
भारत के हिन्दू फासीवादियों को दारा शिकोह से बहुत प्रेम है। वे उसे एक ऐसे मुसलमान के तौर पर पेश करते हैं जैसा इस देश के सारे मुसलमानों को होना चाहिए। दारा शिकोह सूफियाना मिजाज का था और उसने न केवल उपनिषद पढ़े थे बल्कि उनका अनुवाद भी किया था।
पर दारा शिकोह एक आम मुसलमान नहीं था। वह मुगल बादशाह शाहजहां का बेटा था। शाहजहां को अपने इस बेटे से बहुत प्यार था और उसने उसे युवराज घोषित कर दिया। लेकिन सूफियाना मिजाज वाला दारा शिकोह भविष्य में हिन्दुस्तान का बादशाह बनने लायक बिल्कुल भी नहीं था। उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले एक सूफी इतिहासकार (सैय्यद अख्तर अब्बास रिजवी) के अनुसार वह सारे प्रशिक्षण के बावजूद एक सेनापति और प्रशासक के रूप में एकदम असफल साबित हुआ। वह भोलाभाला तथा सहज विश्वासी था और मानव चरित्र और प्रतिभाओं का आकलन करने में एकदम अक्षम। ऐसा व्यक्ति बादशाह तो क्या निचले स्तर का प्रशासक भी नहीं बन सकता था।
समय के साथ जब उसकी ये सीमाएं और कमियां दूसरे राजकुमारों को पता चल गईं तो वे उसे किनारे लगाकर स्वयं बादशाह बनने में लग गये। 1657 में शाहजहां की अचानक बीमारी ने उनके बीच लड़ाई को जन्म दे दिया जिसमें अंततः औरंगजेब सफल रहा। औरंगजेब ने दारा शिकोह को सरे बाजार बेइज्जत करने के बाद मरवा दिया। इस कत्ल को जायज ठहराने के लिए औरंगजेब ने दारा शिकोह पर आरोप लगाया कि वह विधर्मी था तथा कहता था कि हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों जुड़वा भाई हैं।
सत्ता पर कब्जा करते समय तथा बाद में भी औरंगजेब ने स्वयं को एक रूढ़िवादी सुन्नी मुसलमान के रूप में पेश किया। यह अकबर के समय से चली आ रही परंपरा से काफी हटकर था। लेकिन औरंगजेब की तरफ से यह महज राजनीतिक चतुराई थी। उसके अपने निजी धार्मिक विश्वास चाहे जो रहे हों पर उसके पचास साल के शासन ने दिखाया कि धार्मिक मामलों में एक बादशाह के तौर पर वह बेहद व्यवहारवादी था। उसने रूढ़िवादी सुन्नियों की मिजाजपुर्सी करते हुए भी उन्हें एक सीमा के भीतर रखा और सीमा का उल्लंघन करने पर उनका दमन करने से गुरेज नहीं किया। कुल मिलाकर सारे बादशाहों की तरह उसने भी धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल किया।
इस इतिहास कथा का हमारे देश की वर्तमान राजनीति के संदर्भ में एक खास मतलब है। उपरोक्त संक्षिप्त वर्णन को पढ़ते हुए भी आज की भारतीय राजनीति के दो प्रमुख चेहरों की याद आ जाती है। एक के बारे में कहा जाता है कि वह सूफियाना है, कि वह भीतर से आध्यात्मिक और दार्शनिक है। उसे भोला भाला और सहज विश्वासी भी कहा जाता है। विरोधियों ने इसी रूप में उसकी छवि गढ़कर उसका नामकरण कर दिया था। दूसरा व्यक्ति उतना ही शातिर तथा तिकड़मी कहा जाता है। उसे बस सत्ता चाहिए जिसके लिए धर्म का इस्तेमाल करने में उसे कोई गुरेज नहीं। बल्कि धर्म का इस्तेमाल कर ही वह सत्ता के शिखर तक पहुंचा है। उसका कोई भी आचरण नहीं दिखाता कि वह भीतर से धार्मिक व्यक्ति है, हालांकि धार्मिक होने का वह लगातार ढोंग करता है। धर्म के प्रति उसका रुख एकदम व्यवहारवादी है। इसने भी पहले वाले को विधर्मी साबित करने का हर संभव प्रयास किया है।
मजे की बात यह है कि इतिहास में दारा शिकोह का पक्ष लेने वाले हिन्दू फासीवादी आज स्वयं औरंगजेब की तरह के इंसान के पीछे गोलबंद हैं। लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि अपनी जहनियत में सारे हिन्दू फासीवादी इसी तरह के हैं- सत्ता के भूखे, जिन्हें सत्ता के लिए धर्म का इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं। औरंगजेब भले ही व्यक्तिगत तौर पर एक धार्मिक व्यक्ति रहा हो पर ये कतई धार्मिक नहीं हैं। औरंगजेब का व्यक्तिगत आचरण आक्षेपों से परे था पर इनके बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। यानी हिन्दू फासीवादी इतिहास के अपने सबसे बड़े खलनायक से बहुत नीचे हैं। उनके नायक यानी दारा शिकोह से तो उनकी तुलना ही बेमानी है।