अतिक्रमण

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आज देश समाज में आला अफसर अधिकारियों और सरकारों के द्वारा अतिक्रमण नामक बीमारी फैलायी जा रही है। मीडिया चैनलों पत्रिकाओं, अखबारों, टीवी चैनलों पर हो-हल्ले के साथ बहस हो रही है कि क्या सरकार जनता के हित में बड़ा कदम उठा रही है? अतिक्रमणकारियों पर धावा बोल रही है जमीनों को अतिक्रमण मुक्त कर रही है पर ये अतिक्रमण क्या है, किसके हित में है, जमीन का वह छोटा सा टुकड़ा जिस पर झुग्गी-झोंपड़ियां, कुछ मकान आदि बने हैं उन लोगों के जो शायद आज से नहीं आजादी या आजादी के पहले से उन पर निवास कर रहे हैं। फासीवादी सरकारें अपनी जनता पर अतिक्रमणकारी का तमगा लगाकर उनको उनके आशियाने से वंचित कर रही है उनको बेघर कर रही है और दूसरी तरफ सरकारें अपने निकट पूंजीवादी मित्रों को हजारों एकड़ भूमि कौड़ियों के दाम आवंटित कर उनको खुश करने में लगी है और मजदूर-मेहनतकश जनता की बस्तियों को उजाड़ रही है। 
    
जो जनता आजादी के समय से जिस स्थान पर निवास कर रही है तो वह अतिक्रमण वाली जमीन कैसे हुई! असर में खाली पड़ी हजारों एकड़ भूमि सरकारों को नहीं चाहिए वो तो उनको चाहिए जो उस जमीन पर अपना उद्योग लगाना चाहते हैं। चाहत सरकारों की नहीं बड़े-बड़े पूंजीपतियों की है। अब बड़े-बड़े क्षेत्रों को छोड़कर सरकार छोटी-छोटी जगह पर गरीब आशियानों पर धावा बोल रही है। बनभूलपुरा हल्द्वानी का प्रकरण सभी को ज्ञात है वहां पर सर्वे का काम लगभग पूरा हो चुका है। सरकार रेलवे को फिर खुश करने चली है। वो जनता को बेघर करने में लगी है जिसको जनता ने अपना रक्षक समझकर सत्ता पर बिठाया था।
    
एक छोटा सा प्रकरण हल्द्वानी शहर का है जो नगर निगम से संबंधित है। सुशीला तिवारी के मेन गेट के पास यानी सड़क के उस पार ठेले-रेहडी वाले अपना रोजगार चला रहे थे। वो सारे के सारे अस्थायी थे न कि स्थायी। उस जगह पर नगर निगम की टीम को लगा कि यहां पर पार्किंग का व्यापार अच्छा चलेगा, उस जगह पर पूरी नगर निगम टीम, पुलिस ने तोड़ो-फोड़ो का अभियान चलाया और वह जगह साफ सुथरी बना दी। कुछ लोगों का सोचना था कि शायद नगर निगम जाम से निजात पाने का इंतजाम कर रही है लेकिन नगर निगम ने जनता की सोच से परे काम किया। नगर निगम ने अगले दिन उस जगह पर पार्किंग का बोर्ड लगा दिया और अवैध वसूली करने लगी। नगर निगम ने अपनी निजी पार्किंग बना दी। जबकि उस जगह पर आये दिन पुलिस की टीम चालान काटो अभियान चलाती रहती थी। 
    
तीन महीने के बाद सुशीला तिवारी हॉस्पिटल प्रशासन जागा। वह भी अपनी जमीन नहीं खोना चाहता था। हॉस्पिटल ने वैधानिक पट लगाया जिस पर लिखा था यह जमीन सुशील तिवारी हॉस्पिटल की है। कोई भी इस जगह पर अवैध कब्जा नहीं करेगा। तब जाकर नगर निगम ने अपनी अवैध पार्किंग का धंधा बंद किया। बात सिर्फ इतने भर की नहीं है। बात इनको मुंह तोड़ जवाब देने की। इनकी नीतियों के खिलाफ खड़े होने की। जागना तो पड़ेगा। सोने से सिर्फ सपने मिलते हैं, जागने से दुनिया मिलती है और मांगने से गुलामी। इसलिए अपनी व समाज की खुशहाली के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाना अति आवश्यक है और क्रांति हमेशा ही बलिदान मांगती है जिसके लिए अपने आप को तैयार करना पड़ेगा।     -शेखर, हल्द्वानी

आलेख

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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