सो है। दुनिया के चलन से चला जाए। <br />
2016 में दुनिया आर्थिक संकट में फंसी रही और आगे कोई उम्मीद नहीं है कि वह 2017 में इस संकट से बाहर निकलेगी। इस आर्थिक संकट के साथ वर्ष 2016 कई राजनैतिक घटनाक्रमों का गवाह बना। इनमें यूनाइटेड किंगडम का यूरोपीयन यूनियन से बाहर निकलना भी शामिल है और डोनाल्ड ट्रम्प जो कि अपने चुनाव में घोर प्रतिक्रियावादी बातें करते रहे हैं का संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाना भी है। यानी दुनिया में आर्थिक संकट के साथ राजनीति में दक्षिणपंथ का बोलबाला हो गया है। शासक जो बदल रहे हैं वे और ज्यादा प्रतिक्रियावादी बातें ही नहीं कर रहें है बल्कि मेहनतकश जनता पर और ज्यादा हमलावर रुख भी अपना रहे हैं। हर तरफ इस बात का शोर है कि कौन कितना ज्यादा हिंसक और आक्रामक हो सकता है। डोनाल्ड ट्रम्प शैतानों का नया बादशाह है। नया साल डोनाल्ड ट्रम्प के काले कारनामों का साल बनने जा रहा है। <br />
बीता साल यूरोप में कई स्थानों पर आतंकवादी हमले का गवाह बना। ये आतंकवादी हमले यूरोप के साम्राज्यवादियों की नीतियों के परिणाम थे। जहां अमेरिका सहित पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने पश्चिम एशिया और अफ्रीका में हजारों निर्दोषों को कत्ल किया या करवाया वहां आतंकवादियों ने कई निर्दोष नागरिकों की जान यूरोप व अन्य स्थानों में ली। साम्राज्यवादी या आतंकवादी हमलों के निशाने पर आम नागरिक रहे। <br />
संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह जहां असमानता के साथ बेरोजगारी बढ़ी है वहां यूरोप सहित पूरी दुनिया में भी यही हाल है। आर्थिक संकट जिसे आठ साल से ज्यादा समय हो गया है, ने पूरी दुनिया के मजदूरों, मेहनतकशों को भारी मुसीबत में डाल दिया है। मजदूरों, मेहनतकशों का क्षोभ व आक्रोश मजदूर संघर्ष की नयी दास्तान लिख रहा है। यूरोप, लातिन अमेरिका, अफ्रीका व एशिया महाद्वीप में मजदूरों के नये-नये संघर्ष पूरे वर्ष फूटते रहे। फ्रांस का हाल ऐसा हो गया कि वहां सरकार लगातार आपातकाल को बढ़ाती जा रही है। कारण बताया जा रहा है आतंकवाद। पर कारण है मजदूरों, कर्मचारियों, छात्र-युवाओं के जुझारु संघर्ष जो कि साल भर चलते ही रहे। <br />
साम्राज्यवादी देशों ने आपस में कई तरह से यद्यपि सांठगांठ की हुयी है पर बीते साल कई ऐसी घटनाएं घटीं जिन्होंने दिखला दिया कि ऐसी दुनिया में शांति की उम्मीद करना बेमानी है। इनके बीच तनाव और तनातनी के कारण, अपने प्रभाव क्षेत्र को बनाये रखने अथवा बढ़ाने के लिए झगड़ों के साथ-साथ वे संधियां भी थीं जो इनकी सांठ गांठ के प्रमाण है। यूक्रेन, सीरिया, उ.कोरिया, दक्षिणी चीन सागर आदि को लेकर जहां साम्राज्यवादियों में तनातनी रही वहीं जी-7, जी-20 आदि की बैठकों में कुछ सुलह-समझौता नहीं हो सका। <br />
2016 में जिन देशों से यह उम्मीद की जा रही थी कि वे दुनिया को आर्थिक संकट से उबारेंगे वे ही संकटग्रस्त होते चले गये। इनमें शामिल हैं ब्राजील, चीन, भारत, रूस, द.अफ्रीका। इनमें सबसे बुरा हाल तो ब्राजील, रूस, द.अफ्रीका का हो गया है। आर्थिक संकट ने जिन देशों में राजनैतिक संकट को भी जन्म दे दिया है उनकी सूची बड़ी लम्बी है। स्पेन, ब्राजील, द.अफ्रीका, द.कोरिया, बोलिविया जैसे कई देश शामिल हैं। यूरोप के देश इटली, स्पेन भी इसी कोटि में हैं। भ्रष्टाचार के इसके साथ मिल जाने से ब्राजील और द.कोरिया में तो राष्ट्रपति की कुर्सी पर ही बन आयी। <br />
रही बात हमारे अजीज देश की। यह विशाल देश अपनी विकराल होती समस्याओं के भंवर में बीते वर्ष और फंस गया। साल के अंत में वाचाल प्रधानमंत्री की राजनीतिक मंसूबेबाजी ने नोटबंदी की ऐसी योजना फेंकी कि पूरा देश ठिठक सा गया। दर्जनों लोग नोट बदलवाने के चक्कर में अपनी जान से हाथ धो बैठे, पर बेशर्म सत्ताधारियों ने अपने मंसूबों को आगे बढ़ाना था। भले ही किसी की जान जाये या पूरे मुल्क में अफरा-तफरी मचे। देश के प्रधानमंत्री गरीबों को, मेहनतकशों को कष्ट सहने की नसीहत देते रहे। <br />
कश्मीर, मणिपुर, सुलगते रहे पर शासक मौन रहे। किसान आत्महत्या करते रहे पर शासक मौन रहे। मजदूर, कानून सम्मत अधिकारों की मांग करते रहे पर शासक मौन रहे। शासकों की जुबान सिर्फ इन मामलों में चुप रही हालांकि वे पूरे साल खूब बोले। इतना बोले कि कुछ भी सुनना मुश्किल हो गया। संसद के अंतिम सत्र में हाल यह था कि सत्ता पक्ष विपक्ष कुछ न बोल सके इसके लिए बेशर्मी से शोर मचाता रहा और देश का प्रधानमंत्री पूरे देश के सामने इसलिए रोता रहा कि उन्हें लोकसभा में नहीं बोलने दिया जा रहा है हालांकि लोकसभा की हकीकत कुछ और है।<br />
बीते साल का लेखा-जोखा देश और दुनिया के पैमाने पर लिया जाये तो ऐसी ही कुछ तस्वीर सामने आयेगी। पूरी दुनिया में इस साल को इसलिए याद रखा जायेगा कि साम्राज्यवादी देश बंद अर्थव्यवस्था के नारे लगाने लगे तो तीसरी दुनिया के शासक अपने देशों को सबसे खुला, सबसे ज्यादा व्यापार-निवेश के अनुकूल की बातें करने लगे। चीजें अपने विपरीत में शायद इसी तरह बदलती हैं। <br />
अब जब 2016 साल बीत कर अतीत की वस्तु बन गया है तब नये साल 2017 को कैसे लिया जाये। 2017 के संग अतीत का सब कुछ चिपका हुआ है पर दूर अतीत की एक ऐसी चीज इसके साथ आ जुड़ी है, जो इसे कई मामलों में बहुत अलग बना देती है। यानी यह वर्ष महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति का शताब्दी वर्ष है। सौ साल पहले रूस के मजदूरों ने दुनिया को समाजवाद का रास्ता दिखला दिया था। बता दिया था कि युद्ध, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, गैर बराबरी पूंजीवाद का अभिन्न हिस्सा है। इनसे मुक्ति पानी है तो समाजवाद की ओर बढ़ना होगा। समाजवादी क्रांति ही दुनिया को पूंजीवाद से मुक्ति दिया सकती है। इसलिए एक ही राह जो मानव जाति का भविष्य संवार सकती है वह है समाजवादी क्रांति की राह। <br />
अब आशा पालनी हो, नये इरादे जाहिर करने हों, नये संकल्प लेने हों तो सबका एक ही स्रोत हो सकता है, वह है; समाजवादी क्रांति।
बीता साल, आया नया साल
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।