राज्यसभा चुनाव
बीते दिनों राज्यसभा की कई सीटों के लिए चुनाव हुए। इन चुनावों में जगह-जगह से क्रास वोटिंग की खबरें आयीं। सरल भाषा में कहें तो भाजपा ने दूसरे दलों के कुछ विधायक तोड़कर अपने प्रत्याशी को वोट डलवा दिया। हिमाचल में कांग्रेस के 6 व 3 निर्दलीय विधायक, उ.प्र. में सपा के 7 विधायकों व बिहार में कांग्रेस व राजद के 2-2 विधायकों ने अपने उम्मीदवार के बजाय भाजपा उम्मीदवार को वोट डाला व उ.प्र. तथा हिमाचल में भाजपा को एक-एक अतिरिक्त सीट पर विजय मिल गयी। यद्यपि कर्नाटक व उ.प्र. में भाजपा गठबंधन के भी एक-एक विधायकों ने क्रास वोटिंग की। इस सारी जोड़-तोड़ में सबसे चर्चित हिमाचल प्रदेश रहा जहां कि कांग्रेस सरकार के ही गिरने का खतरा पैदा हो गया।
भाजपा नेता दूसरे दलों के नेताओं की क्रास वोटिंग को जहां प्रधानमंत्री मोदी के ‘विकास पथ’ के प्रति समर्थन व्यक्त करने से प्रेरित बता रहे हैं वहीं विपक्षी दल इस क्रास वोटिंग के पीछे भाजपा द्वारा की गयी खरीद-फरोख्त व ईडी-सीबीआई का भय बता रहे हैं। जाहिर है दूसरे दलों के नेताओं को अपने पाले में लाने का ‘खेला’ अब बेहद खुलकर होने लगा है। यहां तक कि दल बड़े गर्व से ‘खेला’ करने का दावा भी करने लगे हैं।
अमित शाह इस ‘खेला’ के उस्ताद खिलाड़ी हैं। उनके आगे दूसरे दल कहीं से नहीं टिकते। न जाने कितने राज्यों में चुनाव में हार के बावजूद भाजपा खरीद-फरोख्त तोड़-फोड़ से सरकार बना चुकी है। हिमाचल में 43 बनाम 25 की लड़ाई में 25 भाजपा विधायकों वाली भाजपा का प्रत्याशी जीत गया तो उसमें बड़े स्तर के जोड़ तोड़-खरीद की भूमिका अवश्य रही होगी।
राज्यसभा चुनाव में पाला बदलते विधायकों की भीड़ दिखलाती है कि पूंजीवादी व्यवस्था में राजनैतिक शुचिता के सारे प्रयास दिखावटी व असफल होने को अभिशप्त हैं। चाहे वह दल-बदल कानून हो या फिर इलेक्टोरल बाण्डों पर लगी अदालती रोक हो, इन सबसे पूंजीवादी राजनीति में खरीद-फरोख्त यानी पैसे का खेल व लालच-धमकी का खेल नहीं रुक सकता। विधायक अपनी विधायकी दांव पर लगा बिकने को तैयार हो जा रहे हैं। पूंजीवादी चुनाव प्रणाली में यह सब होना आम बात बन चुकी है। आखिर विधायकों को अगर एक झटके में करोड़ों रुपये महज एक वोट के लिए मिल रहे हों तो वह भला विधायकी जाने का खतरा उठा कर भी करोड़ों क्यों न कमाये।
भाजपा ने बीते 10 वर्षों के अपने शासन में इस ‘खेला’ को नई ऊंचाईयों पर पहुंचा दिया है। हमेशा चुनाव प्रचार के मोड में रहने वाले प्रधानमंत्री, संघी संगठनों की मशीनरी के साथ सत्ता की हनक, ईडी-सीबीआई से लेकर मीडिया का समर्थन आदि मिलकर उसे ताकतवर तो बना ही देते हैं। पर इसके साथ ही साम दाम दण्ड भेद किसी भी उपाय से जीत हासिल करने की उसकी कवायद अपनी बारी में उसे बाकी दलों से चार कदम आगे बढ़ा देती है। जनता को अपने पाले में लाने के लिए किसी भी हद तक जाने को वह तत्पर रही है। विकास के झूठे ढोल पीटने से लेकर दंगे तक करवाने में उसे गुरेज नहीं रहा है। आरोप तो पुलवामा रचवा अपने सैनिक मरवा चुनावी लाभ लेने के भी उस पर लगते रहे हैं।
ऐसे में स्पष्ट है कि चुनावी जीत के लिए संघ-भाजपा किसी भी हद तक जा सकते हैं। कुछ भी कर सकते हैं। फासीवादी तेवरों से लैस संघ-भाजपा किसी भी कीमत पर अपनी जीत की खातिर किसी के पीछे ईडी-सीबीआई लगा धमकाना-जेल में डलवाना कर सकते हैं। दंगे करवा सकते हैं- अंधराष्ट्रवाद की बयार बहाने के लिए हिंसा-हमला रचवा सकते हैं। यहां तक कि ईवीएम भी बदल सकते हैं। ऐसे में चंद विधायकों की खरीद-फरोख्त तो बड़ी मामूली बात है। पर इनका किसी भी कीमत पर जीतने के, जीतने के लिए कुछ भी करने के फासीवादी कारनामे पूंजीवादी व्यवस्था व उसकी चुनाव प्रणाली दोनों को पतन की ओर भी ले जायेंगे।