किसान आंदोलन और विश्व व्यापार संगठन

फरवरी माह के मध्य से किसान आंदोलन फिर से चर्चा का विषय बना हुआ है। 13 फरवरी से ‘दिल्ली चलो’ के आह्वान के तहत हजारों किसान पंजाब-हरियाणा सीमा पर डटे हुए हैं। हरियाणा पुलिस की ज्यादती व नाकेबंदी उन्हें दिल्ली जाने से रोके हुए है। सरकार से कई राउण्ड की वार्ता विफल हो चुकी है। संयुक्त किसान मोर्चा को भी उक्त संघर्ष के दबाव में कई कार्यक्रम घोषित करने पड़े। जिसके तहत शहीद किसान को श्रद्धांजलि, 26 फरवरी को भारत के विश्व व्यापार संगठन से बाहर आने की मांग करते हुए ट्रैक्टर मार्च व 14 मार्च को दिल्ली में पंचायत आदि कार्यक्रम घोषित हुए। 
    
किसानों की प्रमुख मांग स्वामीनाथन फार्मूले पर न्यूनतम समर्थन मूल्य व कर्ज माफी की है। इसके अलावा किसान नये विद्युत बिल का भी विरोध कर रहे हैं और पिछले किसान आंदोलन के मुकदमे वापसी, लखीमपुर खीरी हिंसा के दोषी मंत्री पर कार्यवाही आदि मांगें भी कर रहे हैं। 
    
किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग पर पूंजीपरस्त मीडिया आज भयानक दुष्प्रचार में जुट गया है। वह यह समझाने में जुट गया है कि अगर सरकार खाद्य फसलों के ऊंचे दाम घोषित करती है तो बाजार में इनके भाव बढ़ेंगे जिसका खामियाजा सभी उपभोक्ताओं को भारी महंगाई के रूप में उठाना पड़ेगा। अगर सरकार ऊंचे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर समस्त खरीद खुद करके उपज को सस्ती दर पर बाजार में बेचती है तो इससे सरकार के खजाने पर इतना बोझ पड़ेगा कि समस्त विकास कार्य रुक जायेगा। इस तरह किसानों की जिद का खामियाजा देश को विकास की राह छोड़ने के रूप में उठाना पड़ेगा। 
    
मीडिया की इन बातों में जरा भी सच्चाई नहीं है। वर्तमान में सरकार कुल 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है। इसमें गन्ने की खरीद चीनी मिलें करती हैं। सरकार कुछ मात्रा में गेहूं व धान की ही खरीद करती है। 6 प्रतिशत किसान ही समर्थन मूल्य पर फसल बेच पाते हैं। 2022-23 में सरकार ने इस खरीद पर 2.38 लाख करोड़ रु. खर्च किये थे जिसका लाभ लगभग डेढ़ करोड़ किसानों को मिला था। ज्यादातर किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे अपनी उपज बेचने को मजबूर होते हैं। किसानों की मजबूरी का लाभ बिचौलिए-आढती उठाते हैं। यह तब है जब अभी समर्थन मूल्य स्वामीनाथन फार्मूले से नीचे है। ऐसे में अगर सरकर स्वामीनाथन फार्मूले पर समर्थन मूल्य घोषित कर ज्यादातर खरीद करती है तो उस पर कुल 10 लाख करोड़ का बोझ आयेगा। 
    
इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि 2022-23 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद लगभग 272 लाख करोड़ था। इसमें कृषि का हिस्सा लगभग 15 प्रतिशत था यानी कि कृषि उत्पादों का कुल मूल्य लगभग 40 लाख करोड़ रु. था। अब अगर यह मान लें कि किसान इसका तीन चौथाई सरकार को बेच देते हैं तथा शेष व्यक्तिगत उपभोग व बीज आदि के लिए बचा देते हैं तो सरकार को 30 लाख करोड़ रु. की सालाना खरीद करनी होगी। सरकार अगर इसको 25 प्रतिशत कम दाम पर उपभोक्ता को दे देती है तो सरकार पर वास्तविक भार 7.5 लाख करोड़ पड़ेगा। अगर सरकार कुछ लोगों को और कम दामों में बेचती है तो भी कुल भार 10 लाख करोड़ के आस-पास ही पड़ेगा। 
    
अब यह राशि सरकार से सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2 प्रतिशत अतिरिक्त खर्च की मांग करती है यानी 5-6 लाख करोड़ रु.। लगभग इतनी ही राशि का सरकार पूंजीपतियों का हर वर्ष कर माफ कर देती है। इस तरह इतनी रकम सरकार बाकी योजनायें प्रभावित किये बगैर आसानी से जुटा सकती है। अगर राहत मात्र छोटे-मझोले किसानों को ही देनी हो तो इसकी आधी रकम से भी काम चल सकता है। 
    
प्रश्न यह उठता है कि आखिर किसान विश्व व्यापार संगठन से बाहर आने की मांग क्यों कर रहे हैं? इसकी वजह बेहद स्पष्ट है। विश्व व्यापार संगठन का कृषि संदर्भी प्रावधान कृषि को बाजार के हवाले करने की वकालत करता है। वह कृषि पर सरकार की सब्सिडी, समर्थन मूल्य आदि को तरह-तरह से हतोत्साहित करता है। ऐसे में विश्व व्यापार संगठन से बाहर आये बगैर या उससे अपने लिए विशेष रियायत लिए बगैर सरकार देश के पैमाने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य व उस पर सरकारी खरीद नहीं कर सकती। इसीलिए किसान विश्व व्यापार संगठन से बाहर आने की मांग कर रहे हैं। 
    
इस तरह किसानों को राहत देना सरकार के लिए मुश्किल काम नहीं है पर जब सरकार बड़ी पूंजी की नंगई से सेवा कर रही हो, वह कृषि क्षेत्र भी उसकी लूट की खातिर भेंट करने को तैयार हो, तब सरकार आसानी से नहीं मानने वाली। केवल जुझारू संघर्ष के जरिये ही उसे झुकाया जा सकता है। किसान इस बात को समझने लगे हैं इसीलिए संघर्ष का बिगुल फूंक मैदान में डटे हैं। 
    
26 फरवरी को किसानों ने विश्व व्यापार संगठन से बाहर आने की मांग इसलिए उठायी क्योंकि 26-29 फरवरी तक विश्व व्यापार संगठन की मंत्री स्तरीय बैठक हो रही थी। इस बैठक में भारतीय प्रतिनिधि ने किसानां की मांग की चर्चा तक नहीं की। यह दिखाता है कि अड़ियल सरकार को झुकाने के लिए किसानों को अभी काफी संघर्ष करना होगा।  

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