भारत में पूंजीपति और वर्ण व्यवस्था

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आजकल राहुल गांधी देश में अभी भी मौजूद जाति व्यवस्था को लेकर काफी मुखर हैं। उनकी इस मुखरता ने सवर्ण मानसिकता से सराबोर भाजपा नेताओं को दुविधा में डाल दिया है। वे न तो खुलकर जाति व्यवस्था के समर्थन व आरक्षण के विरोध में आ सकते हैं और न ही वह कर सकते हैं जो इस वक्त राहुल गांधी कर रहे हैं। ऐसे में वे अपनी आदत के अनुरूप झूठ-फरेब का सहारा ले रहे हैं। 
    
अभी भाजपाईयों ने यह प्रचार अभियान चला रखा है कि राहुल गांधी जातिगत आरक्षण समाप्त करना चाहते हैं। इसका आधार वे राहुल गांधी का वह बयान बताते हैं जिसमें राहुल गांधी ने कहा था कि वे जातिगत आरक्षण को समाप्त करने के बारे में तब सोच सकते हैं जब भारतीय समाज एक न्यायपूर्ण (फेयर) समाज हो जाये जो अभी भारतीय समाज नहीं है। यहां न्यायपूर्ण समाज से आशय जातिगत भेदभाव और गैर-बराबरी से मुक्त समाज ही हो सकता है क्योंकि सारे पूंजीवादी नेताओं की तरह राहुल गांधी भी आर्थिक गैर-बराबरी को तो न्यायपूर्ण ही मानते हैं। 
    
भाजपाईयों के झूठे प्रचार से इतर राहुल गांधी की बात पर जरा गौर फरमायें। वे भांति-भांति से यह मुद्दा उठाते रहे हैं कि देश में सभी क्षेत्रों में ही सभी जाति समूहों (अगड़े, पिछड़े, दलित, आदिवासी) की उनकी आबादी के हिसाब से भागेदारी नहीं है। केवल कुछ अगड़़ी जातियों का ही सभी जगह वर्चस्व है। वे कहते हैं कि आबादी के हिसाब से भागेदारी को सुनिश्चित करना उनके जीवन का मिशन है। 
    
यहां गौरतलब है कि वे यह नहीं कहते कि वर्ण-जाति व्यवस्था को खत्म करना उनके जीवन का मिशन है। वे आबादी के हिसाब से भागेदारी के लिए जातिगत आरक्षण के अलावा जिन कदमों की बात करते हैं उनका भी लक्ष्य वर्ण-जाति व्यवस्था को खत्म करना नहीं है। जातियां बनी रहें पर उनके बीच गैर-बराबरी खत्म हो जाये, उनके बीच भेदभाव खत्म हो जाये। वैसे तो राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखर आलोचक हैं पर इस बिन्दु पर दोनां एक ही बात करते हैं। संघ भी जातियों के खात्मे की नहीं बल्कि उनके बीच समरसता की बात करता है। कुछ लोग राहुल गांधी को सामाजिक तौर पर अंबेडकरवादी बताते हैं पर स्वयं अंबेडकर तो जाति व्यवस्था के खात्मे की बात करते थे। उन्होंने ‘जाति व्यवस्था का समूल नाश’ किताब भी लिखी थी और अपने अंतिम दिनों में निराश होकर बौद्ध धर्म अपना लिया था क्योंकि उन्हें लगा कि हिन्दू समाज से जाति व्यवस्था का विलोप नहीं किया जा सकता। या हो सकता है कि राहुल गांधी आज के अंबेडकरवादियों की तरह हों जो व्यक्तिगत वजहों से आरक्षण के पक्षधर हों जो जाति के बने रहने पर ही मिल सकता है। 
    
पर इन राजनीतिक चतुराईयों और कतर-ब्यौंत से आगे बढ़कर जरा इस मसले पर उसकी व्यापकता में एक नजर डाली जाये। भारत में एक ‘अन्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था के उदय की गति क्या रही है? उसके प्रमुख कारक क्या रहे हैं? और क्या एक ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था संभव है?
    
वर्ण-जाति व्यवस्था पिछले करीब तीन हजार साल से भारत की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवस्था का आधार रही है। इसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन भारत में अंग्रेजी राज से ही शुरू हुआ। 
    
लेकिन यह समझना भारी भूल होगी कि अंग्रेजी राज कायम होने से पहले हजारों साल की वर्ण-जाति व्यवस्था एकरस थी। इसके उलट वह न समय में एकरस थी और न ही क्षेत्र में। यानी समय के साथ इसमें परिवर्तन होता रहा था और किसी एक समय में पूरे देश के अलग-अलग क्षेत्रों में इसकी संरचना अलग-अलग रही। किसी एक क्षेत्र में भी यह समय के साथ बदलती रही। बहुत संक्षेप में इसकी रूप-रेखा इस प्रकार थी। 
    
अपने शास्त्रीय रूप में वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति गंगा-जमुना के मैदानों (उत्तर प्रदेश और बिहार या प्राचीन काल में कौशल और मगध) में हुई- गौतम बुद्ध और महावीर जैन के पहले। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अंत्यज (अछूत) यहीं अस्तित्व में आये जिन्हें बाद में धर्मसूत्रों में नियमबद्ध किया गया। तब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ही समाज के हिस्से माने जाते थे। अंत्यज या अछूत समाज से बाहर थे। इसी तरह दास भी समाज के बाहर थे। स्त्रियों का कोई वर्ण नहीं माना जाता था। विवाह के बाद पति का वर्ण ही उनका वर्ण हो जाता था। ऐसे में स्वाभाविक था कि पुत्र का वर्ण पिता के वर्ण से तय हो। 
    
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति बाहर से आये ‘आर्य’ या वैदिक लोगों में हुई। लेकिन उनके आस-पास लम्बे समय से रह रहे स्थानीय आदिवासी जनों से संघर्ष-सामंजस्य के कारण इन जनों में भी क्रमशः वर्ण व्यवस्था का प्रसार हुआ। हुआ यह कि इन आदिवासी जनों को उनकी आर्थिक-सामाजिक हैसियत के अनुरूप किसी न किसी वर्ण में आत्मसात कर लिया गया। इससे वर्णों के भीतर जातियों की उत्पत्ति हुई। समय के साथ जातियों के भीतर आंतरिक विभाजन भी हुआ। इस तरह एकीकरण और विभेदीकरण के जरिये चार वर्णों (या अवर्ण अंत्यजों को लेकर पांच वर्णों) के भीतर हजारों जातियां पैदा हो गईं। भारत सरकार के हिसाब से देश में जातियों की संख्या पांच हजार से ज्यादा हैं। 
    
गंगा-जमुना के मैदानों में पैदा हुई वर्ण-जाति व्यवस्था जब देश के अन्य हिस्सों में फैली तो वह अपने शास्त्रीय रूप में नहीं फैली। दक्षिण भारत में केवल ब्राह्मण और शूद्र रहे (अंत्यजों के साथ)। पूरे दक्षिण भारत में वैश्य और क्षत्रिय वर्ण नदारद थे। बाद में कुछ ने इसका दावा किया पर ब्राह्मणों ने इस दावे को स्वीकार नहीं किया। इसी तरह पश्चिमी भारत में क्षत्रिय लगभग नदारद रहे हालांकि दसवीं सदी के बाद राजपूतों ने इसका दावा किया। इस तरह पूरे देश में वर्ण-जाति व्यवस्था का एक बुनियादी ढांचा तो था पर इस बुनियादी ढांचे के भीतर ठोस संरचना बहुत भिन्न-भिन्न थी। ब्राह्मण, शूद्र और अंत्यज तो सब जगह थे पर वैश्य और क्षत्रिय के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। 
    
इसी तरह वर्णों और उनके भीतर जातियों की स्थिति में भी विविधता थी और समय के साथ उनमें परिवर्तन भी होता रहा। मध्य काल आते-आते वैश्यों की स्थिति कुछ खराब हुई और शूद्रों की स्थिति कुछ बेहतर। उसके बाद खेतिहर शूद्र जातियों की स्थिति में लगातार बेहतरी होती गई और अंग्रेजों के आने तक देश के कई हिस्सों में वे संख्या और आर्थिक हैसियत में प्रमुख हो चुके थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के जाट, गुजरात के कनबी, महाराष्ट्र के कुनबी, आंध्र के रेड्डी, कामा और कापू तथा केरल के नायर इत्यादि इसी श्रेणी की जातियां थीं। हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के अहीरों-यादवों तथा कुर्मियों के बारे में किसी हद तक यह कहा जा सकता है। 
    
दूसरी ओर ब्राह्मण वर्ण-जाति व्यवस्था के शीर्ष पर होते हुए भी आर्थिक तौर पर काफी विभेदित थे। इसी तरह पढ़ने-लिखने के मामले में भी। प्राचीन काल से ही पढ़ने-लिखने और हिसाब-किताब रखने का मतलब कुछ विशिष्ट जातियों तक सीमित था- ब्राह्मण, कायस्थ, खत्री इत्यादि, व्यापार के मामले में भी वैश्य बनियां और शूद्र बनियों में फर्क था। पहले वाले जहां शहरों के वासी थे और बड़े पैमाने का व्यापार करते थे वहीं दूसरे वाले ग्रामीण थे और स्थानीय पैमाने का व्यापार करते थे। 
    
जब भारत में अंग्रेज आये और अपने शासन के साथ उन्होंने यहां पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की नींव डाली तो उस समय मौजूद वर्ण-जाति व्यवस्था की विविधता का उस पर असर पढ़ना स्वाभाविक था। नयी विविधता में ऊपर चढ़ने का मौका सबको बराबर नहीं मिलना था। पहले की कोई भी वरीयता नये समाज में काफी काम की साबित होनी थी। दो उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा। 
    
जैसा कि पहले कहा गया है, प्राचीन काल से ही देश में पढ़ने-लिखने और हिसाब-किताब का काम केवल कुछ जातियों तक सीमित था- ब्राह्मण, कायस्थ आदि। ऐसे में अंग्रेजों ने जब अपने शासन-प्रशासन की नयी व्यवस्था लागू की तो इसके कारकूनों (अफसरों, बाबुओं इत्यादि) में इन्हीं जातियों के लोग गये। इन्होंने ही अंग्रेजों द्वारा जारी नई सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का सबसे ज्यादा फायदा उठाया और ये ही सरकारी नौकरियों में गये। इस स्थिति में कोई परिवर्तन बीसवीं सदी में आरक्षण की व्यवस्था से ही आना शुरू हुआ। पर कुछ दबंग खेतिहर शूद्र जातियां तथा क्षत्रिय जातियां इससे तब भी वंचित रहे क्योंकि उन्होंने नौकरी को हीन माना। इनमें परिवर्तन आजादी के बाद शुरू हुआ। 
    
आजादी के बाद तक सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों, कायस्थों इत्यादि की प्रधानता का मतलब यह नहीं था कि वे पूंजीवादी उद्यमों में भी प्रधान हो जाते। बल्कि इस मामले में स्थिति ठीक उलटी थी। आज भी देश में बड़े ब्राह्मण या कायस्थ पूंजीपति गिनती के हैं। इसकी सीधी वजह यह थी कि अंग्रेजी राज के पहले ये व्यापार और उधार-बाढ़ी के धंधे में न के बराबर थे। लेकिन ठीक इसी वजह से गुजरात के बनिया (हिन्दू वैश्य और जैन तथा भाटिया और लोहना), पारसी और राजस्थान के मारवाड़ी बनिया बड़े पूंजीपतियों में भारी संख्या में उभरे। बल्कि देश में ज्यादातर बड़े पूंजीवादी उद्यमों की शुरूआत ही उन्होंने की। यह याद रखना होगा कि राजस्थान का मारवाड़ इलाका गुजरात से सटा हुआ है। इसके भी ऐतिहासिक कारण थे। गुजरात का सूरत यूरोप की विश्वव्यापी व्यापारिक कंपनियों के भारत आने के पहले से एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। एक लम्बे समय तक यह अंग्रेजों के लिए भी सबसे बड़ा बंदरगाह था। और भी पीछे जायें तो सिंधु घाटी की सभ्यता के जमाने में गुजरात के लोथल का मैसोपोटामिया की सभ्यता के साथ व्यापारिक संबंध था। यदि दक्षिण भारत का अरब, अफ्रीका और यूरोप से समुद्री व्यापार का संबंध केरल के बंदरगाहों से था तो उत्तर भारत का संबंध गुजरात के बंदरगाहों से। ऐसे में गुजरात, मारवाड़ के बनियों/व्यापारियों का पूरे देश के व्यापार पर प्रभुत्व समझ में आने वाली बात है। वस्तुतः अंग्रेजी राज से पहले ही, कम से कम मुगलों के जमाने से ही सारे देश के प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों पर इन्हीं का प्रभुत्व था। व्यापार और उधार-बाढ़ी का इनका देशव्यापी ताना-बाना था। इसीलिए ये ईस्ट इण्डिया कंपनी और फिर यूरोपीय उद्यमियों के पहले कमीशन एजेन्ट या दलाल बने। 1850 के बाद इन्हीं में से कुछ ने स्वयं के उद्योग शुरू किये। 
    
इस तरह आजादी तक देश के पूंजीवादी उद्यमों में गुजराती-मारवाड़ी बनियों तथा पारसियों की प्रधानता उनकी उस ऐतिहासिक वरीयता का नतीजा थी जो व्यापार और उधार-बाड़ी में उन्हें मध्यकाल से हासिल थी। इसीलिए वर्ण-जाति व्यवस्था में वैश्य के तीसरे दर्जे पर होते हुए भी वे नयी पूंजीवादी व्यवस्था में शीर्ष पर पहुंच गये। सरकारी मुलाजिमों के रूप में ब्राह्मण अब उनके नौकर हो गये। 
    
आजादी के बाद कुछ शूद्र जातियों को भी अपनी किसी स्थानीय वरीयता का फायदा मिला। इनमें से कुछ तो आजादी के पहले ही पूंजीवादी उद्यमों के मामले में आगे उभर आयी थीं। आंध्र के कामा, रेड्डी और कापू; तमिलनाडु के कांगुनाद नायडू तथा गुन्डर; तमिलनाडु के नादर तथा केरल के एझवा; महाराष्ट्र के मराठा तथा गुजरात के पाटीदार इत्यादि ऐसी ही जातियां हैं जो खेतिहर शूद्र जातियां होते हुए भी समय के साथ पूंजीवादी उद्यमों की ओर बढ़ीं और सफल हुईं (ज्यादा सही कहें तो उनमें से कुछ लोग क्योंकि ज्यादातर लोग तो समय के साथ नीचे ही गये)।
    
इस सबसे क्या निष्कर्ष निकलता है? वह यह कि पूंजीवाद में सभी को आगे बढ़ने का एक समान मौका नहीं मिलता, न तो व्यक्ति के तौर पर और न जातिगत समूह के तौर पर। पहले से मौजूद कोई वरीयता या लाभ कुछ के आगे बढ़ने के काफी काम आता है। बाकी पीछे छूट जाते हैं। यूरोप में यही हुआ था। भले ही वहां वर्ण-जाति व्यवस्था नहीं थी पर सामंती व्यवस्था की गैर-बराबरी, भेदभाव और ऊंच-नीच वहां भी थी। इसीलिए वहां के भी सबसे गरीब और दबे-कुचले लोगों में से पूंजीपति शायद ही पैदा हुए हों। वे तो मजदूर ही बने। यही भारत में भी हुआ। 
    
अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है। 

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